गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में दिल्ली में एक मीडिया समूह के कार्यक्रम और कोलकाता में उद्योग संगठनों के एक कार्यक्रम में अपनी आर्थिक सोच के कई पहलुओं को सामने रखा।
समाचार माध्यमों से लेकर फेसबुक और ट्विटर जैसे सामाजिक माध्यमों पर छिड़ी राहुल बनाम मोदी की बहस के बीच लोगों ने मोदी के इन भाषणों को भी बड़ी दिलचस्पी से सुना। मोदी ने राहुल गांधी की बातों का जवाब देने के बदले गुजरात में विकास के अपने मॉडल की कामयाबी के गुण गाये। लेकिन विकास के मोदी मंत्र में आखिर है क्या? बड़े आर्थिक मसलों और चुनौतियों के बारे में मोदी की सोच क्या है? मोदी की आर्थिक नीतियों का ताना-बाना समझने के लिए देखते हैं उनके इन भाषणों के कुछ चुनिंदा अंश।
जिन दिनों मैंने मुख्यमंत्री का पद लिया, तब हमारे सभी पीएसयू करीब-करीब डूब चुके थे। घाटे में चल रहे थे। उनको ताले लगाने की नौबत आ गयी थी। हमारे सामने दो विकल्प थे। हमारे देश का एक मॉडल है कि पीएसयू को ताला लगा दो। दूसरा मॉडल है कि पीएसयू को बेच दो। ये दो चीजें हैं। हमने सोचा कुछ समय के लिए हमें तीसरा मॉडल देना चाहिए और बड़ी ही सफलता के साथ तीसरा मॉडल हमने दिया है। वो मॉडल ऐसा है जिसमें हमने पीएसयू को पेशेवर ढंग से चलाये जाने पर बल दिया।
हम पीएसयू के निजीकरण के पक्षकार हैं। मुझे विश्वास है कि गुजरात उस मॉडल को भी करके दिखायेगा। लेकिन हम पक्के गुजराती हैं। हम पक्के व्यापारी हैं। हमारी रगों में व्यापार दौड़ता है। हम घाटा नहीं होने देंगे। सरकार में हूँ तो भी साहब मैं मुनाफा करके छोडूँगा।
आज मैं यहाँ अच्छे प्रशासन (गुड गवर्नेंस) की चर्चा कर रहा हूँ, सरकार की चर्चा कर रहा हूँ। मैं दिल्ली में रहने वाले लोगों से पूछता हूँ कि दुनिया की सबसे बड़ी सरकार कहाँ है? वह दुनिया की दिल्ली में है। यहाँ केंद्र सरकार है, राज्य सरकार है, नगर निगम है। छोटे से शहर में इतनी सारी सरकारें हैं। क्या आप सुरक्षित हैं, संतुष्ट हैं? मित्रों, न्यूनतम सरकार, अधिकतम प्रशासन की चर्चा जरूरी है। जहाँ न सरकार है, न प्रशासन है, वह भी बड़ी चिंता का विषय है।
श्रम सुधारों का जो मसला है, हिंदुस्तान का कोई भी राजनीतिक दल श्रमिकों को नाराज करके राजनीति नहीं कर सकता। हरेक को उन्हें साथ रखना पड़ेगा। लेकिन कुछ लोगों के लिए श्रमिक एक राजनीतिक औजार हैं। कुछ लोगों के लिए श्रमिक विकास का साधन है।
भूमि अधिग्रहण के संबंध में इस देश की सरकारों को गुजरात मॉडल का अध्ययन करना चाहिए। गुजरात से सीखना चाहिए। गुजरात ने एक मॉडल विकसित किया है, जिसमें सरकार की भूमिका सिर्फ सहायता करने की है। वह एक उत्प्रेरक एजेंट की भूमिका निभाती है। जिसको उद्योग लगाना है उसे और किसान दोनों को हम साथ बैठाते हैं, पूरी बातचीत करते हैं। उसमें हम यह देखते हैं कि हमारे किसान का शोषण न हो।
किसी की जमीन ली उसके परिवार के एक व्यक्ति को रोजगार दो। उस जमीन का उपयोग अगर उद्योग के लिए होता है तो उस व्यक्ति का कौशल विकसित करो और उसको रोजगार दो। फिर जमीन का जो विकास होगा, उसमें कुछ प्रतिशत की साझेदारी होगी, जीवन भर उसकी आय होती रहेगी।
