आज तो इंटरनेट लोगों की जिंदगी का जरूरी हिस्सा है, लेकिन इसके जादू को इंडियामार्ट के संस्थापक और सीईओ दिनेश अग्रवाल ने 90 के दशक में ही समझ लिया था, इंटरनेट ब्राउजर बनने से भी पहले। अग्रवाल खुद सुना रहे हैं इंडियामार्ट शुरू होने की कहानी।
अगर मैं पहले थोड़ा अपने बारे में बताऊँ तो मैं मारवाड़ी संयुक्त परिवार से हूँ। हमारा परिवार उत्तर प्रदेश के बहराइच में नानपारा नाम की जगह से है। यह नेपाल सीमा के पास है। वहाँ हमारा पेट्रोल पंप, कोल्ड स्टोरेज और कुछ कृषि से जुड़ा कारोबार वगैरह है। व्यावसायिक पृष्ठभूमि के बावजूद हमारे घर में पढ़ाई पर काफी जोर रहा है। मेरे दादा जी ने परिवार में सबको बाहर भेज कर पढ़ाने की कोशिश की। मेरी शुरुआती पढ़ाई नानपारा में ही हुई। आठवीं तक हिंदी माध्यम से ही पढ़ा। उसके बाद लखनऊ आ गया पढऩे के लिए। वहाँ दादा जी अक्सर मेरे साथ रहा करते थे। वे अखबार काफी पढ़ते थे। उन्हीं अखबारों को पढ़ते-पढ़ते यह समझ में आया कि कंप्यूटर का एक दौर-सा चला है। राजीव गाँधी का समय था। कंप्यूटर बिल्कुल नयी-नयी चीज था। वहीं से कंप्यूटर की तरफ मेरा कुछ ज्यादा ही रुझान हो गया। फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। उसमें भी मैंने तय कर रखा था कि मुझे केवल कंप्यूटर साइंस ही पढऩा है। कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग करने के बाद मैं दिल्ली आ गया नौकरी करने। सीएमसी लिमिटेड में मैंने एक साल काम किया। वहाँ मैं सिस्टम्स इंजीनियर था। उसमें कंप्यूटर हार्डवेयर मेंटेनेंस का काम ज्यादा था।
मैंने सीडॉट में भी काम किया सैम पित्रोदा के साथ। उस समय लोगों में अमेरिका जाने की धूम थी। मैं भी एचसीएल अमेरिका में नौकरी पा कर अमेरिका चला गया। वहाँ मैंने आईबीएम और नोवेल के प्रोजेक्ट के लिए भी काम किया। पर 2-3 साल में ऐसा लगने लगा कि हो गया। अब सारा अमेरिका देख लिया, काम कर लिया, अब वापस जाना चाहिए। उस नौकरी में एक आराम जरूर था, लेकिन उससे मुझे उत्साह नहीं मिलता। बहुत उबाऊ हो जाता है।
मन में दूसरी बात यह थी कि मुझे कुछ अपना अलग काम करना है। मैं रिश्तेदारी में अच्छी-अच्छी नौकरियों वाले जिन लोगों को जानता था, जिनमें कुछ तो सीईओ, प्रेसिडेंट जैसे पदों पर भी थे, उनकी भी अंत में कुछ अच्छी स्थिति नहीं देखी। जब तक वे नौकरी में थे, तब सब कुछ बहुत अच्छा रहा। लेकिन उसके बाद अंत तक रहने वाला कोई असर नहीं छोड़ पाये। मेरे मन में था कि कुछ ऐसा कारोबार खड़ा करें, जिससे भारत को भी बड़ा फायदा हो सके।
जब मैंने सीडॉट में काम किया तो वहाँ उस समय ही ईमेल चालू हो गया था। वल्र्ड वाइड वेब 1991 में बना भी नहीं था। जब मैं अमेरिका गया तो उस समय इंटरनेट ब्राउजर नहीं बना था, टेक्स्ट इंटरनेट ही था। अमेरिका से लौटने से पहले मेरे साथ इंटरनेट से जुड़े कई वाकये हुए। भारत से किसी ने मुझसे शिकागो मर्केंटाइल एक्सचेंज के बारे में जानकारी भेजने के लिए कहा। यह 1993 की बात होगी। अमेरिका में बड़े-बड़े पुस्तकालय हैं। ऐसे एक पुस्तकालय में पहुँचा। वह इतना बड़ा था कि उसका ओर-छोर खत्म ही नहीं हो रहा था। मैं खो गया चार-पाँच घंटे, पर काम की जानकारी मिली नहीं। फिर इंटरनेट पर खोजा। उस समय छोटा-मोटा इंटरनेट होता था, बिना ब्राउजर का। उस जमाने में इंटरनेट से पाँच मिनट के अंदर शिकागो मर्केंटाइल एक्सचेंज के बारे में इतनी जानकारी निकाल कर मैंने अपने दोस्त को भेज दी कि आप सोच नहीं सकते।
