डी आलोक :
एफएमसीजी क्षेत्र की दिग्गज कंपनी नेस्ले इंडिया के निदेशक बोर्ड ने हाल ही में अपनी स्विटजरलैंड-स्थित मूल (पैरेंट) कंपनी को दी जाने वाली रॉयल्टी में बढ़ोतरी को अपना अनुमोदन दे दिया।
इसके तहत अगले पाँच सालों तक मूल कंपनी को दी जाने वाली रॉयल्टी में हर वर्ष 0.20% की बढ़ोतरी की जायेगी। यह बढ़ोतरी जनवरी 2014 से प्रभावी होगी। इस हिसाब से नेस्ले इंडिया से मूल कंपनी को मिलने वाली रॉयल्टी अगले पाँच सालों में इसकी कुल बिक्री के 4.5% तक पहुँच जायेगी। मौजूदा स्थिति यह है कि नेस्ले इंडिया अपनी मूल कंपनी नेस्ले एसए को अपनी कुल बिक्री का 3.5% हिस्सा रॉयल्टी के तौर पर दे रही है। गौरतलब है कि नेस्ले एसए पिछले दो सालों से अपनी भारतीय इकाई नेस्ले इंडिया से तकरीबन बीस साल पुरानी रॉयल्टी दर में संशोधन के लिए कह रही थी। अपनी भारतीय इकाई में नेस्ले एसए की शेयरधारिता इस समय 62.7% है।
किसी विदेशी मूल कंपनी की ओर से अपनी भारतीय इकाई से ली जाने वाली रॉयल्टी की दर में बढ़ोतरी किये जाने का यह पहला मामला नहीं है। पिछले कुछ महीनों के दौरान मारुति सुजुकी, हिंदुस्तान यूनिलीवर, एसीसी, अंबुजा सीमेंट आदि ने अपने संस्थागत और अल्पमत शेयरधारकों के विरोध के बावजूद अपनी-अपनी मूल कंपनियों को दी जाने वाली रॉयल्टी की दरों को बढ़ाया है।
दरअसल तीन साल पहले सरकार ने एक ऐसा फैसला किया, जिसकी वजह से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपनी भारत-स्थित इकाइयों से हासिल होने वाली रॉयल्टी को मनमाने ढंग से बढ़ाने का मौका मिल गया है। उनकी रॉयल्टी में भारी बढ़ोतरी दिसंबर 2009 में भारत सरकार की ओर से प्रौद्योगिकी में निवेश के नियमों में लचीलापन लाने के फैसले के बाद देखने को मिली है। दिसंबर 2009 में भारत सरकार ने विदेशी तकनीकी साझेदारी के तहत प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, ब्रांड और ट्रेडमार्क के इस्तेमाल के बदले में रॉयल्टी शुल्क के भुगतान के नियमों को ढीला कर दिया था।
मारुति सुजुकी ने साल 2011-12 में बतौर रॉयल्टी 1803 करोड़ रुपये का भुगतान किया, जो इस दौरान इसकी कुल बिक्री का 5.2% था। इसकी तुलना में साल 2007-08 में कंपनी ने अपनी बिक्री का केवल 2.8% हिस्सा रॉयल्टी और अन्य संबंधित शुल्कों के तौर पर अदा किया था।
यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि अधिक रॉयल्टी के भुगतान से ऐसी भारतीय कंपनियों के मुनाफे पर बुरा असर पड़ता है। साथ ही शेयरधारकों को लाभांश देने की उनकी क्षमता भी घट जाती है। यही नहीं, कई मामलों में तो भारी घाटा सहने के बावजूद भारतीय इकाई ने अपनी मूल कंपनी को बढ़ी हुई रॉयल्टी दी है। रॉयल्टी के नाम पर वसूला जाने वाला शुल्क अल्पमत शेयरधारकों की कीमत पर नियंत्रक हिस्सेदारी रखने वाले शेयरधारकों को धनवान बनाता है, जबकि लाभांश भुगतान से सभी शेयरधारकों को समान रूप से लाभ होता है। दरअसल भारत-स्थित सहायक इकाइयों की ओर से अपनी मूल कंपनियों को दी जाने वाली रॉयल्टी की बढ़ती दर कॉरपोरेट प्रशासन के बारे में एक अहम चिंता बन गयी है। अल्पमत शेयरधारक इसके विरोध में कुछ नहीं कर पाते।
एफएमसीजी क्षेत्र की दिग्गज कंपनी हिंदुस्तान यूनिलीवर ने भी अपनी ऐंग्लो-डच मूल कंपनी यूनिलीवर पीएलसी को दी जाने वाली रॉयल्टी में चरणबद्ध बढ़ोतरी का फैसला किया है। अभी यह अपनी मूल कंपनी को बिक्री का 1.4% हिस्सा बतौर रॉयल्टी चुकाती है, लेकिन इसने 31 मार्च 2018 तक इसे चरणबद्ध तरीके से बढ़ा कर अपनी बिक्री का 3.15% करने की घोषणा की है। एक फरवरी 2013 से 31 मार्च 2014 तक इसमें 0.5% की बढ़ोतरी की जायेगी, जबकि उसके बाद 31 मार्च 2018 को खत्म होने वाले कारोबारी साल तक हर साल में इसमें 0.3-0.7% वृद्धि होगी।
हिंदुस्तान यूनिलीवर ने रॉयल्टी में वृद्धि का फैसला लेते समय अपने शेयरधारकों की अनुमति नहीं ली। यह इस मसले पर अल्पमत शेयरधारकों के पास कोई अधिकार न होने की ओर ही इशारा करता है। कंपनी ने अपने निदेशक मंडल की बैठक में ही इस बारे में फैसला कर लिया था। हालाँकि ऐसा करके कंपनी ने किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया, लेकिन ऐसे फैसले लेते समय अगर कंपनियाँ शेयरधारकों की अनुमति लें तो इससे शेयरधारकों का भरोसा मजबूत होगा।
(निवेश मंथन, अप्रैल 2013)