एफडीआई पर मैं भाजपा की नीति बता दूँ। भाजपा ने कभी ज्ञान के संबंध में, तकनीक के संबंध में, उत्पादन के संबंध में एफडीआई का विरोध नहीं किया है।
दुनिया के पास आधुनिक विज्ञान है तो उससे वह लेना पड़ेगा। अगर हमें वह उत्पादन क्षेत्र में मिलता है तो हमें लेना पड़ेगा। भाजपा का मुद्दा खुदरा (रिटेल) कारोबार से जुड़ा हुआ है। भाजपा ने इसके संबंध में अपना एक नजरिया रखा है और मैं मानता हूँ कि हम सही दिशा में हैं।
मैं हथियारों की होड़ का पक्षकार नहीं हूँ। लेकिन हमारे देश की सुरक्षा हमारी प्राथमिकता है। हम सुरक्षा के लिए अपनी तिजोरी खाली करते चले जायें तो यह असंतुलन है। क्या हमारे देश के इंजीनियरों में रक्षा उपकरण तैयार करने का सामथ्र्य नहीं है? भरपूर सामथ्र्य है। मेरा तो मत है कि अगर ठीक से तैयारी करें तो हम दुनिया के कई देशों को रक्षा उपकरणों का निर्यात कर सकते है। गुजरात ऐसा राज्य है, जो दो वर्षों से रक्षा उपकरणों के उत्पादन के लिए विशेष नीति की दिशा में जा रहा है।
लेकिन निर्यात के विषय में हमारी नीतियों में स्थिरता होनी चाहिए। हाल में कपास का निर्यात करना बंद कर दिया गया। मुझे अभी भी भारत सरकार जवाब नहीं दे पा रही है कि उसने कपास का निर्यात क्यों बंद किया?
अंतर्राष्ट्रीय बाजार के अंदर आप रातों-रात नियमों में बदलाव नहीं कर सकते। एक खरीदार चार साल पहले तय करता है कि उस राज्य के उस किसान से मैं इतना माल लेने वाला हूँ। अचानक आप नीति बदल देते हैं। दुनिया भर में खरीदार के मन में अविश्वास पैदा हुआ है क्योंकि हमारी नीति में स्थिरता का अभाव है।
हमारे देश में यह हो रहा है कि डिलीवरी सिस्टम ठीक करने को भी आर्थिक सुधार बताया जा रहा है। आप लोगों ने जो पचास साल गलतियाँ की हैं, उन गलतियों को ठीक करें तो उसको भी सुधार बताया जा रहा है। उसके कारण मैं समझता हूँ कि हमारे यहाँ सुधार शब्द बड़ा ही अस्पष्ट हो गया है।
हाँ, मैं यह मानता हूँ कि कर प्रणाली में अगर आप आमूलचूल परिवर्तन करते हैं, या निवेश की नीति में आमूलचूल परिवर्तन करते हैं, लाइसेंस राज अगर आप खत्म करते हैं तो ये चीजें हैं जो सुधार के क्षेत्र में आयेंगी। लेकिन आप डिलीवरी सिस्टम को ठीक करेंगे और कहेंगे कि हम बड़े सुधार ला रहे हैं! या, आप तिजोरी खाली करने का कोई कार्यक्रम करते हैं कि अभी 50,000 करोड़ रुपये यहाँ फेंक देंगे तो गाड़ी चल जायेगी। छह महीने के बाद फिर तिजोरी भर गयी तो 50,000 करोड़ रुपये दे दिये। यह कोई आर्थिक सुधार कार्यक्रम नहीं हैं। ये चैरिटेबल ट्रस्टों के काम हैं। मुझे माफ करें, पर यह हो रहा है। हम कम-से-कम ये चीजें बंद करें, तो भी बहुत बड़ा सुधार होगा।
भारत सरकार की सौर ऊर्जा (सोलर एनर्जी) की नीति के बावजूद यूपीए सरकार ने मात्र 100 मेगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन किया है, जबकि गुजरात सरकार ने एशिया का सबसे बड़ा सोलर एनर्जी पार्क तैयार किया है और देश में अकेला गुजरात 650 मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन करने वाला राज्य बना है।
दिल्ली में जो यूपीए सरकार बैठी है, उसको विकास के लिए कुछ काम करना हो, निर्णय करना हो तो दो-दो साल हो गये, फाइलें वैसी की वैसी पड़ी हैं। ऐसा माहौल बना है कि सब कुछ अटका पड़ा है।
