राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
शेयर बाजार ऊँची छलाँग लगाने को बेताब है।
विधान सभा चुनावों के परिणामों के बाद सूचकांकों में उछाल से इसकी पुष्टि होती है। बाजार और मतदाताओं का साफ संदेश है कि दोनों कांग्रेस से उकता चुके हैं। महँगाई और भ्रष्टाचार से बेहाल मतदाता जाति और धर्म से ऊपर उठ कर कांग्रेस को हराने के लिए उतावला दिखता है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली के चुनावों में कांग्रेस की करारी शिकस्त से आम आदमी का गुस्सा समझा जा सकता है।
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों में आशातीत सफलता से भाजपा का उत्साहित होना स्वाभाविक है। मध्य प्रदेश में भाजपा को पिछले चुनावों के मुकाबले अधिक मत मिले हैं, जो मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान की व्यापक स्वीकार्यता का द्योतक है। छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांग्रेस को मिले मतों का फासला कम है, फिर भी भाजपा अपने विधायकों की संख्या बढ़ाने में सफल रही है। लेकिन राजस्थान में भाजपा की सफलता ऐतिहासिक है। यहाँ उसको तीन-चौथाई बहुमत मिला है और कांग्रेस महज 21 सीटों पर सिमट कर रह गयी है। दिल्ली में भी भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। लेकिन अरविंद केजरीवाल ने भाजपा की जीत के उत्सव में रंग में भंग कर दिया और भाजपा के प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी की तेज लहर को मंद कर दिया।
अहम सवाल यह है कि कांग्रेस से बेहद नाराज मतदाताओं का लाभ क्या लोक सभा चुनावों में भाजपा ले पायेगी? क्या भाजपा केंद्र में सरकार बना पायेगी और नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बन पायेंगे? हिंदी पट्टी के विधान सभा चुनावों में नरेंद्र मोदी कारक का व्यापक प्रभाव पड़ा है। इसे नकारना मुश्किल है। यदि गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार आदि राज्यों में भाजपा अपने सबसे बेहतर प्रदर्शन को दोहराती भी है, तो भी लोक सभा में बहुमत के 272 के जादुई आँकड़े को जुटा पाना भाजपा के लिए आसान नहीं है, क्योंकि आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, पूर्वोत्तर राज्यों (असम को छोड़ कर) में भाजपा की उपस्थिति न के बराबर है।
इन राज्यों की 168 सीटों पर भाजपा के लिए प्रभावी चुनौती पेश कर पाना मुश्किल है। उड़ीसा और पंजाब में भी किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद कम ही है। झारखंड की 14 सीटों पर गुजरात या राजस्थान जैसी सफलता की सीमित गुंजाइश है। कर्नाटक की 28 लोक सभा सीटें भाजपा के लिए गले की फाँस बनी हुई हैं। येदियरुप्पा के भाजपा में लौटने से भी पुरानी सफलता को दोहरा पाना मुश्किल लगता है। छोटे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 40 सीटें हैं। इनमें दिल्ली की सात सीटें भी शामिल हैं। इनमें से अगर चार सीटें भी भाजपा जीत जाये तो इसे मोदी प्रभाव ही मानना पड़ेगा। इन सब राज्यों में कुल 284 लोक सभा सीटें हैं (272 के जादुई आँकड़े से ज्यादा)। इन राज्यों में ज्यादा-से-ज्यादा 40 सीटों पर भाजपा की जीत की मनोकामना जायज है। साल 2004 और 2009 के चुनावों में यहाँ इतनी सीटें भाजपा को मिली थीं। गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में ज्यादा सीटें जीत कर भाजपा कर्नाटक की कमी की भरपाई कर सकती है। इन राज्यों में कुल 91 लोक सभा सीटें हैं।
मोदीमय बाजार की आकांक्षा पूरी होने की अनिवार्य शर्त यह है कि भाजपा उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में कम-से-कम 90-100 सीटों पर फतह हासिल करे। इन राज्यों में कुल 168 सीटें हैं। बिहार में भाजपा को 20 से 24 लोक सभा सीट जीतने का पूरा भरोसा है। अविभाजित बिहार में भाजपा १8 से २3 लोक सभा सीटें तीन लोक सभा चुनावों में जीत चुकी है। महाराष्ट्र में एनसीपी के गठन के बाद हुए तीन लोक सभा चुनावों में भाजपा को 9-13 सीटों पर विजय मिली है। जाहिर है कि भाजपा के भाग्य का फैसला उत्तर प्रदेश करेगा। अविभाजित उत्तर प्रदेश में भाजपा 1998 के चुनाव में 57 लोक सभा सीटें जीत चुकी है। लेकिन पिछले चुनाव में भाजपा यहाँ महज 10 सीटों पर सिमट कर रह गयी थी। नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में पूरी शक्ति झोंक कर अपने सबसे सफल, विश्वस्त लेकिन विवादास्पद सिपहसालार अमित शाह को कमान सौंप रखी है। मोदी के भाग्य का फैसला अमित शाह की सफलता या विफलता पर निर्भर है।
नये साल में शेयर बाजार के गुलजार होने में भारतीय अर्थव्यवस्था खुद सबसे बड़ी चुनौती है। घटती विकास दर, गिरता निवेश, कमजोर रुपया, महँगाई, ऊँची ब्याज दरें जैसी चिंताएँ स्थायी राजनीतिक विकल्प से ही दूर हो सकती हैं, जिसकी तलाश बाजार को ही नहीं हर भारतीय को है। निस्संदेह आज कॉरपोरेट जगत ने मोदी को सुशासन और विकास का पर्याय मान लिया है पर इसकी कुंजी अरविंद केजरीवाल के हाथों में आ गयी है।
(निवेश मंथन, जनवरी 2014)