केवल चार लोगों के साथ घर के एक कमरे में शुरू होने वाली इंडियामार्ट कैसे देश की सबसे बड़ी बी2बी पोर्टल बन पायी और कैसे डॉट कॉम की तबाही के दौर से भी सुरक्षित रह पायी, यह किस्सा बता रहे हैं खुद इस कंपनी के संस्थापक सीईओ दिनेश अग्रवाल :
इंडियामार्ट की शुरुआत में केवल तीन या चार लोगों की टीम थी। ये तीन-चार लोग कौन थे, वो मैं बता देता हूँ। एक तो मैं था। एक मेरे रिटायर्ड बाबू जी थे। एक मधुप अग्रवाल मेरे दोस्त हैं। मधुप तब हमारे साथ नहीं थे, लेकिन दोस्त होने के चलते काम में कुछ सहयोग करते थे। वे 2004-05 में हमारी कंपनी से जुड़े। तब तक वे दूसरी जगह नौकरी करते थे एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में।
हमने लिस्टिंग का काम शुरू किया और तय हुआ कि उन सबके पेज बनाते हैं। फिर लिस्टिंग का फार्म बनाया। वो लिस्टिंग फॉर्म हजारों लोगों को भेजना था। सबको डाक से भेजते थे। अब इतने सारे पते कैसे लिखे जायेंगे? मेरी पत्नी चेतना और मेरे बाबू जी दोनों ने यह जिम्मेदारी सँभाली। मेरी अम्मा उन्हें लिफाफे में डाल कर टिकट लगाती थीं।
दो-तीन महीने तक यह सब चलता रहा। हम लोगों को बताते रहे कि हमने इंटरनेट पर इंडियामार्ट डायरेक्टरी बनायी है और अगर आपको अपनी लिस्टिंग करनी है तो आप ये फार्म भर कर हमको भेज दें या फैक्स कर दें। फैक्स के ऊपर भी एक कहानी है।
फैक्स लगवाने के लिए हम गये लक्ष्मी नगर टेलीफोन एक्सचेंज में। वहाँ पता लगा कि साहब अभी तो टेलीफोन कनेक्शन के लिए दो-तीन साल का इंतजार चल रहा है। पर मुझे तो चाहिए। उन्होंने बताया कि एक ओवाईटी स्कीम होती है, जिसमें 15,000 रुपये जमा होते हैं। उसमें टेलीफोन जल्दी लग जायेगा। उसके बाद कम-से-कम ढाई-तीन महीने लगेंगे फोन लगने में। खैर, वो जमा करा दिया। लेकिन जब तक फोन नहीं तो जो फार्म हम लोगों को भेज रहे हैं, उसके जवाब में कोई किस नंबर पर फोन करेगा? इस दिक्कत के चलते शुरू के तीन महीने तक हम फार्म पर केवल एक फैक्स नंबर डालते थे। वो फैक्स नंबर मेरे दोस्त मधुप का था। मधुप के घर का फोन नंबर था, वहाँ पर मैंने एक फैक्स मशीन ले जाकर रख दी थी। रोज शाम को जाकर देखते थे कि कोई फैक्स आया है या नहीं। पहले दो-तीन दिन के अंदर ही दो-तीन प्रोत्साहन देने वाले फैक्स आये। एक फैक्स निरूलाज का आया। निरूलाज हमारा पहला ग्राहक बना।
तो इस तरह तीन-चार लोगों से हमने शुरुआत की थी। केवल एक कंप्यूटर था, मैं यूएस से लेकर आया था। उसका मॉनिटर नहीं था। वह मॉनिटर एचसीएल से इस्तीफा देने से पहले वहाँ से लिया। कर्मचारियों को आधे दाम पर मॉनिटर मिला करते थे। वो मॉनिटर ऊपर से टूटा हुआ था, उस पर स्टिकर चिपका दिया था।
अब वो डायरेक्ट्री बनने लगी तो शुरू में हमने देखा कि ज्यादा फॉर्म आते नहीं हैं। थोड़े से फैक्स तो आये, लेकिन डाक से बहुत कम फॉर्म आये। फिर हमने सोचा कि बिजनेस रिप्लाई एनवेलप साथ में लगाने से शायद ज्यादा फॉर्म लौटें। उसका पता करने निकल पड़े। यह पता करना भी बहुत टेढ़ी खीर था। किसी को पता ही नहीं। पोस्टमास्टर से पूछो तो उसे भी नहीं पता। खैर पता लगा कि झंडेवालान जाकर आवेदन देना होगा। दो-तीन महीने लगे, वो भी किसी की जान-पहचान से। फिर हमने प्रीपेड लिफाफे भी साथ में भेजने शुरू कर दिये। फिर भी डाक से बहुत थोड़े फॉर्म आये। इससे लगा कि डाक से कुछ होता नहीं है। फैक्स तो फिर भी आ जाते थे दो-चार रोज के। तब कुछ लोगों को रखा जो दिन भर सेल्स करते थे। फिर एक लड़की को रखा जो कोऑर्डिनेटर का काम करने के साथ-साथ लिस्टिंग का डेटा कंप्यूटर में डालती थी।
