राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
पिछले दिनों क्रिकेट की इंडियन प्रीमियर लीग की सट्टेबाजी और स्पॉट फिक्सिंग कांड में देश के राजनीतिक और मीडिया नियंता इस कदर मदमस्त थे कि उन्हें आर्थिक और कारोबारी जगत की अहम खबरों की सुध ही नहीं रही।
देश के जनजीवन और साख को गहराई से प्रभावित करने वाली खबरें, जैसे रैनबैक्सी के घटिया दवा निर्माण, चालू खाते का बेकाबू घाटा, डॉलर के सापेक्ष डाँवाडोल रुपया और विकास दर में ऐतिहासिक गिरावट जैसी खबरें हाशिये पर सिमट कर रह गयीं। जाहिर है कि यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार ने राहत की साँस ली होगी क्योंकि वह घोटालों, आर्थिक नाकामियों और नीतिगत पंगुता जैसे कारणों से सुर्खियों में नहीं रही। रियल्टी सेक्टर के पुरोधा भी थोड़े मायूस हुए होंगे। रियल एस्टेट (रेगुलेशन ऐंड डेवलपमेंट) बिल के कैबिनेट से मंजूर मसौदे पर उनके विरोध को पर्याप्त वजन नहीं मिल पाया।
अमेरिका में रैनबैक्सी को घटिया दवाओं की बिक्री के लिए 50 करोड़ डॉलर का जुर्माना देकर पिंड छुड़ाना पड़ा। साल 2006 में घटिया दवाओं के लिए रैनबैक्सी को पहली चेतावनी यूएस फूड एंड ड्रग ऐडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने दी थी। लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद रैनबैक्सी पर यह जुर्माना लगा। जानकारों को ताज्जुब है कि इतने कम जुर्माने पर रैनबैक्सी को अमेरिकी प्रशासन ने कैसे छोड़ दिया। लेकिन भारत के दवा उद्योग ने इस महा अपकृत्य पर नाम-मात्र भी ध्यान देना उचित नहीं समझा। यह करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ का संगीन जुर्म है। ताज्जुब है कि भारतीय दवा नियामक प्रशासन ने विगत पाँच-सात सालों में इस संगीन अपराध के बारे में जानने की कोई कोशिश नहीं की। हाल ही में इस कंपनी की कोलेस्ट्रॉल-रोधी दवा को दूषित पाया गया, जिसके बाद कंपनी को यह दवा अमेरिकी बाजार से वापस लेनी पड़ी। करोड़ों मरीजों का भरोसा तोडऩे का महा-अपराध इस कंपनी ने किया है। क्या यह भारत सरकार का दायित्व नहीं है कि इस पूरे कांड की जाँच कराये? इस घोर निंदनीय अपकृत्य से देश की साख को बट्टा लगा है, जिसके दुष्परिणाम भारतीय दवा उद्योग को झेलने ही पड़ेंगे। सस्ती दवाओं के उत्पादन के लिए विश्व भर में भारत का गुणगान किया जाता था। लेकिन उसकी यह शक्ति अब सवालों के घेरे में आ गयी है। दवा उद्योग की गुणवत्ता और साख बचाये रखने के लिए सरकार को निश्चय ही कठोर कायदे-कानून इस उद्योग पर लागू करने चाहिए।
साल 2012-13 में भारत की विकास दर पिछले 10 सालों के न्यूनतम पर आ गयी। औद्योगिक उत्पादन बढऩे की दर भी 20 सालों के न्यूनतम पर आ गयी है। पिछले 20 सालों की आर्थिक नीतियों का कुल परिणाम सबके सामने है। लेकिन इन नीतियों पर दोबारा समग्र विचार होगा, इसकी संभावना ना के बराबर है क्योंकि विधायी शक्तियों की रुचि नीति, कानून और निगरानी के मूल दायित्व में कमतर होती जा रही है। इतर लाभों में उनकी रुचि ज्यादा है। उदारवादी आर्थिक युग की यह सबसे खतरनाक देन है, जिससे विधायी शक्तियों के प्रति अवाम का अविश्वास निरंतर बढ़ता जा रहा है। किसी भी लोकतंत्र के लिए यह खतरे की घंटी है।
कृषि क्षेत्र की विकास दर महज 1.9% रही, जो 2011-12 में 3.6% थी। लगातार दूसरे साल खनन की विकास दर नकारात्मक रही है, जो यूपीए सरकार की नीतिगत निर्णय लेने की क्षमता की पूरी कलई खोलने के लिए पर्याप्त है। लेकिन यूपीए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह कहते हैं कि बाजार की प्रतिक्रिया भावनात्मक ज्यादा है, वस्तुपरक कम और वास्तविक स्थिति को नहीं दर्शाती है। आर्थिक मामलों के सचिव अरविंद मायाराम का केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन के इन ताजा आँकड़ों पर कहना है कि इसके आँकड़े 8-10 महीने पुरानी तस्वीर दिखाते हैं। ये आँकड़े तो पहले ही आ चुके थे, केवल उनकी पुष्टि भर हुई है। यह मई-जून 2013 की खबर नहीं है। उनका कहना है कि पाँच महीने पहले अस्तित्व में आयी कैबिनेट कमेटी फॉर इन्वेस्टमेंट (सीसीआई) ने 75,000 करोड़ रुपये की अटकी आधारभूत परियोजनाओं को हरी झंडी दे दी है। इसके परिणाम अभी इन आँकड़ों में परिलक्षित नहीं हैं। बहरहाल, अब इस समिति की सहायता के लिए एक और समिति बना दी गयी है।
चालू खाते के बेलगाम घाटे को इन आँकड़ों के साथ देखें तो अर्थव्यवस्था डगमग दिखती है। डॉलर के सापेक्ष रुपये की डाँवाडोल स्थिति से मन और सहम जाता है। लेकिन इन तमाम बुरी खबरों के बीच अच्छी खबर यह है कि मानसून समय से आ गया है और भरपूर बारिश की उम्मीद है। महँगाई की मारक दर भी अब ढलान पर है, जिसके चलते तमाम आर्थिक संगठनों ने चालू वित्त वर्ष में 6% या इससे अधिक विकास दर का अनुमान जताया है। इससे उम्मीद की किरण जगती है।
(निवेश मंथन, जून 2013)