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2जी घोटाला, अब तो चीजें दुरुस्त कर ले सरकार

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Category: फरवरी 2012

राजीव रंजन झा :

इंटरनेट पर एक कार्टून तेजी से फैल रहा है, जिसमें मोबाइल टावरों की शर-शैय्या (तीरों से बने बिछावन) पर डॉ. मनमोहन सिंह लेटे हैं। इस कार्टून में जो कहने की कोशिश की गयी है, वह तो लोगों के दिलों तक तुरंत पहुँचती है। लेकिन भीष्म पितामह के इस मिथक को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से जोडऩे में एक अड़चन है।

अगर महाभारत के किसी पात्र से आज प्रधानमंत्री को जोड़ा जा सकता है, तो शायद वह पात्र धृतराष्ट्र का है। धृतराष्ट्र नेत्रहीन थे, प्रधानमंत्री के बारे में जनधारणा यही बन रही है कि उन्होंने सब ओर से आँखें मूँद रखी हैं।

सरकार यह कह कर खुश है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में लगभग सारा दोष घोटाले के समय संचार मंत्री रहे ए. राजा पर डाला है। न्यायालय ने यह माना है कि राजा ने प्रधानमंत्री और वित्त मंत्रालय की आपत्तियों के बावजूद खुद सारे निर्णय किये। प्रधानमंत्री ने जिस पत्र के जरिये राजा को आगाह किया था, वह पत्र भी इस फैसले का हिस्सा बना है। प्रधानमंत्री ने राजा को 2 नवंबर 2007 को लिखे पत्र में नये लाइसेंस देते समय उचित और पारदर्शी प्रक्रिया अपनाने की सलाह दी थी और कहा था, ‘इस संबंध में आगे कोई कदम उठाने से पहले आप मुझे स्थिति के बारे में बतायें।‘

तो क्या राजा ने इसके बाद प्रधानमंत्री को बिना कुछ बताये गुपचुप ढंग से फैसले ले लिये? नहीं, राजा ने तो प्रधानमंत्री की इस चिट्ठी का जवाब कुछ ही घंटों के भीतर भेज दिया और साफ कह दिया कि नीलामी नहीं करायी जायेगी। राजा का यह जवाब भी माननीय न्यायाधीशों ने अपने फैसले में डाला है। इसके बाद पहले आओ पहले पाओ की जिस तोड़ी-मरोड़ी नीति पर राजा अमल करने वाले थे, उसका पूरा ब्योरा भी उन्होंने पहले प्रधानमंत्री को ही बताया, 26 दिसंबर 2007 को लिखे पत्र में।

इस घटनाक्रम से क्या नतीजा निकलता है? प्रधानमंत्री ने कहा कि कोई कदम उठाने से पहले मुझे बतायें। राजा ने अपने अगले कदम के बारे में प्रधानमंत्री को बताया। प्रधानमंत्री ने उन्हें ऐसा कदम उठाने से नहीं रोका। इसी आधार पर राजा तर्क दे रहे हैं कि उनके फैसले पर प्रधानमंत्री की सहमति थी। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने इसे यूँ देखा है कि प्रधानमंत्री को पहले से बता कर राजा ने प्रधानमंत्री की मंजूरी ले लेने का आभास देने की कोशिश की।

अगर प्रधानमंत्री ने मंजूरी दी नहीं, तो राजा को रोका भी नहीं। पहले प्रधानमंत्री ने आगाह किया, लेकिन जब राजा ने अपना जवाब भेजा तो उसके बाद आगे नहीं टोका। क्या सामान्य बुद्धि से इस पर यह नहीं माना जा सकता कि राजा के जवाब से प्रधानमंत्री सहमत हो गये, या कम-से-कम उन्हें इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा? न्यायिक रूप से भले ही प्रधानमंत्री को इस फैसले में जिम्मेदार नहीं माना गया हो, लेकिन क्या जनधारणा भी ऐसी ही बनेगी? लोगों के आम नजरिये से देखें तो यही राय बनेगी कि या तो प्रधानमंत्री फैसले से सहमत हो गये, या फिर राजा को रोकने का साहस नहीं जुटा पाये।कुछमहीनोंपहलेप्रधानमंत्रीनेगठबंधनकीमजबूरीकाजिक्रकियाथा।शायदन्यायालयकोखुदप्रधानमंत्री के इस बयान के आलोक में यह प्रकरण देखना चाहिए था। प्रधानमंत्री अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को गठबंधन की मजबूरी के नाम पर नजरअंदाज नहीं कर सकते।

