शिव ओम गुप्ता :
क्या आप अपने खून-पसीने की कमाई किसी ऐसी जगह पर निवेश करना पसंद करेंगे, जिस पर लाभ मिलने में संशय हो और नतीजे आत्मघाती होते हों?
इसमें दो राय नहीं कि कोई व्यक्ति भी ऐसे आत्मघाती निवेश से बचने की कोशिश करेगा। इसके बावजूद तकरीबन 75% लोग पेशेवर पढ़ाई या प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर ऐसे संस्थानों में अपनी जमा पूँजी का निवेश करते हैं, जहाँ से पढ़ाई पूरी करके निकलने वाले युवाओं का भविष्य पूर्णतया भगवान भरोसे होता है।
निजी शिक्षण संस्थानों के अंधाधुंध फैलाव ने शिक्षा की गुणवत्ता को निश्चित रूप से प्रभावित किया है। ऐसे बहुसंख्य संस्थानों में शिक्षा अब प्राथमिकता नहीं रह गयी है और व्यवसाय ही उनका मुख्य उद्देश्य बन गया है। पेशेवर शिक्षा में निजी दखल बढऩे से संस्थानों की संख्या भले ही तेजी से बढ़ी हो, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता में उतनी ही तेजी से गिरावट आयी है। पहले की तुलना में आज प्रति वर्ष लाखों छात्र इंजीनियरिंग की डिग्री जरूर हासिल कर रहे हैं, लेकिन सीमित अवसर और अच्छी शिक्षा के अभाव में उन्हें एक अदद नौकरी पाने के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं।
हाल ही में लोकसभा में श्रम और रोजगार मंत्री मल्लिकार्जुन खडग़े ने जो आँकड़े पेश किये, वे इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इन आँकड़ों के मुताबिक वर्ष 2007 में निजी और सरकारी संस्थानों से निकले तकरीबन दो लाख इंजीनियर और 1.32 लाख डिप्लोमाधारी बेरोजगार थे। बेरोजगार इंजीनियरों और डिप्लोमाधारियों की संख्या वर्ष 2005 में 1.12 लाख थी, जबकि वर्ष 2003 में यह आँकड़ा महज लगभग 82,000 था। ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में इंजीनियरिंग डिग्री लेकर निकलने वाले महज 25% युवा ही रोजगार पाने के योग्य हैं। निजी इंजीनियरिंग संस्थानों में हासिल होने वाली शिक्षा का स्तर खराब होना इसका स्पष्ट कारण है।
निजी इंजीनियरिंग संस्थानों की बाढ़ से भारत में ऐसे बहुत से छात्रों को भी इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में प्रवेश का मौका मिल जाता है, जिन्हें बारहवीं की परीक्षा में काफी कम अंक मिले हों। निजी संस्थान अपनी सीटें भरने के लिए बगैर प्रवेश परीक्षा कराये ऐसे छात्रों को भी दाखिल कर लेते हैं, जो इंजीनियरिंग के लिए जरूरी गणित और विज्ञान जैसे विषयों में कमजोर हों।
वल्र्ड बैंक की रिपोर्ट
वल्र्ड बैंक की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारतीय इंजीनियरिंग कॉलेजों से निकले इंजीनियरिंग छात्रों की शिक्षा की गुणवत्ता न केवल औसत दर्जे की है, बल्कि ऐसे काफी छात्रों में इंजीनियरिंग के बुनियादी ज्ञान की भी कमी है।
यह रिपोर्ट कहती है कि भारतीय इंजीनियरिंग कॉलेजों के छात्रों को रोजगार देने वाले 64% संगठन उनके प्रदर्शन से नाखुश हैं। नौकरी देने वाले इन संगठनों का मानना है कि इनमें से ज्यादातर छात्र इंजीनियरिंग की मूलभूत बातों में भी कमजोर हैं। साथ ही कॉलेजों में मिली उनकी शिक्षा की गुणवत्ता भी औसत दर्जे की है।
इन नियोक्ताओं की राय है कि भारतीय इंजीनियरिंग कॉलेजों से हाल में निकले ज्यादातर छात्रों में बड़ी सोच और समस्याओं को सुलझाने जैसे गुणों का अभाव होता है, जबकि उन्होंने अपने शिक्षा संस्थान में अच्छे अंक हासिल किये होते हैं।
केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 1998 से 2008 के दौरान इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या तेजी से बढ़ी है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक इस एक दशक में इंजीनियरिंग कॉलेजों में होने वाले दाखिलों में 800% से अधिक का इजाफा हुआ।
वल्र्ड बैंक अब भारतीय इंजीनियरिंग स्नातकों की गुणवत्ता में सुधार के लिए भारत सरकार के साथ मिलकर एक ग्रूमिंग कार्यक्रम चलाने की योजना बना रहा है। इस कार्यक्रम के तहत वल्र्ड बैंक प्रतिस्पर्धी रूप से चुने गये ऐसे 200 इंजीनियिरिंग शिक्षण संस्थानों की मदद भी करेगा, ताकि वे उच्च गुणवत्ता की शिक्षा देकर रोजगार देने लायक इंजीनियरों को तैयार कर सकें।
संख्या में चीन, जापान और अमेरिका से भी आगे, मगर...
