बल्देव भाई शर्मा :
भारत त्याग और वैराग्य की सांस्कृतिक परंपरा वाला देश है।
इसका यह मतलब कतई नहीं कि यह नंगे भूखों का देश है जैसा कि विदेशी इतिहासकारों ने भारत की छवि ‘मदारियों और सपेरों के देश’ की बनाने की कोशिश की। भारत को सोने की चिडिय़ा कहा जाता था, यानी समृद्धि के शिखर पर था देश। त्याग और वैराग्य तो मानवता की सेवा के उपकरण हैं जो धन से उपजे स्वार्थ और विलासिता के भाव को संयमित कर हमें दूसरों के प्रति संवदेनशील बनाते हैं और उनके दुख दर्द के लिए हमारे हृदय के द्वार खोलते हैं।
इसीलिए भारत के त्याग और वैराग्य की परंपरा का उपासक होने पर भी ऋग्वेद में ‘श्रीसूक्त’ की रचना की गयी, ताकि हर घर धन-धान्य से भरा रहे और चारों ओर सुख-समृद्धि लहलहाये।
दुर्गा सप्तशती में महिषासुर-वध के बाद देवताओं ने देवी दुर्गा की स्तुति में कहा -
तस्य वित्तद्र्धि विभवैर्धनदारादि संपदां
वृद्धयेअस्मत् प्रसन्ना त्वं भवेथा सर्वदाम्बिके
यानी अम्बिके, आप भक्तों को वित्त, समृद्धि और वैभव दें और सदा हम पर प्रसन्न रहें।
त्याग और वैराग्य तो तभी सार्थक हैं जब सब प्रकार से संपन्नता हो। जिसके पास कुछ है ही नहीं, वह क्या त्याग करेगा? इसलिए भारत का दर्शन गरीबी का नहीं, समृद्धि का है, भूखे नंगों का नहीं बल्कि अपनी संपदा लुटा कर दरिद्र नारायण की सेवा करने का है। इतिहास में उल्लेख आता है सम्राट हर्ष का, जो हर 12 वर्ष बाद कुंभ में अपनी सारी धन संपत्ति दान कर देते थे। भारत की शासन व्यवस्था का यही आदर्श है कि राजा सिर्फ न्यासी होता था, स्वामी नहीं। इसलिए राजा को प्रजा वत्सल कहते थे, यानी अपनी संतान की तरह प्रजा का पालन करने वाली शासन व्यवस्था, जिसे सत्ता का उपभोग नहीं माना जाता था, बल्कि वह लोक की आराधना थी। वाल्मीकि रामायण में राम ने इसी का संकल्प लेते हुए कहा -
स्नेहं, दयाञ्च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि,
आराधनाय लोकस्य मु्रञ्चते नास्ति मे व्यथा।
यानी प्रजा की सेवा मेरे लिए लोक आराधना है और इसके लिए मुझे अपने स्नेह, सौख्य जैसे गुणों का तो क्या, जानकी का भी त्याग करना पड़े तो मुझे किञ्चिद् भी कष्ट नहीं होगा। महात्मा गांधी ने रामराज्य के इसी आदर्श को स्वतंत्र भारत की शासन पद्धति का ध्येय बनाना चाहा, लेकिन विडंबना देखिए कि सत्ता लक्ष्मी यानी सरकारी खजाने की लूट का पर्याय बन गयी। आजादी के बाद लक्ष्मी का आशीर्वाद रोटी-कपड़ा और मकान के रूप में जिन करोड़ों जरूरतमंद घरों तक पहुँचने की उम्मीद की जा रही थी, वहाँ तो लक्ष्मी के स्वागत में एक दीया तक जलाने की हैसियत नहीं रही और जनसेवा के नाम पर जो देश के मालिक बन बैठे, उनके चौबारों पर घी के दीये जलने लगे, वे धन कुबेर बनते चले गये।
भारत में लोकतंत्र राज्य-लक्ष्मी के अपहरण का पर्व भले बन गया हो, लेकिन जिन स्वामी विवेकानन्द की डेढ़ सौवीं जयंती भारत मना रहा है, वे एक संन्यासी होकर भी 27 अक्टूबर 1885 की संध्या को कलकत्ता में दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में विश्व को धन धान्य से भर देने की प्रार्थना कर रहे थे -
हे माँ, चमत्कार अपार जगत रचना तोमार
शोभार आगार विश्व संसार
शोभे वसुंधरा धन धान्य मय
होय पूर्ण तोमार भंडार।
इसी धन धान्य की देवी लक्ष्मी का आह्वान ऋग्वेद के श्रीसूक्त में करते हुए कहा गया है -
ऊँ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्ण रजतास्त्रजाम्
चंद्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो मआवह।।