जब फरवरी 2011 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने न्यूज चैनलों के संपादकों से बातचीत में गठबंधन की मजबूरी का यह तर्क रखा था, उस समय भी मैंने लिखा था कि ‘एक भारतीय नागरिक के लिए यह बेचैन होने का समय है। भारतीय सत्ता के शिखर पर बैठा व्यक्ति कह रहा है कि वह मजबूर है। यह मजबूरी क्या उन्हें धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह की श्रेणी में ले जा कर खड़ी नहीं कर देती है? रामधारी सिंह दिनकर की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं - समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध। जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।। प्रधानमंत्री जी, घोटालों से व्यक्तिगत संबंध नहीं होने की बात कहने से आप आरोपमुक्त नहीं हो जाते। मुद्दा यह नहीं है कि आपने घोटाले किये। मुद्दा यह है कि आपकी नाक के नीचे इतने बड़े-बड़े घोटाले हो गये। यह मानना मुश्किल है कि आपको इनकी भनक नहीं थी।‘

लगभग उसी समय मीडिया से एक बातचीत में अरुण शौरी ने बताया था कि कैसे 2009 में ही उन्होंने संचार मंत्रालय में चल रही लूट के बारे में खुद सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सचेत किया था। उन्होंने इस बारे में सारे कागजात, यानी इस लूट के सबूत देने की पेशकश की। लेकिन खुद प्रधानमंत्री या उनके कार्यालय ने इन कागजातों को देखने के लिए शौरी को समय देना मुनासिब नहीं समझा। बाद में शौरी ने वे सारे कागजात सीबीआई के निदेशक को सौंप दिये। सीबीआई से उन्हें इस बात के संकेत जरूर मिले कि उनके सुराग बड़े काम थे, लेकिन सीबीआई की जाँच-पड़ताल का कोई नतीजा नहीं निकला। बस जाँच में लगे अधिकारियों का तबादला हो गया।

खैर, टेलीकॉम घोटाले में सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला सरकार के लिए एक बड़ा मौका साबित हो सकता है, बशर्ते वह इसे इस्तेमाल करना चाहे। न्यायालय ने उसे कुछ बीती गलतियाँ सुधारने और आगे एक साफ-सुथरा दौर शुरू करने का मौका दे दिया है। जिन कंपनियों के लाइसेंस रद्द किये गये हैं, उन्हें न्यायालय ने चार महीने का समय दिया है। इन चार महीनों तक ये ऑपरेटर अपनी सेवाएँ चलाते रह सकते हैं। अदालत ने कहीं यह नहीं कहा कि टीआरएआई इन्हीं चार महीनों में अपनी नयी सिफारिशें दे। केवल इतना कहा है कि टीआरएआई की नयी सिफारिशें मिलने पर सरकार महीने भर के अंदर कदम उठाये। लेकिन वास्तव में ये चार महीने सरकार के लिए भी इस लिहाज से महत्वपूर्ण हैं कि वह इस अवधि में पुरानी उलझनों को सुलझाये और आगे का रास्ता निकाले।