‘इंजीनियरिंग एजुकेशन इन इंडिया’ का एक शोध पत्र वर्ष 2008 में तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने जारी किया था। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वर्ष 2008 में कुल 3.5 लाख इंजीनियरिंग ग्रेजुएट, 23,000 इंजीनियरिंग पोस्ट ग्रेजुएट निकले, जबकि करीब 1,000 लोगों ने इंजीनियरिंग में शोध (पीएचडी) पूरा किया।
इस शोध की रिपोर्ट आईआईटी, मुंबई के स्नातक रहे रंगन बनर्जी और विनायक पुरूषोत्तम मुले ने संयुक्त रूप से तैयार की थी। इस शोध रिपोर्ट में यह भी पता लगाने की कोशिश की गयी थी कि इंजीनियरिंग स्नातकों की बढ़ती संख्या से कहीं नये इंजीनियरों की रोजगारपरकता और उनकी गुणवता तो प्रभावित नहीं हो रही। शोध के नतीजों ने वास्तव में कुछ ऐसा ही इशारा किया। इस रिपोर्ट के मुताबिक इंजीनियरिंग स्नातकों की संख्या में लगातार वृद्धि का नकारात्मक प्रभाव उनकी शिक्षा की गुणवत्ता और उनकी रोजगारपरकता दोनों पर पड़ा है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक केवल 70% नये इंजीनियरिंग स्नातकों को ही नौकरी मिल पाती है, जबकि 30% को रोजगार हासिल करने के लिए एक वर्ष से अधिक समय तक इंतजार करना पड़ता है। इसकी प्रमुख वजह शिक्षा की गुणवत्ता में आयी कमी है।
हालाँकि अभी भी भारत में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर केवल 214 इंजीनियर ही हैं, जबकि दक्षिण कोरिया में यह अनुपात सबसे ज्यादा 1435 का है। वहीं जापान में प्रति 10 लाख की आबादी में 765 और चीन में 340 इंजीनियर हैं। इस शोध के मुताबिक भारत में 1% से भी कम इंजीनियिरंग स्नातक पीएचडी करते हैं, जबकि अन्य देशों में पीएचडी इंजीनियरों की संख्या कहीं ज्यादा है। इंजीनियरिंग स्नातकों की तुलना में पीएचडी इंजीनियरों की संख्या जहाँ अमेरिका में 9% है, वहीं ब्रिटेन में 10%, जर्मनी में 8% और दक्षिण कोरिया में 3% है।
इंजीनियिरंग स्नातकों की फौज खड़ी करने में भारत ने चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ब्रिटेन और अमेरिका तक को भले ही संख्या के लिहाज से पीछे छोड़ दिया है, लेकिन इंजीनियरिंग शिक्षा की गुणवत्ता और छात्रों की कुशलता के मामले में भारत काफी पीछे है।
इस शोध में अंतरराष्ट्रीय इंजीनियरिंग संस्थानों के साथ भारतीय इंजीनियरिंग संस्थानों के तुलनात्मक अध्ययन में पाया गया कि अधिकांश भारतीय इंजीनियरिंग संस्थानों को अंडर ग्रेजुएट छात्रों को शिक्षा देने वाले संस्थान से स्नातकों को उच्च शिक्षा देने वाले और शोध कराने वाले संस्थानों के रूप में विकसित ही नहीं किया गया।
भारत में इंजीनियरिंग शिक्षा की गुणवत्ता पर बहस छिडऩे पर लोग आईआईटी की बात करते हैं। लेकिन भारत के शीर्ष 10 इंजीनियरिंग संस्थानों को सबसे बड़ा लाभ उनकी उच्च कोटि की और बेहद सख्त चयन प्रणाली से मिलता है, जिसमें महज 2-3% आवेदकों को ही प्रवेश मिल पाता है। यह अनुपात प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों की तुलना में काफी कम है।
संख्या ज्यादा, माँग कम
पिछले कई वर्षो से भारत इंजीनियरिंग स्नातकों की संख्या जरूरत से ज्यादा होने की समस्या से जूझ रहा है। अर्थव्यवस्था में धीमेपन के प्रभाव से ऐसा नहीं हो रहा है। इसके लिए कैंपस प्लेसमेंट की रफ्तार धीमी पडऩा मुख्य कारण नहीं है, बल्कि ऐसा इसलिए हो रहा है कि भारतीय इंजीनियरिंग कॉलेजों से निकल रहे स्नातकों की गुणवत्ता को ये कंपनियाँ कमजोर पा रही हैं।
