सुशांत शेखर
रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव ने 17 अप्रैल की सालाना समीक्षा बैठक में बाजार के साथ विश्लेषकों को भी चौंका दिया। विश्लेषक मान रहे थे कि आरबीआई रेपो दर में ज्यादा-से-ज्यादा 25 आधार अंक यानी एक चौथाई फीसदी की कटौती करेगा। लेकिन डी सुब्बाराव ने सीधे 50 आधार अंक यानी आधा फीसदी की कटौती करके बाजार और उद्योग जगत दोनों को खुश कर दिया। हालाँकि सुब्बाराव ने देश की अर्थव्यवस्था के संभावित खतरों का हवाला देते हुए यह भी साफ कर दिया कि आगे उनके हाथ बँधे रहेंगे।
रिजर्व बैंक ने देश की सुस्त होती विकास दर और महँगाई में आयी कमी को देखते हुए ब्याज दरों में कटौती की है। पिछली तीन तिमाहियों से देश की सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी विकास दर में कमी आ रही है। दिसंबर में खत्म तीसरी तिमाही में तो यह महज 6.1% रह गयी। वहीं औद्योगिक उत्पादन सूचकांक यानी आईआईपी के ताजा आँकड़ों से भी सुस्ती के संकेत मिलते हैं। दूसरी ओर नवंबर 2011 में 9% रहने वाली महँगाई दर भी मार्च 20१२ में 7% के नीचे आ गयी। खास कर गैर-खाद्य विनिर्मित उत्पादों की महँगाई दर नवंबर 2011 के 8.4% से घट कर मार्च 2012 में 4.7% रह जाने से आरबीआई के लिए ब्याज दरों में उम्मीद से ज्यादा कटौती की गुंजाइश बनी।
पिछले साल 25 अक्टूबर की समीक्षा बैठक में रिजर्व बैंक ने आखिरी बार ब्याज दरों में बढ़ोतरी की थी। उस समय आरबीआई गवर्नर डी सुब्बाराव ने कहा था कि ब्याज दरें अपने चरम पर पहुँच गयी हैं। ऐसे में शायद आगे ब्याज दरें बढ़ाने की जरूरत न पड़े। अक्टूबर के बाद आरबीआई ने नकद आरक्षित अनुपात यानी सीआरआर में दो किश्तों में 1.25% की कटौती की। लेकिन ब्याज दरों में कटौती के लिए उन्होंने तकरीबन छह महीने का इंतजार किया। हालाँकि ब्याज दरें घटाते समय आरबीआई ने जो चिंताएँ रखी हैं, उनसे यह साफ नहीं है कि आगे कर्ज नीति की दिशा किधर रहेगी।
रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव के मुताबिक आगे ब्याज दरों की दिशा विकास और महँगाई की चाल पर निर्भर करेगी। हालाँकि यह ऐसा शाश्वत वाक्य है, जो गवर्नर साहब हर समीक्षा बैठक में कहते हैं।
लेकिन 17 अप्रैल की समीक्षा बैठक में आरबीआई ने अर्थव्यवस्था की सेहत से जुड़े कुछ ऐसे पहलुओं पर चिंता जतायी है, जो आगे चल कर बेहद मुश्किल हालात पैदा कर सकते हैं। अब तक महँगाई पर काबू पाने की सारी जिम्मेदारी सरकार ने एक तरह से आरबीआई पर डाल रखी थी। लेकिन इस बार सुब्बाराव ने साफ कर दिया कि अब सरकार के तेजी से कार्रवाई करने का वक्त आ गया है।
आरबीआई की चिंताएँ
आरबीआई गवर्नर डी सुब्बाराव की सबसे बड़ी चिंता सब्सिडी का बढ़ता बोझ है। आरबीआई के मुताबिक चूंकि सरकार ने बजट में सब्सिडी का बोझ कम करने के उपाय नहीं किये हैं। ऐसे में सब्सिडी का बढ़ता बोझ मुश्किलें बढ़ा सकता है। खास कर कच्चे तेल के दाम लगातार ऊँचे स्तर पर बने रहने की आशंका है, जिससे पेट्रोलियम उत्पादों का सब्सिडी बोझ लगातार बढ़ता रह सकता है।
सरकार का लगातार बढ़ता वित्तीय घाटा आरबीआई के लिए मुश्किल पैदा कर रहा है। वित्त वर्ष 2008-09 के बाद से वित्तीय घाटे में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। पिछले वित्त वर्ष में देश का वित्तीय घाटा 4.6% के लक्ष्य से बढ़ कर 5.9% रहा। वित्तीय घाटे में बढ़ोतरी के लिए पेट्रोलियम उत्पादों की सब्सिडी का बोझ सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। हालाँकि मौजूदा वित्त वर्ष में सरकार ने वित्तीय घाटा 5.1% पर लाने का लक्ष्य रखा है, लेकिन दुनिया भर के राजनीतिक माहौल को देखते हुए अगर कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी होती है तो सरकार के लिए घाटे को संभालना मुश्किल हो जायेगा।
आरबीआई की दूसरी बड़ी चिंता सरकार की उधारी है। पिछले वित वर्ष में सरकार ने अपने वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिए बैंकों से 4.4 लाख करोड़ रुपये उधार लिये। वित्त वर्ष 2012-13 में सरकारी उधारी बढ़ कर 4.8 लाख करोड़ रुपये होने की आशंका है। जाहिर है कि इतने बड़े पैमाने पर सरकारी उधारी के चलते बैंकों के पास निजी कंपनियों को कर्ज देने के लिए पैसा कम बचेगा। अगर कहीं सब्सिडी बोझ बढऩे से सरकारी उधारी लक्ष्य से भी ज्यादा हुई तो हालात बेकाबू हो सकते हैं।
बढ़ता चालू खाता घाटा (करंट एकाउंट डेफिसिट या सीएडी) भी आरबीआई के लिए सिरदर्द बना हुआ है। यह दिसंबर 2011 में जीडीपी का 4.3% रहा। इतने ऊँचे सीएडी स्तर से अर्थव्यवस्था की सेहत को दुरुस्त रख पाना पाना मुश्किल है। दूसरी ओर 2012 भारत सहित में विदेशी निवेश कम होने की आशंका है, जिससे हालात और खराब हो सकते हैं।
आरबीआई गवर्नर विकास और महँगाई के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उन्हें लगता है कि आगे चल कर यह संतुलन बिगड़ सकता है। ऐसे में वो ब्याज दरों के मामले में साफ कर देना चाहते हैं कि आगे उनसे बहुत उम्मीद न रखी जाये। आरबीआई को इस बार जितना ब्याज घटाना था, उससे कुछ ज्यादा ही उसने घटा दिया।
(निवेश मंथन, मई 2012)