यह साफ है कि अदालत ने गलत को सीधे-सीधे गलत कहा है और उसे सुधारने का आदेश दिया है। मैंने 26 अप्रैल 2011 को शेयर मंथन में लिखा था, ‘अब तो रद्द करें घोटालों के 2जी लाइसेंस।‘ अगर सरकार ने उस समय ऐसा कदम उठा लिया होता, तो न्यायालय में उसकी यह फजीहत नहीं होती। उस समय मैंने यह भी सवाल उठाया था कि ‘अभी तक सीबीआई की सारी कार्रवाई केवल डीबी रियल्टी और स्वान टेलीकॉम के इर्द-गिर्द ही घूम रही है। राजा ने 2जी स्पेक्ट्रम केवल स्वान टेलीकॉम को नहीं दिया था। तो क्या सीबीआई कह रही है बाकी किसी कंपनी को लाइसेंस और स्पेक्ट्रम देते समय राजा ने बड़े पाक-साफ तरीके से काम किया था। कहीं किसी और मामले में सीबीआई को कोई गड़बड़झाला नहीं दिखा है?’ न्यायालय का आदेश साफ बता रहा है कि पूरा खेल ही गड़बड़झाले का था।

सवाल उठेगा कि जो 122 लाइसेंस रद्द किये गये, उनमें से जिन लाइसेंसों के आधार पर कंपनियों ने बड़े नेटवर्क बिछा लिये, अरबों-खरबों रुपये का निवेश कर दिया, बड़ी संख्या में ग्राहक बना लिये, उन सबका क्या होगा?  रास्ता साफ है - जैसे 3जी स्पेक्ट्रम की खुली नीलामी की गयी थी, वैसे ही 2जी के इन सभी 122 लाइसेंसों की भी खुली नीलामी कर दी जाये। अगर कोई कंपनी अपने निवेश और कारोबार को बचाना चाहे तो बोली लगाये और नया लाइसेंस जीते। बोली जीत जाये तो पहले दी गयी रकम काट कर वह बाकी रकम जमा करे। अगर बोली न लगाये तो पिछली रकम जब्त! दूसरा पहलू आपराधिक षड्यंत्रों और रिश्वतखोरी का है। इस पहलू पर कार्रवाई चलती रहे। मैंने सवा साल पहले ही नवंबर 2010 में लिखा था कि जिस 2जी स्पेक्ट्रम पर सारा विवाद है, उसकी फिर से नीलामी करायी जाये। उसमें वैसी ही पारदर्शी प्रक्रिया अपनायी जाये, जैसी 3जी बोलियों में अपनायी गयी। लेकिन क्या यह सवाल नहीं उठता कि अगर शतरंज के खेल में बिसात को 2-3 साल पहले की स्थिति में ले जाना है, तो सारी चालें पलटनी होंगी। इसलिए नीलामी हो तो 3जी लाइसेंसों को भी जोड़ लीजिए! मैं जानता हूँ कि यह सुझाव व्यावहारिक और कानूनी रूप से बड़ा मुश्किल है। लेकिन सरकार एक बार जरा 3जी बोलियाँ लगाने वाली कंपनियों से पूछ कर तो देखे। शायद कई कंपनियाँ कह देंगी कि भाई वापस ले लो अपना 3जी लाइसेंस और हमारा पैसा लौटा दो।

घोटाले की 1.76 लाख करोड़ रुपये की विशाल राशि का आकलन 3जी बोलियों के आधार पर ही किया गया था। इसमें शक नहीं कि 3जी बोलियाँ पूरी तरह बाजार-आधारित थीं, उसकी प्रक्रिया सटीक और पारदर्शी थी। टेलीकॉम कंपनियाँ ऊँचे भावों को लेकर चाहे जितना कसमसायी हों, लेकिन वे इसकी प्रक्रिया पर सवाल नहीं खड़े सकीं। लेकिन इस बात का किसी ने जवाब नहीं दिया कि सरकार ने 3जी लाइसेंस की बोलियों के समय एकदम से कृत्रिम अभाव की हालत क्यों बनायी? और बिल्कुल उसी समय 2जी स्पेक्ट्रम के बारे में असमंजस क्यों पैदा किया गया था?

