अशोक खाड़े नवी मुंबई के अपने ऑफिस में बैठ कर मुझसे बातें कर रहे थे।
बातों-बातों में उन्होंने अपनी टेबल पर पड़े दो पेन हाथ में उठा लिये और मुझे दिखाने लगे। एक पेन हरे रंग का और दूसरा चमकदार। ये दोनों पेन उनकी जिंदगी की पूरी कहानी बता देते हैं। हरे रंग का पेन अशोक के पास 30 साल से है। तब इसकी कीमत साढ़े तीन रुपये थी। दूसरा पेन मों ब्लां का है। अस्सी हजार रुपये का ये महँगा पेन दास ऑफशोर इंजीनियरिंग के एमडी अशोक खाड़े का है। उनकी कंपनी में चार सौ लोग काम करते हैं। यह कंपनी समुद्र में से कच्चा तेल निकालने के लिए बड़े-बड़े प्लेटफॉर्म बनाती है। नवी मुंबई के जिस डीवाई पाटिल स्टेडियम में इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के मैच होते हैं, उसमें फेब्रिकेशन उनकी कंपनी ने किया है। मुंबई में बांद्रा, सायन और घाटकोपर में सड़क पार करने के लिए बने स्काई वॉक उनकी कंपनी ने महीनों में खड़े कर दिये। ऐसे बड़े-बड़े काम करने वाले अशोक कहते हैं कि साढ़े तीन रुपये का पेन मुझे हर रोज जमीन पर रखता है, याद दिलाता है कि भूलना मत, क्या दिन देखे थे।
खाड़े परिवार ने सचमुच बहुत बुरे दिन देखे हैं। उनका परिवार पश्चिम महाराष्ट्र के सांगली जिले में रहता था। इस जिले के तासगाँव तहसील में छोटा सा गाँव है पेड। अशोक के पिताजी मुंबई में जूते ठीक करने का काम करते थे। अशोक बताते हैं कि दादर के चित्रा टाकीज के सामने आज भी वो पेड़ है, जिसके नीचे बैठ कर वो जूते बनाया करते थे। माँ तान्हू बाई खेतों में बारह आने रोज पर मजदूरी करती थी। छह भाई-बहनों के परिवार का गुजारा उनकी कमाई से हो नहीं पता था। इसके चलते उन्होंने अपने बड़े बेटे दत्तात्रोय उर्फ अन्ना को पढ़ाई-लिखाई के लिए सोलापुर में रिश्तेदार के पास भेज दिया था।
उन दिनों में एक ऐसी घटना हुई जिससे अशोक को पता चला कि परिवार कितना गऱीब है। तब अशोक पाँचवीं में पढ़ते थे। बारिश का मौसम था। माँ ने शाम को उन्हें चक्की से आटा लेने भेजा था। लौटते वक्त अशोक कीचड़ में फिसल गये और सारा आटा गिर गया। खाली हाथ घर लौटे और माँ को बताया तो वे रोने लगीं। घर में आटा नहीं था। माँ ने कहा कि भाकरी (मोटी रोटी) कैसे बनाऊँगी? माँ पाटील के घर से भुट्टे और काले हुलगे (अनाज) लायी और उनसे भाकरी बना कर बच्चों को खिलाया। खुद कुछ नहीं खाया। सब सो गये, पर तड़के चार बजे अशोक के छोटे भाई सुरेश की नींद भूख से टूट गयी। माँ ने कहा, %सो जाओ उजाला होने पर कुछ करती हूँ।Ó एकाध घंटे बाद माँ ने कुछ बीजों को पीस कर आटा बनाया और भाकरी बना कर सुरेश को खिला दी। अशोक कहते हैं कि सुरेश को पता नहीं चला कि रोटी किससे बनी थी।
गरीबी को खाड़े परिवार मात दे पाया, क्योंकि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई नहीं रुकी। अशोक सातवीं तक पेड गाँव में पढ़े। फिर तासगाँव में ग्यारहवीं तक की पढ़ाई करने चले आये। ग्यारहवीं तक तो अशोक जैसे-तैसे पढ़ लिये, लेकिन 1972 का वो साल पूरे महाराष्ट्र के लिए मुसीबत लेकर आया था। उस साल बारिश नहीं हुई। महाराष्ट्र ने पिछले 100 साल में ऐसा सूखा कभी नहीं देखा था। पत्रकार प्रताप आसबे के मुताबिक 1970 से ही सूखे का असर था और 1972 के अक्टूबर तक हालात बिगडऩे लगे। न पीने को पानी था, न पकाने को अनाज। सरकार की तरफ से सुख्डी या गुड़ मिला रवा बाँटा जाता था। 50 लाख लोग सरकार की रोजगार गारंटी स्कीम में काम करने आते थे जो ग्रामीण आबादी का 20% था। बड़े-बड़े किसान भी मजदूरी करने को मजबूर थे, तो गरीब खाड़े परिवार की आखिर क्या बिसात?
