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आरबीआई ने फिर दिखाया संकोच

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Category: मई 2013

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अपनी नयी सालाना मौद्रिक नीति (2013-14) में उद्योग जगत और बाजार की उम्मीदों को आधे-अधूरे ढंग से पूरा किया।

इसीलिए उद्योग जगत ने भी इस नीति का आधा-अधूरा स्वागत ही किया, अगर-मगर जोड़ते हुए।
बाजार का एक बड़ा तबका मान रहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए हाल की कई अनुकूल बातों के मद्देनजर शायद आरबीआई इस बार अपनी रेपो दर में 0.50% अंक की कटौती कर दे, लेकिन इसके बदले आरबीआई ने 0.25% कटौती करना ही मुनासिब समझा। इस फैसले से रेपो दर 7.50% से घट कर 7.25% पर आ गयी है। रेपो दर वह ब्याज दर है जिस पर कोई व्यावसायिक बैंक आरबीआई से बेहद छोटी अवधि के कर्ज लेता है।
इसी तरह रिवर्स रेपो दर को भी 6.50% से घट कर 6.25% पर आ गया है। रिवर्स रेपो वह दर है, जो व्यावसायिक बैंकों को अपना पैसा आरबीआई के पास बेहद छोटी अवधि के लिए जमा कराने पर मिलता है। बाजार उम्मीद लगा रहा था कि नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) में भी कमी होगी। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) और एचडीएफसी बैंक जैसे बड़े बैंकों की ओर से भी इसके लिए पुरजोर आग्रह किया जा रहा था। लेकिन आरबीआई ने इस मांग को अनसुना कर दिया। आरबीआई ने सीआरआर में कोई बदलाव नहीं किया और यह 4% पर कायम है।
आरबीआई ने तो अपनी पिछली समीक्षा में ही कह दिया था कि आगे उसके पास बेहद कम गुंजाइश बाकी है। इसने एक तरह का स्पष्ट संकेत दिया था कि अगले साल भर में उसके पास 0.50% अंक तक ब्याज दर घटाने की गुंजाइश है। आरबीआई ने एक बार फिर यही संदेश दे दिया है कि आने वाले समय में ब्याज दरों में कटौती की ज्यादा उम्मीदें पाल कर न चलें।
बेशक, पिछली समीक्षा के बाद से इस सालाना नीति की घोषणा के दौरान कई ऐसी बातें हुईं, जिनके चलते बाजार ने काफी उम्मीदें बाँध लीं। एक तरफ महँगाई दर घटती दिख रही है, जो आरबीआई की मुख्य चिंता रही है। दूसरी ओर विकास दर में कुछ और कमी आयी है, जिसे सहारा देने की जरूरत दिखती है। मार्च 2013 में थोक महँगाई दर (डब्लूपीआई) 5.96% रही, जो 40 महीनों का सबसे निचला स्तर है। 
ऊँची महँगाई दर का हवाला दे कर ही आरबीआई ने ब्याज दरों में कमी का मौजूदा चक्र काफी देर से शुरू किया और इस कमी की रफ्तार भी इसने काफी धीमी रखी है। लेकिन अपनी नयी सालाना नीति में आरबीआई ने अनुमान जताया है कि 2013-14 में महँगाई दर औसतन 5.5% के आसपास रहेगी।
दूसरी तरफ सोने और कच्चे तेल के भावों में आयी गिरावट के चलते भी भारतीय अर्थव्यवस्था पर दबाव घटा है। खास कर चालू खाते के घाटे (सीएडी) की स्थिति पहले से सुधरने की उम्मीद बनी है। लेकिन अपनी सालाना नीति में आरबीआई ने सीएडी को भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ा जोखिम बताया है। इसका मतलब यही है कि अभी सोने और कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय भावों में गिरावट से मिली राहत को आरबीआई शक की नजर से देख रहा है।
उद्योग जगत ने भी अपनी निराशा जता दी है। कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने अपने बयान में कहा कि रेपो दर में केवल 0.25% अंक की कटौती का यह फैसला उसकी उम्मीदों से पीछे रह गया। सीआईआई के महानिदेशक चंद्रजीत बनर्जी के मुताबिक अगर 0.50% अंक की कटौती होती, तो वह अर्थव्यवस्था को तेजी देने के लिहाज से बेहतर होता और उससे निवेशकों का उत्साह बढ़ता।
लेकिन फिक्की ने इस बात पर ज्यादा जोर डाला है कि आरबीआई ने अब तक ब्याज दरों में जो कटौती की है, उसकी तुलना में बैंकों की ओर से दिये जाने वाले कर्ज की ब्याज दरें बहुत कम घटी हैं। फिक्की की अध्यक्षा नैना लाल किदवई ने कहा कि अप्रैल 2012 से मई 2013 के दौरान रेपो दर में 1.25% अंक की कमी आ चुकी है, लेकिन बैकों की बेस दर 19 अप्रैल 2013 को 9.70/10.25 पर है, जो साल भर पहले 10.00/10.75 पर थी। फिक्की का इशारा इस ओर है कि आरबीआई की दरों में कमी का फायदा बैंक अपने ग्राहकों को नहीं दे रहे।
आरबीआई गवर्नर डुव्वुरी सुब्बाराव ने अपने पूरे कार्यकाल में यह दिखाया है कि वे ब्याज दरें घटाने को लेकर बड़े संकोची हैं। उद्योग जगत और कई अर्थशाी कहते रहे हैं कि ब्याज दरों में कटौती का चक्र दो साल पहले ही शुरू हो जाना चाहिए था। अगर वैसा होता तो रेपो दर को इस समय 7.25% के बदले और कहीं नीचे होना चाहिए था। लेकिन आरबीआई की सोच बीते सालों में यही रही है कि ब्याज दरों को घटाने में हद से ज्यादा संकोच बरता जाये। वही सकोच हमें एक बार फिर आरबीआई के फैसले में दिखा है।
(निवेश मंथन, मई 2013)

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