अगर कोई एक छोटी-सी पहेली का जवाब दे तो शायद यह मामला बेहतर समझ में आयेगा। आरोप यही लगाया गया कि सोने जैसा स्पेक्ट्रम कौडिय़ों के भाव लुटा दिया गया। लेकिन स्पेक्ट्रम पाने के बाद भी तमाम कंपनियाँ अपनी सेवाएँ तक ढंग से शुरू नहीं कर पायीं। नवंबर 2010 में ही खबर थी कि टीआरएआई कौडिय़ों के भाव खरीदा गया सोना अपने घर नहीं ले जा पाने यानी सेवाएँ शुरू नहीं कर पाने के आरोप में 62-65 लाइसेंस रद्द किये जाने की सिफारिश कर रही है। यह सोने की कैसी खान थी, जिसका पट्टा मिलने के बाद भी लोगों ने खुदाई शुरू करना मुनासिब नहीं समझा!

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद अब तो सरकार और कांग्रेस भी नहीं कह सकती कि जनवरी 2008 में लाइसेंस जारी करते समय भ्रष्टाचार और पक्षपात नहीं हुआ। मैंने 19 नवंबर 2010 को लिखा था कि ‘घोटाले की जांच बंद न हो। अपराध तो किये गये, जिसे कोई बच्चा भी समझ सकता है।‘

लेकिन धड़ल्ले से किये गये इस अपराध के खिलाफ बने गुस्से में कुछ बातें उचित तर्क के दायरे से हटी भी हैं। घोटाले का आरोप लगाने वाले शुरुआत से ही कहते आ रहे हैं कि स्पेक्ट्रम पाते ही ऐसे कई लोगों ने उसे कई गुना ज्यादा दामों पर बेच दिया। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में भी यूनिटेक, स्वान और टाटा की ओर से हिस्सेदारी बेचे जाने के प्रकरण का जिक्र इसी संदर्भ में किया गया है। न्यायालय के निष्कर्ष के प्रति संपूर्ण सम्मान रखते हुए मन में यह प्रश्न उठता है कि अगर सारी कीमत स्पेक्ट्रम में ही निहित थी, तो फिर बहुत सारी कंपनियाँ बहुत सारे सर्किलों में उसी कीमती स्पेक्ट्रम को अब तक भुना क्यों नहीं सकीं?

मेरा विनम्र निवेदन है कि पक्षपात और भ्रष्टाचार का विषय स्पेक्ट्रम की वाजिब कीमत और इक्विटी हिस्सेदारी बेचने वगैरह से अलग है। इस मामले में पक्षपात और भ्रष्टाचार दोनों बातें हुईं, यह तो बड़ा स्पष्ट है। दोषियों पर कानून के मुताबिक बेहद सख्त कार्रवाई होनी चाहिए, क्योंकि ऐसा नहीं होने पर जनता में उपजी निराशा बहुत भारी पड़ेगी। लेकिन स्पेक्ट्रम की कीमत और इक्विटी हिस्सेदारी बेचना जैसे कारोबारी विषयों को बाजार की हकीकत और कानूनी रूप से मान्य व्यावसायिक चलन की कसौटी पर परखना जरूरी है।

यूनिटेक वायरलेस ने 22 सर्किलों के लाइसेंस 1651 करोड़ रुपये में हासिल किये और उसके बाद अपनी 60% हिस्सेदारी टेलीनॉर एशिया को 6120 करोड़ रुपये में बेची थी। अगर 60% हिस्सेदारी 6120 करोड़ रुपये की हुई तो पूरी कंपनी का मूल्यांकन 10,200 करोड़ रुपये हो गया। इस पर विरोधी पक्ष की ओर से बेहद सरलीकरण के तहत कहा गया कि यूनिटेक ने एक चीज 1651 करोड़ रुपये में खरीदी और चार गुने में बेच दी। चलिए इस तर्क को मान लेते हैं। मान लेते हैं कि यूनिटेक ने जो लाइसेंस और स्पेक्ट्रम पाये, उनकी असली कीमत 1651 करोड़ रुपये नहीं, बल्कि 10,200 करोड़ रुपये थी।