जिस हॉस्टल में अशोक रहते थे वहाँ अनाज की सप्लाई रुक गयी थी। घर से रोटी का इंतजाम नहीं हो सकता था। अशोक अपने पिताजी से मिलने गाँव लौटे तो उन्होंने कहा, ‘बेटा, मैं तुम्हें भाकरी नहीं खिला पा रहा। इसमें मेरा कोई दोष नहीं हैं। घर में सारे बर्तन बिक गये हैं। पर तुम हार मत मानना।' फिर उन्होंने मराठी में एक मुहावरा सुनाया - जो पर्यंत माळया वर पळशाचं येत आहे तो पर्यंत हे नको समझू कि आपण गरिब आहोत। इस मुहावरे का मतलब था कि जब तक पलाश के पत्ते आते रहेंगे, तब तक खुद को गरीब मत समझना। पलाश के पत्ते आने बंद हो जायें तो समझो गरीबी शुरू हो गयी। दरअसल पलाश के पत्ते बिना पानी के भी आ जाते हैं। पलाश के सूखे पत्तों से दोना-पत्तल बनते हैं। पिता ये कहना चाहते थे कि बर्तन न सही दोना-पत्तल में खाना खा लेंगे।
इस किस्से ने अशोक को जिंदगी से लडऩे का हौसला दिया। हॉस्टल जाकर जमकर पढ़ाई में लग गये। अशोक को उनके साथ पढऩे वाले सावारडे पाटील परिवार ने गोद ले लिया और छह-सात महीने तक परिवार ने उन्हें खाना खिलाया। परीक्षा का समय आया तो देसाई सर की नजर उनकी फटी कमीज और पैंट पर पड़ी। वे अशोक को कपड़े की दुकान पर ले गये। कपड़ा दिलवाया। नई शर्ट और पैंट पहन कर अशोक ने परीक्षा दी और 59% नंबर पा कर पास हो गये।
अगली मंजिल थी मुंबई। अशोक के बड़े भाई दत्तात्रेय मझगाँव डॉक में वेल्डिंग अप्रेंटिस की नौकरी पा चुके थे। भाई की सरकारी नौकरी के भरोसे अशोक को उम्मीद थी कि वे डॉक्टर बनने का सपना पूरा कर लेंगे। वे सिद्धार्थ कॉलेज में इंटर साइंस का पहला साल पास कर चुके थे। लेकिन हालात फिर पलटी खा गये। भाई ने कहा कि वो खर्चा उठा नहीं पायेंगे। परिवार की मदद के लिए अशोक को भी 1975 में माझगाँव डॉक में 90 रुपए महीने के स्टाइपेंड पर अप्रेंटिस बनना पड़ा। अशोक आज तक यह बात नहीं भूले कि उनकी क्लास के 26 लड़के डॉक्टर बन गये। कुछ पढऩे में उनसे कमजोर थे। वे 26 लड़के दक्षिण-मध्य मुंबई के जेजे और केईएम कॉलेज में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे। कुछ किलोमीटर दूर अशोक जहाज बनाने की ट्रेनिंग पा रहे थे।
माझगाँव डॉक लिमिटेड का नाम माझगाँव से पड़ा है। माझगाँव उन सात द्वीपों में से एक है, जिन्हें जोड़ कर आज की मुंबई बनी है। अरब सागर से लगे इसी इलाके में मुंबई पोर्ट ट्रस्ट भी है। ये डॉक खाड़े परिवार की आय का जरिया बन गया। बड़े भाई दत्तात्रेय पहले से ही यहाँ थे। छोटे भाई सुरेश भी 1976 में वेल्डिंग अप्रेंटिस बन गये। पढ़ाई छूटने की कसर अशोक ने यहाँ पूरी कर ली। उनकी लिखाई स्कूल के दिनों से अच्छी थी। चार साल की ट्रेनिंग के बाद वे 1978 में ड्राफ्ट्समैन बन गये। सैलरी थी 300 रुपए प्रति माह, काम था जहाज की डिजाइन बनाना।
जो गऱीबी अशोक ने देखी थी उसके मुकाबले तो जिदंगी बहुत अच्छी हो गयी थी। फिर भी अशोक चैन से नहीं बैठे। उन्होंने मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पार्ट टाइम पढ़ाई शुरू की। 1982 में डिप्लोमा हासिल करने के बाद अशोक ने क्वालिटी कंट्रोल में ट्रांसफर ले लिया। सबने कहा कि ये मत करो। ड्राफ्ट्समैन का काम साहब जैसा था। क्वालिटी कंट्रोल का मतलब था घूम कर पसीना बहाना। अशोक के जिम्मे यह देखना था कि जिस डिजाइन से जहाज बनना है, वैसा बन रहा है या नहीं। इसी डिपार्टमेंट ने अशोक को तब के पश्चिम जर्मनी जाने का मौका दिया।
दुनिया में मशहूर जहाज बनाने वाली कंपनी एचडीडब्ल्यू से भारत ने पनडुब्बी बनाने का सौदा किया था। इस सौदे के तहत शिशुमार क्लास की दो पनडुब्बियों को जर्मनी में बनना था। जर्मनी में दुनिया ही अलग थी। अशोक को उस जर्मन इंजीनियरिंग को नजदीक से सीखने-समझने का मौका मिला, जिसका लोहा पूरी दुनिया मानती है।