उस समय दिन में सेल्स का काम करते और शाम को लौट कर वेबसाइट डिजाइनिंग करते थे। हमने सर्च इंजन पर शुरू से ही ध्यान रखा था। इंटरनेट का मेरा जो अनुभव था, उसमें मैंने हर चीज सर्च करके निकाली थी। मेरे हिसाब से इंटरनेट का मतलब यही था कि सर्च इंजन पर जाओ और खोजो। जो वेबसाइट ऊपर दिखेगी, उस पर ज्यादा लोग जायेंगे।
तब तक याहू की वेबसाइट बन गयी थी। आज लोग जिसे सर्च इंजन ऑप्टिमाइजेशन (एसईओ) कहते हैं, वह हमारी कंपनी के बेसिक डीएनए में था। हम साइट बनाते थे और उसे सर्च इंजन पर भी डालते थे। उस समय अल्टाविस्टा आ गया था। एक सॉफ्टवेयर हुआ करता था, जिससे करीब 20 सर्च इंजन पर एक साथ अपडेट हो जाता था। उस समय इंडिया मार्ट की बनायी हुई साइटों के लिंक इंटरनेट पर काफी अच्छी तरह फैले हैं।
हमारे इस शुरुआती काम में तरह-तरह की दिक्कतें चलती रहीं। पहले हम फार्म वाले लिफाफे पोस्टबॉक्स में डाल दिया करते थे। एक दिन डाकिये ने आकर वो सारे वापस दे दिये और कहा कि पोस्टबॉक्स इसके लिए नहीं होता। इसमें आप बिजनेस मेल नहीं डाल सकते और बल्क बिजनेस मेल तो बिलकुल नहीं डाल सकते। उसकी सॉर्टिंग कौन करेगा? उसको लेकर डाकघर आया करें और सारे लिफाफे पहले छाँट कर लाया करें। हम सॉर्टिंग नहीं करेंगे। इससे रोज और नया काम बढ़ गया। दो सौ, पाँच सौ लिफाफों का थैला लेकर डाकघर जाओ। वहाँ बैठे रहना पड़ता था कि लिफाफों पर मोहर लगे तो जायें। जो थैला लेकर जाते थे उसे डाकघर वाले रख लेते थे। कहते थे कि इसे तो छोड़ दे, इसे कहाँ लेकर जायेगा!
हमारा पहला साल इसी तरह धीरे-धीरे निकला। फिर हमने दो-चार लड़के रखे शुरू में। एनआईआईटी और ऐप्टेक जैसे संस्थानों से एक-दो डिजाइनरों को रखा और उन्हें एचटीएमएल सिखाया। एक-दो सेल्स के लड़के रखे। प्रगति मैदान में जितने भी ट्रेड फेयर होते थे, उनमें हम जाते थे और वहाँ जाकर सबसे फार्म भराते रहते थे। फिर उनको इंटरनेट के बारे में समझाते रहते थे।
फिर दो-तीन लड़कों ने बाजारों में जाना शुरू किया, जो वहाँ से विजिटिंग कार्ड लेकर आते थे। इन सब तरीकों से हमने पहले साल में 100-50 ग्राहक बना लिए। उनको इंडियामार्ट के चलते इंक्वायरी भी आने लग गयी थी। ये बात अलग थी कि वे लोग ईमेल इस्तेमाल नहीं करते थे। हमारे इस काम में आमदनी तो शुरुआत से ही आने लग गयी थी।
जब कुछ लोगों को काम पर रखा तो पहले हमने अपने घर का बाहर वाला कमरा इस काम में लगा लिया। फिर ड्राइंगरूम भी इसी में लग गया। तब लगने लगा कि अब तो अलग से दफ्तर की जरूरत पड़ेगी। हमने पता किया तो समझ में आया कि दिल्ली में दफ्तर की जगह खरीदना बहुत महँगा बैठता है और ज्यादा किराया भी नहीं दे सकते थे। नोएडा में जगह सस्ते में उपलब्ध थी, लेकिन पता लगा कि वहाँ तो इंटरनेट कनेक्शन ही नहीं चलता और 91 लगाना कर नंबर मिलता है। फिर हमने मधु विहार, पटपडग़ंज में दफ्तर खरीदा। वहाँ हमने एक फ्लोर ले लिया। इसके लिए पिताजी ने पैसे दिये। करीब 20 लाख रुपये में दफ्तर मिला और 5-7 लाख रुपये अलग से लगे थे फर्नीचर वगैरह बनवाने में।