लेकिन रुकिये। टाटा का किस्सा भी देख लें। उन्होंने भी लाइसेंस पाने के बाद हिस्सा बेचा। टाटा टेलीसर्विसेज ने तो केवल 27.31% हिस्सेदारी 12,924 करोड़ रुपये में बेची। इस हिसाब से कंपनी का 100% मूल्यांकन 47,323 करोड़ रुपये का बना। लेकिन साहब, टाटा ने तो जनवरी 2008 में केवल असम, उत्तर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर की तीन सर्किलों के लाइसेंस पाये थे, जिन्हें ज्यादा कीमती नहीं माना जाता। अब मेरा तो सिर चकरा रहा है कि इस आधार पर पूरे देश की 22 सर्किलों के लाइसेंस और स्पेक्ट्रम की वाजिब कीमत कितनी बनती है। जरा मदद कीजिए गुणा भाग में।

समय को पीछे ले चलते हैं। मान लेते हैं कि जनवरी 2008 में यूनिटेक को 22 सर्किलों के लिए लाइसेंस 1651 करोड़ रुपये में नहीं, बल्कि पूरी वाजिब कीमत यानी 10,200 करोड़ रुपये में दिये गये। अब यूनिटेक को अपनी सेवाएँ शुरू करने के लिए साझेदार की तलाश है।यहउसकाहकहोगा, क्योंकि टेलीकॉम क्षेत्र में 74% तक विदेशी निवेश की अनुमति है। लाइसेंस की शर्तों में कहीं यह नहीं होता कि आप इतने समय तक अपना कोई हिस्सा नहीं बेच सकते। तो ठीक है, कंपनी को नया विदेशी साझेदार मिल जाता है। आप बताइये, यूनिटेक को ऐसे में अपनी 60% हिस्सेदारी कितने में बेचनी चाहिए? क्या अब भी वह हिस्सा 6120 करोड़ रुपये में ही बिकेगा?

कंपनियों के मूल्यांकन की बुनियाद भविष्य की उम्मीदों पर टिकी होती है। चाहे मर्चेंट बैंकरों से पूछें या वेंचर कैपिटल और प्राइवेट इक्विटी निवेशकों से, सब यही बतायेंगे कि अगले 2-3 सालों में कंपनी को कितनी कमाई और कितना मुनाफा होने की संभावना है, इस आकलन के आधार पर मूल्यांकन होता है। तो ऐसे में यूनिटेक जनवरी 2008 में लाइसेंस पाने के बाद उस समय लाइसेंस की कीमत के आधार पर हिस्सा बेचेगी या 2-3 साल बाद कारोबार जितना बड़ा हो सकता है, उसकी संभावना के आधार पर? अगर मान लें कि 10,200 करोड़ रुपये देकर लाइसेंस पाने के बाद भी 2-3 साल बाद की संभावनाओं के आधार पर यूनिटेक 20,000 करोड़ रुपये के मूल्यांकन के आधार पर हिस्सा बेचती, तो हल्ला मचता कि साहब वाजिब कीमत तो 20,000 करोड़ रुपये थी। इस तर्क का तो कोई अंत नहीं है।

यूनिटेक का नाम मैंने केवल मिसाल के तौर पर लिया है, इस गणित को समझने-समझाने के लिए। एक बार फिर दोहराना चाहूँगा कि हिस्सेदारी बेचना को अलग मसला माना चाहिए, जबकि पक्षपात और भ्रष्टाचार के पहलुओं को अलग देखा जाये।

