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संकट की आहट, क्या फिर लौटेगी दुनिया में मंदी?

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Category: सितंबर 2011

सुशांत शेखर :

अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने छह अगस्त को अमेरिका की रेटिंग एएए से घटा कर एए प्लस क्या की, दुनिया भर के शेयर बाजारों में गिरावट की सुनामी आ गयी। इसी के साथ दुनिया भर में विश्लेषकों के बीच यह बहस चल पड़ी कि क्या विश्व अर्थव्यवस्था एक बार फिर मंदी की गर्त में समाने वाली है?

अभी दुनिया 2008 की मंदी से ठीक से उबर भी नहीं पायी है कि एक बार फिर आर्थिक संकट गहराने और दोहरी मंदी की मार की आशंकाओं ने सभी को डरा दिया है। ऐसे में यह समझना जरूरी है कि 2011 का संकट 2008 के मुकाबले कितना गंभीर है। साथ ही यह भी समझना होगा कि अमेरिका सहित दुनिया के बड़े देश इस संभावित मंदी से लडऩे के लिए कितने सक्षम हैं और और खुद भारत ऐसी स्थिति के लिए किस हद तक तैयार है।
साल 2008 और 2011 के संकट में एक बहुत बुनियादी फर्क है और ये फर्क ही सबसे ज्यादा परेशान कर रहा है। 2008 का आर्थिक संकट कुछ कंपनियों और बैंकों के दिवालिया होने से शुरू हुआ था। जोखिम वाले कर्ज यानी सबप्राइम लोन के भँवर में फँस कर अमेरिका के सबसे बड़े निवेश बैंक लेहमन ब्रदर्स सहित कई बैंक डूबे और कंपनियाँ दिवालिया हो गयीं। सिटी ग्रुप, फेनी माय, फ्रेडी मैक और फोर्ड जैसी दिग्गज कंपनियों को सरकारी मदद के जरिये उबारा गया।
जब 2008 में कंपनियाँ दिवालिया होने की कगार पर पहुँची तो अमेरिकी सरकार ने अपने खजाने का मुँह खोल दिया था। लेकिन 2011 की स्थिति अलग इसलिए है कि यहाँ केवल कंपनियाँ नहीं, बल्कि कई देश ही दिवालिया होने के कगार पर हैं। अभी कई देशों की सरकारें ही अपनी देनदारियों को समय पर चुका पाने की स्थिति में नहीं हैं। जब सरकारें ही कटोरा लेकर खड़ी हो गयी हों तो उन्हें कौन बचायेगा? यहाँ तक कि अमेरिका ही बड़ी मुश्किल से डिफॉल्ट करने यानी कर्जों का भुगतान रोकने की स्थिति का खतरा टाल पाया। अमेरिकी सरकार अगर तीन अगस्त तक कर्ज लेने की 14.3 लाख करोड़़ डॉलर की अपनी सीमा को नहीं बढ़ाती तो इतिहास में पहली बार अमेरिका अपनी देनदारियों का भुगतान नहीं कर पाता।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की डेमोक्रेटिक पार्टी बड़ी मुश्किलों से विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी को कर्ज सीमा में 2.4 लाख करोड़ डॉलर की इस बढ़ोतरी के लिए मना सकी। लेकिन इसके एवज में सरकार को सामाजिक और अन्य खर्चों में भारी कटौती के लिए हामी भी भरनी पड़ी। जानकारों को चिंता है कि कहीं इस कटौती से अमेरिकी विकास दर घट न जाये।
खस्ताहाल यूरोप
साल 2008 और 2011 के हालात में एक बड़ा फर्क यह भी है कि 2008 में संकट का केंद्र अमेरिका था, लेकिन 2011 में संकट के केंद्र में है यूरोप। ग्रीस, पुर्तगाल, स्पेन जैसे देश दिवालिया होने के कगार पर खड़े हैं। यूरोपीय देश मिल कर ग्रीस को पहले एक राहत पैकेज दे चुके हैं। लेकिन इसका संकट घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है।
यूरोपीय देशों की साझा मुद्रा यूरो ही अब उनके लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन गयी है। पहले हर यूरोपीय देश की अपनी अलग मुद्रा थी। ऐसे में देशों के सामने यह विकल्प होता था कि वे ज्यादा नोट छाप कर अपने कर्ज को टाल सकें। लेकिन साझा मुद्रा होने की वजह से उन्हें यूरोपीय संघ पर निर्भर रहना पड़ता है। यूरोपीय संघ अपने संकटग्रस्त देशों को मुश्किलों से उबारने के लिए अब तक कोई ठोस रणनीति नहीं बना पाया है। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी और जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल की कई बैठकों का भी कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पाया है।
खुद जर्मनी और फ्रांस की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है। पिछली तिमाही में जर्मनी की विकास दर (जीडीपी) तकरीबन शून्य रही। यही हाल फ्रांस का भी है, जिसके कई बैंकों के दिवालिया होने के बारे में भी अक्सर अटकलें लगती रही हैं। ब्रिटेन की हालत भी बेहद खस्ता है। कई जानकार सामाजिक विकास पर सरकारी खर्च में कटौती से पैदा असंतोष को ही हाल में लंदन में दंगे भड़कने का कारण मानते हैं।
