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जेब कटेगी साहब!

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Category: फरवरी 2012

राजेश रपरिया :

महँगाई से मिले जख्मों के भरने के निकट भविष्य में कोई आसार नहीं हैं, क्योंकि केंद्र सरकार के आगामी बजट में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी आपकी जेब कतरने का कोई प्रयास नहीं छोड़ेंगे। अर्थव्यवस्था के सभी बड़े आर्थिक संकेतकों का सरकारी आकलन बेमतलब साबित हो गया है। 

मुद्रास्फीति, विकास दर, कर-संग्रह, बढ़ते व्यापार घाटे, गिरते रुपये के मूल्य और राजकोषीय घाटे को ले कर सारे सरकारी अनुमान ध्वस्त हो गये हैं। आगामी बजट बनाते समय वित्त मंत्री को कई प्रमुख समस्याओं से जूझना है, जैसे :

-          महँगाई को काबू में रखना

-          विकास दर को पुन: 9% के स्तर पर लाना

-          बढ़ते व्यापार घाटे को नियंत्रित करना

-          गिरते रुपये को थामना

-          खाद्य सुरक्षा विधेयक को लागू करने के लिए पर्याप्त राशि का बंदोबस्त करना

-          आर्थिक सुधारों को गति देना

-          राजकोषीय घाटे को अपेक्षित स्तर पर लाना

वित्त मंत्री की मुश्किलें इसलिए भी और बढ़ जाती हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव से पहले यही बजट है जिसमें आर्थिक और राजनीतिक सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वे खुल कर अपना बल्ला घुमा सकते हैं। मौजूदा आर्थिक परिदृश्य बेहद विकराल है। सामान्य ज्ञान है कि विकास दर में गिरावट आने पर मुद्रास्फीति की दर में स्वत: ही गिरावट आ जाती है। लेकिन देश में इस बार ऐसा नहीं हुआ। रुपये के गिरते मूल्य ने मुद्रास्फीति पर नियंत्रण पाने के सरकार के प्रयासों पर पानी फेर दिया।नतीजतन विकास दर में गिरावट के अनुरूप मुद्रास्फीति की दर में गिरावट नहीं आयी।

मौजूदा आर्थिक परिदृश्य में रिजर्व बैंक की ताजा समीक्षा काफी गौरतलब है। इसमें कहा गया है कि मुद्रास्फीति की गिरावट भ्रामक है। निकट भविष्य में मुद्रास्फीति में अपेक्षित गिरावट आयेगी, इसे लेकर रिजर्व बैंक को शंका है। रिजर्व बैंक का मानना है कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को दबा कर रखा गया है। यह सही भी है। पाँच विधानसभा चुनावों के मद्देनजर पेट्रोल की कीमत वृद्धि को टाल दिया गया। जब भी पेट्रोलियम उत्पादों के दामों में वृद्धि होगी, तब मुद्रास्फीति दोबारा भड़क सकती है।

आर्थिक संकट 2008 के राहत पैकेज के बाद निवेश से ज्यादा उपभोग पर सरकारी खर्च ज्यादा हो रहा है। यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है।इस राजकोषीय रिसाव सेवृहत्तर आर्थिक प्रबंधन के स्थायित्व को गंभीर खतरा पैदा हो गया है। चालू वित्त- वर्ष में सरकार की उधारियाँ 512,000 करोड़ रुपये होने का अनुमान है, जबकि पूँजी व्यय 401,000 करोड़ रुपये होने का आकलन है। चालू वित्त-वर्ष के बजट में पूँजी व्यय के लिए 431,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था।इसी प्रकार राजकोषीय घाटे का प्रावधान जीडीपी का 4.6% (420,000 करोड़ रुपये) था, जो बढ़ कर 5.6% (512,000 करोड़ रुपये) हो जाने के आसार हैं।

रिजर्व बैंक के अनुसार इस समय समय सबसे ज्यादा जरूरत सरकारी खजाने को मजबूत करने की है। इससे ही सकल माँग सार्वजनिक क्षेत्र से हट कर निजी क्षेत्र की ओर जा पायेगी और उपभोग के स्थान पर पूँजी निर्माण की गति को बढ़ावा मिलेगा। रिजर्व बैंक का कहना है कि मार्च में पेश होने वाले बजट में राजकोषीय मजबूती के लिए सरकार को विश्वसनीय और टिकाऊ ढंग से समुचित अवसर तलाशने चाहिए। रिजर्व बैंक का इशारा साफ है कि सरकारी सहायता (सब्सिडी) और राजकोषीय घाटे में सरकार को काफी कटौती करनी चाहिए।