दफ्तर बन कर सारा तैयार हो गया तो पता चला कि 5-6 केवी का बिजली का कनेक्शन लगवाना है। बिजली विभाग का बहुत ही भ्रष्ट ऑफिस था पटपडग़ंज में। वहाँ बताया गया कि बिजली का कनेक्शन लगेगा ही नहीं। ये तो अनधिकृत निर्माण है, गरीबों के रहने के लिए है। बिजली का कनेक्शन 2 किलोवाट से ऊपर मिल नहीं सकता। लेकिन सच तो ये था कि कि पूरा बाजार चल रहा था मधु विहार में। खैर, काफी परेशानी के बाद वह काम हो पाया। ओआईटी टेलीफोन के लिए तो हमें तीन महीने टेलीफोन एक्सचेंज के चक्कर लगाने पड़े थे, मगर ये मामला उससे भी कहीं ज्यादा परेशानी वाला था।
जब हमने अपना दफ्तर बदला तो एक बार फिर टेलीफोन की समस्या भी आयी। हमने अपना पुराना टेलीफोन नये दफ्तर में लगाने के लिए कहा तो उनका कहना था उस जगह कोई लाइन खाली नहीं है। हमने कहा कि ओवाईटी में लगा दो, पर उनका जवाब था कि डीपी लाइन ही खाली नहीं है।
अब इस वजह से मेरी रिसेप्शनिस्ट बैठती थी घर वाले ऑफिस में और नया दफ्तर चला बिना टेलीफोन के। दिन में तीन बार वहाँ से पर्चियों से संदेश आते-जाते थे। ये सब 1997 की बातें हैं।
इंटरनेट कनेक्शन का उस समय यह हाल था कि एक एमबी, दो एमबी जो आज 10 सेकेंड में डाउनलोड हो जाता है, उतना ही एक-दो एमबी का सॉफ्टवेयर डाउनलोड करना हो तो कनेक्शन बार-बार टूट जाता था। एचटीएमएल बनाने का वेबसाइट बनाने का अच्छा-सा सॉफ्टवेयर मैंने तलाशा था, किसी पत्रिका में उसके बारे में पढ़ा था। वह एक सॉफ्टवेयर हम तीन महीने तक डाउनलोड नहीं कर सके। उसी समय मधुप को अपने किसी काम से अमेरिका जाना था। तब मैंने उनसे कहा कि वे उस सॉफ्टवेयर को वहाँ से डाउनलोड करके लायें। वे तीन-चार फ्लॉपी में उसे कॉपी करके यहाँ लाये, पर उनमें से एक फ्लॉपी नहीं चली। फिर पता लगा कि एक ऐसी यूटिलिटी है जिससे इंटरनेट कनेक्शन टूटने पर सॉफ्टवेयर का डाउनलोड दोबारा वहीं से चालू हो जाता है। उस यूटिलिटी की मदद ली।
वह कुछ दो एमबी का सॉफ्टवेयर था, इसलिए दो घंटे लगने चाहिए थे। मगर दो घंटे तक तो कनेक्शन चलता नहीं। फिर एक दिन तय किया कि आज तो डाउनलोड होगा ही होगा। दिन में तो कनेक्शन बहुत ही टूटता था, इसलिए रात दस बजे लगाया। हर एक घंटे का अलॉर्म लगा कर सो जाते थे। एक घंटे में पंद्रह बीस मिनट चला, फिर कनेक्शन टूट गया। फिर अलॉर्म बजा तो उठे, कनेक्शन दोबारा मिला कर डाउनलोड को रिज्यूम किया और फिर अगले घंटे का अलॉर्म लगा कर सो गये। इस तरह करते-करते रात को तीन-चार बजे तक जाकर डाउनलोड पूरा हो पाया।
हमारे काम में ये सब थोड़ी मुश्किलें जरूर थीं, लेकिन इन सबमें बड़ा मजा आता था। छोटे स्तर से नया काम शुरू करने में अक्सर पहला ग्राहक बनाना मुश्किल काम जरूर होता है, लेकिन हमें बिल्कुल शुरुआत से ही आमदनी मिलने लगी थी। मुझे तो मालूम भी नहीं था कि आमदनी के बिना कुछ भी होता है। मैंने वेंचर कैपिटल (वीसी) के बारे में तब सुना ही नहीं था। मैं यहाँ से अमेरिका जाकर टेस्टिंग का काम कर रहा एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट का काम था। तब न मुझे वेंचर का पता था न एंजेल का, और न निवेश का पता था न ही मूल्यांकन का।