दूसरी तरफ राजनीतिक लाभों के लिए जो निर्णय करने हैं, उनमें देरी नहीं लग रही है। भारत के संघीय ढाँचे को नकार दिया जा रहा है। राज्यों के साथ भेदभाव हो रहा है। अगर आप यूपीए शासित राज्य हैं तो आपसे एक अलग तरह का व्यवहार होता है और अगर आप गैर-यूपीए शासित राज्य हैं तो आपसे दूसरी तरह से व्यवहार किया जाता है।
भारत सरकार को राज्यों के साथ पक्षपात करने का अधिकार नहीं है। जो भी आपने फार्मूला बनाया हो, आपको निर्णय करने का अधिकार है। लेकिन भेदभाव के लिए आपको छूट नहीं दी जा सकती है। इस प्रकार का भेदभाव अनेक राज्यों के सपनों को चूर-चूर कर देता है।
जब राज्य कुछ अच्छा करें तो क्रेडिट लेने के लिए भारत सरकार उछल कर आ जाती है, क्योंकि राज्यों के प्रदर्शन से ही कुल मिलाकर दिल्ली का प्रदर्शन दिखने वाला है। लेकिन अगर कुछ कठिनाई हो तो सारा भार राज्यों पर डाल देना। सारी जिम्मेदारी राज्यों की है। दिल्ली में बैठे हुए शासकों को पूरे हिंदुस्तान को साथ में लेकर चलने का मन बनाना पड़ेगा।
मैं अनुभव के आधार पर कहता हूँ कि यही सरकारें, यही मुलाजिम, यही दफ्तर, यही फाइलें, यही कारोबार, इन्हीं सब के रहते हुए भी देश आगे बढ़ सकता है।
हिंदुस्तान में औद्योगिक विकास और कृषि को आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया है दिल्ली सरकार ने, जैसे दोनों एक-दूसरे को मारने को तुले हुए हों। यह चित्र कभी हमारे देश में नहीं था। गुजरात ऐसा प्रदेश है, जहाँ औद्योगिक विकास भी हुआ है और साथ-साथ कृषि योग्य भूमि में भी 18 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई है। आर्थिक विकास यात्रा को हमने तीन भागों में बाँटा है। एक तिहाई उत्पादन (मैन्युफैक्चरिंग), एक तिहाई कृषि क्षेत्र और एक तिहाई सेवा क्षेत्र। तीनों को समान रूप से ताकत दे कर हम आगे बढ़ाते हैं।
पिछले 20 साल से हर सरकार ने 4% कृषि विकास का संकल्प लिया है, लेकिन 4% का लक्ष्य हम प्राप्त नहीं कर पाये। वहीं गुजरात में पिछले दशक में औसत करीब-करीब 10% की कृषि विकास दर है।
अर्थव्यवस्था के मॉडल का सबसे बड़ा काम यह होना चाहिए कि एक सामान्य आदमी की क्रय शक्ति कैसे बढ़े? उसकी क्रय शक्ति तब तक नहीं बढ़ती है, जब तक प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि नहीं होती। तब तक वह खर्च करने की ताकत नहीं रखता है।
गुजरात के विकास का मॉडल और विकास का एजेंडा किसी अन्य राज्य के विकास की तुलना के लिए नहीं है। परंतु स्थिति को बदला जा सकता है, ऐसा भरोसा गुजरात ने पैदा किया है। गुजरात के अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि यह सब कुछ बदला जा सकता है। हिंदुस्तान के हर नागरिक को विकास की यात्रा में हिस्सेदार बनाया जा सकता है। हर एक के अंदर देश को आगे ले जाने का सपना बोया जा सकता है।
हमारे देश में एक जिले का मॉडल दूसरे जिले में भी वैसे का वैसा लागू हो सके, ऐसा कभी नहीं होता। लेकिन उसकी दिशा, मूल सोच और रणनीति काम आती है और जरूरत के अनुसार उसमें बदलाव करना होता है।
(निवेश मंथन, अप्रैल 2013)