अभी अगर यह आभास पैदा हो रहा है कि हिस्सेदारी बेचना उचित से कम कीमत पर दुर्लभ सरकारी संपदा पा लेने का एक प्रमाण है, तो इसमें भविष्य के लिए खतरे हैं। इससे भविष्य में सरकार से कोई लाइसेंस या ठेका वगैरह पाने वाली किसी भी निजी कंपनी के लिए इसके तुरंत बाद इक्विटी बेच कर पूँजी जुटाना मुश्किल हो जायेगा। अगर आपको किसी ऐसे बाजार में प्रवेश मिल जाता है जहाँ हर किसी के लिए प्रवेश करना संभव नहीं है, यानी वेंचर कैपिटल और प्राइवेट इक्विटी निवेशकों की भाषा में एंट्री बैरियर लगा है, तो आपका मूल्यांकन अपने-आप बढ़ जाता है। ऐसे में अगर उस बढ़े हुए मूल्यांकन के आधार पर प्रवेश शुल्क तय किया जाये तो इससे पैदा होने वाले दुष्चक्र का कोई अंत ही नहीं होगा।

देश की सबसे बड़ी अदालत के इस फैसले के बाद भविष्य के लिए न केवल संचार क्षेत्र में लाइसेंस और स्पेक्ट्रम के बारे में, बल्कि किसी भी क्षेत्र में दुर्लभ सरकारी संसाधनों को देते समय नीलामी ही मानक प्रक्रिया बन जायेगी। ऐसे में अगर बोली लगाने वाली कंपनियाँ खुद ही बढ़-चढ़ कर बेहिसाब बोलियाँ लगायें और बाद में संकट में फंस जायें, तो उसके लिए वे सरकार को दोष नहीं दे सकतीं। इस बारे में उचित कारोबारी संयम तो उन्हें खुद ही बरतना होगा। इस बीच कुछ लोगों को निवेश के माहौल की चिंता सता रही है। लेकिन ऐसा कहना दरअसल उन्हीं विदेशी निवेशकों की अवमानना है, जिनके पक्ष में बोलने का ढोंग रचा जा रहा है। यह एक तरह से ऐसा मानना है कि सारे विदेशी निवेशक केवल नियमों को ताक पर रख कर अवैध कमाई के मौके तलाशने के लिए भारत आ रहे थे। कुछ लोगों की टिप्पणियाँ तो हैरान करती हैं। एक महानुभाव के मुख से सुना कि यह फैसला भारत में विधि के शासन (रूल ऑफ लॉ) के बारे में विदेशी निवेशकों के भरोसे को तोड़ देगा। दैया रे दैया! विधि के शासन का सिद्धांत समझने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने इन महान विशेषज्ञों की कक्षा में तो कभी पढ़ाई ही नहीं की, फिर उन्हें भला क्या पता विधि के शासन के बारे में!

अदालत ने यही तो कहा है कि गलत नीति या नीति के गलत पालन की बुनियाद पर कोई महल खड़ा किया गया हो तो उसे गिरा दिया जायेगा। यह फैसला भारत में निवेश की बुनियाद मजबूत ही करेगा। घरेलू और विदेशी सारे निवेशकों को इससे यही संदेश मिलेगा कि साफ-सुथरे ढंग से निवेश करने और कारोबार चलाने का कोई विकल्प नहीं है।

जनवरी 2008 से जारी सभी 122 लाइसेंस रद्द होने पर कुछ कंपनियाँ कह सकती हैं कि वे तो केवल सरकार की बनायी प्रक्रिया पर चलीं, सरकार के बनाये नियमों को माना और सरकार से मिले लाइसेंस के आधार पर भारी निवेश कर दिया। वे पूछ सकती हैं कि उनकी गलती क्या है और उन्हें होने वाले नुकसान की भरपाई कौन करेगा? लेकिन अगर वे यह सवाल पूछने और राहत पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में समीक्षा याचिका (रिव्यू पिटीशन) दाखिल करें तो कहीं उन्हें लेने के देने न पड़ जायें। अभी तो सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ कंपनियों को 5 करोड़ रुपये और कुछ को 50 लाख रुपये का खर्च भरने को कहा है। ध्यान दें कि अदालत ने इसे जुर्माना नहीं, खर्च कहा है। अदालत ने सरकारी प्रक्रिया को गलत ठहरा कर बात वहीं छोड़ दी है। उसने गलत लाभ देने वाली सरकार को फटकारा, लेकिन गलत लाभ पाने वालों पर कार्रवाई के पहलू को नहीं छुआ क्योंकि वह मामला तो अभी निचली अदालत में चलना है। लेकिन समीक्षा याचिका लेकर सर्वोच्च न्यायालय में फिर जाने पर कहीं चौबे चले छब्बे बनने, दुबे बन कर लौट आये वाली हालत न हो जाये।