श्रीसूक्त की इन 15 ऋचाओं में अग्निदेव से प्रार्थना की गयी है कि स्वर्णमय आभा से युक्त श्री यानी लक्ष्मी मेरे घर में निवास करें और जगत का कल्याण करें। लक्ष्मी की संकल्पना केवल धन-संपदा के रूप में नहीं है, गुण-संपदा के रूप में भी है। इसीलिए धन-लक्ष्मी और राज्य-लक्ष्मी के अलावा लक्ष्मी का एक रूप यश-लक्ष्मी भी माना गया है। इन गुणों के बिना लक्ष्मी विनाशक और पतन की ओर धकेलने वाली माया बन जाती है। इसीलिए माया को महाठगिनी कहा गया है। गुणों का, धर्म का संस्कार न हो तो लक्ष्मीपति को कुमार्गगामी बनने में देर नहीं लगती। धन लोभ और अहंकार जगाता है और इस लोभ में व्यक्ति रिश्ते-नाते, लोक-लाज सब भूल जाता है। चाणक्य को कौटिल्य अर्थशास्त्र में लिखना पड़ा ‘वित्तातुराणां पिता न बंधु’। धन और संपत्ति की चाह में आज कितने रिश्तों का खून हो रहा है, यह हम रोज देख रहे हैं।
इसलिए हिंदू जीवन पद्धति में चार पुरुषार्थों का उल्लेख करते हुए अर्थ यानी धन से पहले धर्म को रखा गया - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। धर्म का संस्कार लेकर लक्ष्मी का अर्जन करोगे तो वह तुम्हें सुख और कल्याण के मार्ग पर ले जायेगी। सेवा-त्याग और वैराग्य लक्ष्मी का ही रूप हैं। इन रूपों में ही लक्ष्मी की शोभा है, इनमें विरत होकर लक्ष्मी अधर्म और पाप की ओर ले जाती है।
इसलिए लक्ष्मी को गणेश और विष्णु के पाश्र्व में रखा गया कि लक्ष्मी तो चंचला है, मन के संस्कार को भ्रष्ट कर सकती है, लेकिन गणेश बुद्धि और विवेक के देवता हैं, वह लक्ष्मी का नियमन करते हैं उसे संस्कार में बांध कर रखते हैं। बुद्धि भ्रष्ट हो गयी तो लक्ष्मी उल्टा असर दिखा कर कलमाड़ी, ए राजा, लालू प्रसाद और मधु कौड़ा जैसे न जाने कितने लोगों को जेल का रास्ता दिखा कर अपयश के गर्त में धकेल देती है। विष्णु धर्म का स्वरूप माने जाते हैं। वाल्मीकि रामायण में विष्णु के अवतार श्रीराम को %रामो विग्रहवान धर्म:’ कह कर धर्म का मूत्र्त रूप बताया गया है। धर्म पूजा-पाठ नहीं होता, धर्म तो गुणों का समुच्चय है, जो मनुष्य जीवन की अवधारणा तय करता है। गीता में श्रीकृष्ण ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं - धैर्य, क्षमा, बुराइयों का शमन, ईमानदारी, शुचिता, इंद्रिय निग्रह, विवेक, विद्या, सत्य और अक्रोध। इन गुणों से युक्त व्यक्ति को धर्मावलंबी माना गया है। विष्णु इसी धर्म के प्रतीक हैं, उनका साथ देकर लक्ष्मी को धर्म का अवलंबन दिया गया है। तुलसी ने रामचरित मानस में धर्म की बड़ी सुंदर व्याख्या की है ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहि अधमाई’, यानी दूसरों की भलाई करने से बड़ा धर्म और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने से बड़ा अधर्म कोई नहीं। धर्म के संस्कार के बिना या गलत तरीकों से अर्जित लक्ष्मी कामनाओं की पूर्ति नहीं करती, बल्कि लिप्साओं-लालासाओं को बढ़ाती है और एक दिन ले डूबती है। बदनामी यानी अपयश को हमारे यहाँ जीते जी मौत माना गया है, इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा- ‘य: सकीर्ति स: जीवित:’ यानी जिसका यश है वही जीवित है। यही यश-लक्ष्मी है। लक्ष्मी की पूजा ही इसीलिए होती है कि वह अपना खजाना सबको बाँटती है। घर-घर खुशियाँ बिखेरती घूमती है, इसीलिए उसे चंचला कहा गया। कुबेर तो खजाने पर कुंडली मार कर बैठे रहते हैं, उनकी पूजा कौन करता है? बिल गेट्स ने संपत्ति का बड़ा हिस्सा परोपकार के लिए दे दिया तो उसकी जय-जयकार होने लगी। त्याग और वैराग्य, सद्गुण और सदाचार ही लक्ष्मी के आभूषण हैं। इनको दूर रखकर लक्ष्मी की उपासना और लक्ष्मी का संचय दोनों ही निरर्थक हैं।
(निवेश मंथन, अक्तूबर 2013)