जर्मनी में उनके साथ लुडविक नाम के इंजीनियर थे। एक दिन उनकी सैलरी स्लिप पर अशोक की नजर पड़ी तो पता चला कि जर्मन इंजीनियर की सैलरी उनसे 12 गुना ज्यादा थी। दोनों काम एक जैसा ही करते थे। अशोक को समझ में आया कि उनके काम का मोल क्या है।
भारत लौटे तो जिंदगी खास बदली नहीं थी। अशोक मुंबई के पूर्वी उपनगर विक्रोली में अपने तीन भाइयों के परिवार के साथ रहते थे। सुबह साढ़े आठ बजे माझगाँव पहुंचना होता था और शाम साढ़े चार बजे काम खत्म होता था। आठ घंटे की ड्यूटी के लिए रोज पाँच घंटे आने-जाने में कट जाते थे। अशोक को लगा कि अगर इन पाँच घंटों का इस्तेमाल आने-जाने के बजाय कहीं और हो तो जिंदगी बदल सकती है।
इसी सोच के साथ दास ऑफशोर इंजीनियरिंग की नींव पड़ी। दत्तात्रेय, अशोक और सुरेश के नाम के अंग्रेजी वर्णमाला के पहले अक्षर ले कर नाम पड़ा है दास। खाड़े बंधुओं ने नौकरी छोडऩे का जोखिम एक साथ नहीं लिया। 1989 में सुरेश ने नौकरी छोड़ी। 1992 में अशोक ने और फिर दत्तात्रेय ने। यहाँ अशोक की जाति पहली बार आड़े आयी। अशोक कहते हैं कि कंपनी का नाम अपने सरनेम खाड़े पर तो रख नहीं सकते थे, क्योंकि जाति का पता लग जाता। आखिर में भाइयों के नाम पर कंपनी बनी। अशोक कहते हैं कि अब उनको खाड़े कहलाने में परेशानी नहीं होती, पर 20 साल पहले यह बड़ा मुद्दा था।
इन भाइयों ने शुरुआत में माझगाँव डॉक में ही छोटे-मोटे ठेके लेने शुरू किये। ठेके सब-कांट्रेक्ट की शक्ल में मिलते थे। जल्दी ही बड़ा ठेका मिल गया। माझगाँव डॉक को बॉम्बे हाई में ओएनजीसी के लिए समुद्र में जैकेट बनाना था। चेन्नई की कंपनी मजदूरों की परेशानी के चलते ये काम बीच में छोड़ कर जा चुकी थी। माझगाँव डॉक के सीएमडी कैप्टन एस. वी. नायर ने यह काम खाड़े भाइयों से कराने की सिफारिश की। उन्हें निराश नहीं होना पड़ा। तीन महीने में दास ऑफशोर ने नीलम तेल कुआँ के एनएलएम-9 के प्लेटफॉर्म को खड़ा कर दिया। यह ऑर्डर 1.66 करोड़ रुपये का था। तब से उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
दास ऑफशोर पिछले 20 साल में समुद्र में 100 से ज्यादा बड़े प्रोजेक्ट पर काम कर चुका है। इनमें से ज्यादातर प्रोजेक्ट बॉम्बे हाई में हैं। सिर्फ ओएनजीसी ही नहीं, उनके ग्राहकों में दुनिया की बड़ी कंपनियाँ जैसे ब्रिटिश गैस, कोरिया की ह्युंडई, ऑस्ट्रेलिया की लेगटन शामिल हैं। एलएंडटी, एस्सार, बीएचईएल जैसी भारतीय कंपनियों का काम भी वो करते हैं। अशोक की कंपनी के कदम अभी यहीं नहीं रुके हैं, जल्दी ही समुद्र किनारे उनका अपना यार्ड होगा। ये यार्ड मुंबई के पड़ोसी जिले रायगड के अलीबाग में बन रहा है। उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात में भी अपना कारोबार फैलाया है।
अशोक ने जो हासिल किया है, वह किसी सपने जैसा है। आज वे उसी पेड गाँव में बीएमडब्ल्यू गाड़ी से जाते हैं जहाँ 40 साल पहले उनके पैर में पहनने के लिए चप्पल नहीं थी। उन्होंने वे खेत खरीद लिये हैं जहाँ कभी उनकी माँ बारह आने रोज पर मजदूरी करती थीं। वे कहते हैं, %गाँव में छुआछूत थी। हमें पानी ऊपर से पिलाते थे, भाकरी ऊपर से फेंक कर देते थे।Ó पर गाँव वालों के प्रति उनके मन में गुस्सा नहीं है। गाँव का मंदिर उन्होंने ठीक कराया है जिसमें कभी उनके पुरखों को जाने से रोका जाता था। अशोक कहते हैं, ‘उन दिनों में गाँव वालों ने हमें सँभाला न होता तो हम आज यहाँ नहीं होते।'
(निवेश मंथन, अप्रैल 2014)