मेरा अगला सवाल बड़ा बुनियादी है, जिसे आप बचकाना भी मान सकते हैं। संचार सेवाएँ देने के लिए लाइसेंस की जरूरत ही क्या है? इन सेवाओं के लिए लाइसेंस शुल्क क्यों? लाइसेंस राज खत्म करने वाले मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री हों, तो यह सवाल बेमानी है क्या? आप पूछेंगे कि बिना लाइसेंस के कैसे काम चलेगा? तो जनाब, बिना लाइसेंस के कपड़े कैसे बनते हैं, बिस्किट और टूथपेस्ट की फैक्ट्रियाँ कैसे चलती हैं? लाइसेंस राज हटने का मतलब जंगल राज नहीं होता। नियम-कानून फिर भी होते हैं। दूसरी बात, संचार सेवाओं पर सेवा कर (सर्विस टैक्स) लागू ही है। आप हैंडसेट खरीदते हैं तो उस पर शुल्क लगता है। कंपनियाँ अपने मुनाफे पर आय कर देती हैं। फिर इन सेवाओं के लिए अलग से लाइसेंस शुल्क क्यों? सरकार वास्तव में वह पैसा कंपनियों से नहीं, हमसे आपसे लेती है। आखिर वह शुल्क ग्राहक की जेब से ही तो निकलता है।

आज अलग-अलग तरह के करों और शुल्कों के रूप में टेलीकॉम कंपनियाँ अपनी कुल आमदनी का करीब 30% तक हिस्सा सरकार को दे देती हैं। मान लें कि एक संचार कंपनी को अपने ग्राहकों से कुल 100 रुपये मिले। इसमें से 30 रुपये तो पहले ही सरकार के पास चले गये। अगर मान लें कि कंपनी 30 रुपये का मुनाफा भी कमा सकी तो उस मुनाफे का करीब एक तिहाई यानी 10 रुपया आयकर के रूप में भी सरकार को मिल गया।यानीग्राहकोंकीजेबसेनिकले 100 रुपये में से करीब 40 रुपये सरकारी खजाने में गये, जिसका योगदान केवल स्पेक्ट्रम देना था। लेकिन हर तरह का कारोबारी जोखिम उठाने वाली कंपनी के हाथ में अंत में बचे केवल 20 रुपये। शायद वह भी नहीं, क्योंकि सारी टेलीकॉम कंपनियाँ मुनाफे में नहीं चल रही हैं।

अगर आप लाइसेंस शुल्क हटा दें, तो सवाल स्पेक्ट्रम जैसे सीमित प्राकृतिक संसाधन का उठेगा। अदालत ने कह ही दिया है कि उसकी खुली पारदर्शी नीलामी हो, जिस तरह 3जी के मामले में किया गया। जमाखोरी रोकने के लिए सख्त पैमाने बना दिये जायें। लेकिन अगर नीलामी के जरिये स्पेक्ट्रम की कीमत ली जाये तो फिर सरकार आय में हिस्सेदारी (रेवेन्यू शेयरिंग) न करे। अभी एक ही चीज (स्पेक्ट्रम) दो बार नहीं बेची जा रही है क्या?        

(निवेश मंथन, फरवरी 2012)

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