पिछली तिमाही में पूरे यूरो क्षेत्र की जीडीपी विकास दर महज 0.2% रही। यूरोप की खस्ता हालत को देखते हुए एसएंडपी ने अपनी नयी रिपोर्ट में 2011 के लिए यूरो क्षेत्र की विकास दर का अनुमान 1.9% से घटा कर 1.7% कर दिया है। इसने 2012 के लिए इसकी विकास दर का अनुमान 1.8% से घटा कर 1.5% कर दिया है। इसके साथ ही जर्मनी और फ्रांस के विकास के अनुमानों में भी कटौती की गयी है।
कर्ज का बढ़ता बोझ
साल 2008 के मुकाबले बड़े देशों का सरकारी कर्ज काफी बढ़ गया है। 2011 में अमेरिका का कर्ज उसकी सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 72% तक पहुँच चुका है। इस मामले में यूरोपीय देशों का तो हाल और बुरा है। ग्रीस का कर्ज जीडीपी के 152% से ज्यादा हो चुका है। इटली का कर्ज भी जीडीपी के 95% के बराबर है। इस मामले में जापान की हालात भी बेहद खस्ता है, जिसका कर्ज जीडीपी के मुकाबले 127% है। वहीं चीन का कर्ज जीडीपी के 16.5% के बराबर है। गौरतलब है कि भारत का कर्ज जीडीपी का करीब 66% है।
भारत पर कितना असर
हमारे लिए यह सवाल बेहद अहम है कि यूरोप और अमेरिका की इस खस्ता हालत का भारत पर कितना असर पड़ेगा? अमेरिकी कर्ज की रेटिंग घटने के बाद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा कि हालात चिंताजनक जरूर हैं, लेकिन भारतीय संस्थाएँ बेहद मजबूत हैं और सरकार किसी भी विपरीत स्थिति का सामना करने के लिए तैयार है। मगर आँकड़े बताते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की रफ्तार भी सुस्त पड़ रही है।
असली चिंता बढ़ती ब्याज दरों की है। भारतीय रिजर्व बैंक महँगाई पर काबू पाने के लिए पिछले 1 साल में 11 बार ब्याज दरें बढ़ा चुका है। महँगाई तो काबू में आयी नहीं, लेकिन उद्योगों पर सुस्ती दिखने लगी। इसका असर मांग और निवेश दोनों पर दिख रहा है। कम से कम ब्याज दरों से सीधे प्रभावित होने वाले क्षेत्रों, मसलन ऑटो और रियल एस्टेट पर इसका असर साफ है। जुलाई में यात्री कारों की बिक्री में 16% की गिरावट आयी है।
बढ़ती ब्याज दरों से देश में होने वाले निवेश पर भी असर पड़ा है। उद्योग संगठन सीआईआई के आँकड़ों के मुताबिक मौजूदा वित्त वर्ष की पहली तिमाही में देश में 3.20 लाख करोड़ रुपये का नया निवेश हुआ, जो पिछले साल इसी समय करीब 7.20 लाख करोड़ रुपये था। साफ है कि नये निवेश के मोर्चे पर हालात काफी चिंताजनक लग रहे हैं।
हालाँकि निर्यात के मामले में अभी तक सुस्ती के संकेत नहीं मिले हैं। जुलाई में देश का निर्यात 82% बढ़ कर 2930 करोड़ डॉलर का हो गया। लेकिन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने आशंका जतायी है कि अमेरिका और यूरोप की खराब हालत को देखते हुए भारतीय निर्यात की मांग में भी कमी आ सकती है। इसकी वजह यह है कि भारत के कुल निर्यात में यूरोप की हिस्सेदारी 20.2% और अमेरिका की हिस्सेदारी 10.9% है। अगर इन देशों से माँग घटी तो भारत के निर्यात पर इसका असर पड़ना लाजमी होगा।
क्या कहते हैं शेयर बाजार के जानकार
अगर अमेरिका और यूरोप में हालात और ज्यादा खराब हो गये तो इसका सीधा असर भारतीय शेयर बाजार पर पड़ेगा। अमेरिका की रेटिंग घटने के अगले दिन भारतीय बाजार भी भारी गिरावट से बच नहीं पाया था। हालाँकि आनंद राठी सिक्योरिटीज के सीनियर वीपी (रिसर्च) डी. डी. शर्मा कहते हैं कि भारतीय बाजार पर इसका भावनात्मक असर ही ज्यादा पड़ेगा। घरेलू मांग बेहतर होने की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए उतनी चिंता नहीं होगी। उनके मुताबिक अमेरिका और यूरोप के हालात खराब जरूर हैं, लेकिन दोहरी मंदी यानी डबल डिप जैसी स्थिति नहीं दिख रही है।
टॉरस म्युचुअल फंड के एमडी आर. के. गुप्ता वैश्विक आर्थिक संकट में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक सकारात्मक पहलू भी देखते हैं। उनका यह मानना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुस्ती आने पर कच्चे तेल और इस्पात (स्टील) जैसी जरूरी कमोडिटी वस्तुओं की कीमतों में कमी आने की उम्मीद रहेगी, जिसका सीधा फायदा भारत के बुनियादी ढाँचा क्षेत्र को मिल सकता है।
(निवेश मंथन, सितंबर 2011)

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