अगले दो साल इसी तरह तरह चलते रहे। हम ग्राहकों से मिलते थे, उनके लिए वेबसाइट बनाते थे। पहले साल में 100 ग्राहक हुए, दूसरे साल में 200, तीसरे साल में 400 हुए। ऐसे करके दो-तीन साल तक हम यही काम करते रहे मधु विहार वाले दफ्तर से। फिर ऑफिस बड़ा होता गया।
बृजेश अग्रवाल (सीओओ, इंडियामार्ट) उस समय मेरे पास आ गये थे एमबीए की पढ़ाई करने के लिए। एमबीए की पढ़ाई तो चार-पाँच घंटे होती है। सुबह नौ बजे जाओ और चार-पाँच बजे आ जाओ। पढ़ाई से लौटने के बाद मैं उससे सारे ईमेल वगैरह के काम उससे करवाता था देर रात तक। उसकी अंग्रेजी भी अच्छी थी, इसलिए ग्राहकों के सारे प्रस्ताव वगैरह मैं उससे लिखवाता था। अंग्रेजी पढ़ तो मैं अच्छी लेता हूँ, लेकिन लिखने-बोलने में उतनी अच्छी नहीं है। तो वो मैं सारे उससे कराता था। फिर मेरा एक भतीजा आया जो थोड़ा प्रशासन, सर्च इंजन, एकाउंटिंग वगैरह जानता था। तो हमने शुरुआत में कुछ लोग बाहर से भी रखे और तीन-चार जान पहचान के लोग थे। एक तरह से ये परिवार के स्वामित्व और परिवार के संचालन में बहुत से पेशेवर लोगों को साथ रख कर चलने वाली कंपनी बनने लगी।
यह दिक्कत जरूर आयी कि जिस भावना, उत्साह और सोच के साथ हम आगे बढऩा चाहते हैं, उसे टीम के सारे लोग अपना सकें। इसके लिए मैंने एक प्रशिक्षण कार्यक्रम बनाया, जो आठ-दस दिन चलता था। मैं वह प्रशिक्षण दिया करता था। मुझे याद है कि ऐसे ही एक प्रशिक्षण में जब एमटीएनएल पर कोई बात छिड़ी तो एक लड़के ने जिक्र किया कि वह एमटीएनएल में किसी को जानता है और एमटीएनएल को अपनी कोई वेबसाइट बनवानी है। इस तरह हम एमटीएनएल तक पहुँचे। उनके जीएम या शायद एजीएम जब आये तो वे इस बात को देख कर काफी प्रभावित हुए कि हम बाकायदा प्रशिक्षण वगैरह भी देते हैं।
उस समय मुझे सीआरएम वगैरह के बारे में कुछ ज्यादा पता नहीं था। सेल्स के लोगों की निगरानी रखनी थी कि कहाँ गये थे, क्या बात हुई। यह डर रहता था कि लीड खो जायेगी, डायरी खो जायेगी, विजिटिंग कार्ड खो जायेंगे। उसके लिए हमने खुद सीआरएम का अपना एक बेसिक सॉफ्टवेयर बनाया, जो आज हमारे लिए ईआरपी का काम करता है।
इस तरह अगले दो साल तक अच्छी तरह इन सेवाओं के कारोबार में आ गये और हमें तब तक डॉट कॉम मूल्यांकन, वेंचर कैपिटल या एंजेल निवेशकों वगैरह का कोई अंदाजा नहीं था। मन में अगर कोई लक्ष्य था बस यही कि अपने ग्राहक बढ़ाते जायेंगे। उनसे पैसे लेंगे, अपना 20% मुनाफा बचायेंगे, 40% सेल्स पर लगेंगे और 40% सेवाएँ देने पर लगेगा। हम आज भी वही कर रहे हैं।
हालाँकि यह इतना सरल भी नहीं है कि जो काम हम 1996 में कर रहे थे, वही आज भी कर रहे हैं। लेकिन वास्तविकता में देखा जाये तो मूल सिद्धांत वही है, उसी पर काम कर रहे हैं। पहले जब यह काम करते थे तो एचटीएमएल हाथ से बनाते थे, फिर सॉफ्टवेयर से बनाने लग गये। सेल्स में जो आदमी ग्राहक लेकर आया, वही उसका नवीनीकरण करेगा और सब कुछ देखेगा। डायरेक्ट्री बड़ी होती चली गयी और उसके पीछे बहुत सारा सॉफ्टवेयर लगना शुरू हो गया उसे सँभालने के लिए। सीआरएम में सेल्स की लीड बननी शुरू हो गयी। फिर उत्पादों की फोटो लगनी शुरू हो गयी। फिर ये हुआ कि उत्पादों की भी डायरेक्ट्री बनानी चाहिए, केवल कंपनियों की डायरेक्ट्री क्यों?
(निवेश मंथन, अगस्त 2012)