एक तरफ जहाँ भारतीय इंजीनियरिंग स्नातकों की माँग धीमी हो गयी है, तो दूसरी ओर इनकी संख्या में तेजी से वृद्धि होती जा रही है। इस कारण बेरोजगार रह जाने वाले इंजीनियरिंग स्नातकों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। हालाँकि इस रुझान ने भारतीय इंजीनियरिंग स्नातकों को मास्टर डिग्री की ओर उन्मुख भी किया है। अन्यथा विरले ही भारतीय इंजीनियरिंग स्नातक बीटेक के बाद मास्टर डिग्री या शोध की ओर उन्मुख होते हैं।
कैट और गेट की तैयारी पर जोर
शोध के दौरान पाया गया कि भारतीय इंजीनियरिंग स्नातकों को पढ़ाई पूरी करने के बाद जब मनचाही नौकरी नहीं मिल पाती तो उनके सामने मुख्य रूप से तीन विकल्प होते हैं, 1) बेरोजगारी, 2) भारत में रह कर उच्च शिक्षा ग्रहण करना, जिनमें एम-ई/एम-टेक या एमबीए शामिल है, और 3) उच्च शिक्षा के लिए विदेश जा कर एम एस या एमबीए में दाखिला लेना।
आम धारणा यह है कि आईआईटी जैसे प्रमुख संस्थानों के छात्रों को नौकरी के संकट से नहीं जूझना पड़ता। यह बात मोटे तौर पर सच है। लेकिन हाल के वर्षों में जब अर्थव्यवस्था धीमी पड़ी तो देखा गया है कि आईआईटी जैसे प्रमुख संस्थानों को भी अपने छात्रों की प्लेसमेंट के लिए खराब परिस्थितियों से जूझना पड़ा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 2008 में आईआईटी संस्थानों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जहाँ 3,031 इंजीनियरिंग स्नातकों को नौकरी दी, वहीं वर्ष 2009 में यह संख्या घट कर 1,606 रह गयी।
परिस्थितयाँ ऐसी हो गयी हैं कि बड़ी संख्या में भारतीय इंजीनियरिंग स्नातकों को अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप नौकरियाँ नहीं मिल पा रही हैं और वे गैर-प्राथमिकता वाली नौकरियाँ करने पर मजबूर हो रहे हैं। वे मनपसंद नौकरी नहीं मिलने पर उच्च शिक्षा की ओर बढऩा अधिक पसंद करने लगे हैं।
ताजा आँकड़ों के मुताबिक वे एम ई/एम टेक या एमबीए जैसे पाठ्यक्रमों में दाखिले के लिए कॉमन एप्टिट्यूड टेस्ट (कैट) और ग्रेजुएट एप्टिट्यूड टेस्ट (गेट) में बैठने लगे हैं। वर्ष 2009 में तकरीबन 2.30 लाख छात्र गेट की परीक्षा में बैठे, जबकि इसके पिछले वर्ष 2008 में गेट परीक्षा देने वाले इंजीनियरिंग स्नातकों की संख्या 1.70 लाख ही थी। गेट के परीक्षार्थियों की संख्या में एक वर्ष में यह 27% की वृद्धि थी। कैट की परीक्षा में बैठने वाले इंजीनियरिंग छात्रों की संख्या पिछले छह वर्षों में दोगुनी हो गयी है। वर्ष 2003 में केवल 1.30 लाख छात्रों ने कैट में हिस्सा लिया था। वर्ष 2008 में यह संख्या 2.50 लाख पर पहुँच गयी। कैट परीक्षा में बैठने वाले लगभग 50% परीक्षार्थी इंजीनियर होते हैं। अगर भारतीय प्रबंध संस्थानों (आईआईएम) में प्रवेश पाने वाले छात्रों को देखें तो उनमें 80% छात्र इंजीनियर होते हैं।
लेकिन भारत में उच्च शिक्षा की ओर बढऩा भी इंजीनियरिंग छात्रों के लिए कोई बेहतर भविष्य लाता हो, ऐसा नहीं लगता। आम तौर पर प्लेसमेंट के समय कंपनियाँ प्राथमिकता बीटेक या पाँच साल के दोहरे पाठ्यक्रम के तहत एक साथ बीटेक और एमटेक दोनों पूरा करने वाले छात्रों को प्राथमिकता देती हैं। एमएस और पीएचडी आवेदक रोजगार के बाजार में पीछे रह जाते हैं। अगर उन्हें नौकरी मिलती भी है तो अभी-अभी बीटेक पूरा करने वाले अपने जूनियर छात्रों से भी कम वेतन पर।
(निवेश मंथन, दिसबंर 2012)