उसी समय एक और बात हुई थी जिसका इंटरनेट से कोई संबंध नहीं था। एक बार माताजी और पिताजी वहीं पर आये हुए थे। मेरे पिताजी का पेट्रोल पंप का कारोबार था। उन्होंने वहाँ पेट्रोल पंप पर कारों की अपने-आप धुलाई वाली मशीनें देखीं, जिसमें कार अंदर जाती और अंदर से धुल कर निकल आती। उन्होंने सोचा कि यह तो बहुत बढिय़ा चीज है और हमारे यहाँ भी पेट्रोल पंप पर लगी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि इसके बारे में पता करो, कौन सी कंपनी बनाती है, कितने की मिलेगी। जब कहीं से पता नहीं लगा तो फिर पुस्तकालय गया। लोगों ने थॉमस रजिस्टर देखने के लिए कहा। यह तीन खंड में छपी इंडस्ट्रियल डायरेक्टरी थी। उसमें तुरंत ही ऐसी चार-पाँच कंपनियों के बारे में पता चल गया जो ऐसी मशीन बनाते थे। यह भी मुझे बड़ा कमाल का लगा।
ऐसा नहीं था कि अमेरिका से जब मैं लौट कर आया तो सोच कर आया था कि यही कारोबार करना है। पर ऐसे दो-तीन वाकये हुए जिनका मेरे आगे के सफर में खास असर रहा। एक तो इंटरनेट के उस शुरुआती समय और स्वरूप में भी उस जमाने में लोगों ने जानकारियाँ भर-भर कर डाल रखी थीं, जिनको मिनटों में खोजा जा सकता था। उसके बदले पुस्तकालयों में घंटों बर्बाद करने के बाद भी काम की जानकारी खोजना मुश्किल था। उसके बाद वह थॉमस रजिस्टर। मैं जब भी उसकी बात करता हूँ तो वह पन्ना याद आ जाता है। कोई चीज इतनी खोजने के बाद मिली हो तो उसे भूलना मुश्किल है। अगर आप इन दोनों चीजों को मिला दें तो वही आज इंडियामार्ट है।
पर जब मैं लौट कर आया था तो सोचा था कि आईएसपी मतलब इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर का काम करूँगा। लेकिन उस समय यह लाइसेंस केवल वीएसएनएल को दिया गया था, उसका एकाधिकार था। फिर कॉफी पीते-पीते किसी दोस्त ने सलाह दी कि वेबसाइट बनाने का काम कर लो। मैंने सोचा कि अभी वेबसाइट बनाने का काम करते हैं। फिर जब लाइसेंस मिलने लगेगा तो इंटरनेट कनेक्शन देने का काम करेंगे।
तब मुझे एचटीएमएल आती नहीं थी, क्योंकि मैं तो सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। वेबसाइट बनाने के लिए पढ़ाई शुरू की। दो दिन बाद ही मुझे लगा कि यह तो बहुत ही आसान काम है और थोड़े दिनों के बाद बच्चे-बच्चे वेबसाइट बनाने लग जायेंगे। मेरे लिए तो बहुत बेकार धंधा है यह। जो काम कल बच्चे-बच्चे करने लग जायेंगे, उसमें आज मैं 10,000 रुपये ले भी लूँ वेबपेज डिजाइन करने के तो कितने दिन ले सकूँगा इस हिसाब से। वास्तव में अगर किसी को ये आता है तो 100 रुपये का काम है केवल, जैसे माइक्रोसॉफ्ट वर्ड में कुछ लिखना हो। मैं समझ गया कि मेरे लिए यह गलत कारोबार है।
लेकिन चलो, अभी बनाना है तो किसके लिए बनायें? हमने सोचा कि निर्यातकों (एक्सपोर्टर) के लिए वेबसाइटें बनायेंगे क्योंकि भारत में तो लोगों के पास इंटरनेट है नहीं, अभी-अभी यहाँ आया है इंटरनेट। अब निर्यातकों की सूची कहाँ से ढूँढ़ें। पता किया इनकी डायरेक्ट्री वगैरह खोजना शुरू किया। फिओ, एसोचैम, फिक्की, एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल वगैरह के पास गये, कुछ चप्पलें घिसीं, पर उनको कुछ समझ में आया नहीं। फिर कुछ डायरेक्ट्रियाँ दिखीं जो थॉमस रजिस्टर के जैसी थीं, लेकिन उनका बाजार यहाँ काफी कम था।
हमने यह तय किया कि व्यापार मेलों (ट्रेड फेयर) में चलते हैं और उनकी सूची तैयार कर ऐसी नयी डायरेक्टरी बनाते हैं, जो इंटरनेट पर हो, थॉमस रजिस्टर से अच्छी हो, तेज हो, खोज (सर्च) करने लायक हो। फिर हम जिसकी वेबसाइट हम बनायेंगे, उसको उसकी श्रेणी में सबसे ऊपर दिखायेंगे। जिस तरह येलो पेजेस में होता है कि जिसने पैसे दिये होते हैं उसका नाम सबसे ऊपर या बड़ा करके दिखाते हैं। इस तरह चीजें एक के साथ एक जुड़ती चली गयीं और एक बिजनेस मॉडल बन गया। उसके बाद से तो हमने कुछ अलग किया नहीं आज तक, बस इतने सालों से वही कर रहे हैं।
(बिजनेस मॉडल बन गया और काम शुरू हो गया। पर असली चुनौतियाँ तो इसके बाद शुरू हुईं। इन चुनौतियों की कहानी अगले अंक में।)
(निवेश मंथन, मई 2012)