राजनीतिक अनिवार्यता और मुद्रास्फीति के कारण सब्सिडी बेलगाम हो गयी है। उर्वरक सब्सिडी इस वित्त वर्ष में 90,000 करोड़ रुपये से अधिक हो जायेगी। ईंधन यानी पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस, केरोसिन वगैरह पर सब्सिडी भी बजटीय प्रावधानों से 45,000 करोड़ रुपये अधिक होने के आसार हैं। केंद्र की यूपीए सरकार अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए खाद्य सुरक्षा विधेयक लाना चाहती है। आकलन है कि इसके लिए सरकार को आगामी तीन सालों में 500,000 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। एक तरफ सरकार के खर्च बेहिसाब बढ़ रहे हैं तो दूसरी तरफ सरकार की कमाई अनुमान से पीछे रह गयी है। आयकर और उत्पाद शुल्क पिछले बजट अनुमानों के स्तर तक जा सकेंगे, इसकी उम्मीद ना के बराबर है। विनिवेश से 40,000 करोड़ रुपये मिलने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन यह लक्ष्य भी बुरी तरह पिछड़ गया।

कुल मिला कर आर्थिक परिदृश्य उत्साहकारी नहीं है। मुद्रास्फीति का फंदा लगातार सरकार के गले में पड़ा हुआ है। विकास दर रूठी हुई है।सरकारी और निजी क्षेत्र दोनों में कंपनियाँ निवेश से विमुख हैं। एक झटके में लोकप्रिय सरकारी खर्चों को खत्म करना किसी भी सरकार के लिए असंभव है।सरकार के सामने केवल यही विकल्प बचता है कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों की दरें बढ़ायी जायें।

कर की दरों में बढ़ोतरी का मंच सजा दिया गया है। सरकार से जुड़े तमाम दिग्गजों के वक्तव्यों से यह साफ है कि करों और शुल्कों की दरों में चौतरफा वृद्धि होगी।पूर्व वित्त मंत्री और अब गृहमंत्री पलनिअप्पन चिदंबरम ने वारेन बफेट टैक्स लगाने का सुझाव दिया है। दुनिया के सबसे बड़े निवेशक वारेन बफेट ने अमेरिका में कर संग्रह बढ़ाने के लिए धनिकों से ज्यादा कर वसूलने की पुरजोर वकालत की है। उन्होंने यह वक्तव्य देकर संसार को चौंका दिया कि उनका सचिव उनसे ज्यादा टैक्स देता है।अमेरिकी सरकार ने अब उनके सुझाव को मान लियाहै।

प्रधानमंत्री की आर्थिक परिषद के सदस्य और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के निदेशक गोविंदराव ने व्यक्तिगत आयकर की उच्चतम सीमा को 40% करने का सुझाव दिया है। आठ लाख रुपये से अधिक की आय पर अभी 30% आय कर लगता है।श्री राव का कहना है कि यूरोप में भी धनिकोंपर अधिक टैक्स लगाने की मुहिम चल रही है और यहाँ भी 15 लाख रुपये से अधिक आय पर आयकर की दर 40% कर देनी चाहिए। हो सकता है कि महँगाई की मार को देखते हुए वित्त मंत्री आय कर छूट की सीमा में मामूली बढ़ोतरी करें, लेकिन इस राहत के बदले वे दूसरे हाथ से अधिक धन वसूलने की कोई कसर भी नहीं छोड़ेंगे।

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी. रंगराजन ने 2008 के आर्थिक संकट के पहले मौजूद उत्पाद शुल्क दरों को वापस लाने की आवश्यकता जतायी है। श्री रंगराजन का कहना है कि वित्त वर्ष के बीच में उत्पाद शुल्कों को बढ़ाना संभव नहीं है। इसलिए वित्त मंत्री को 2012-13 के बजट में 2008 के पहले लागू उत्पाद शुल्कों को फिर से लाने की पहल करनी चाहिए। गौरतलब है कि 2008-09 के बजट से पहले केंद्रीय मूल्यवर्धक शुल्क (सेनवैट) की मानक दर 16% थी, जो उस समय घटा कर 14% कर दी गयी थी। इसके बाद 2008-09 के मध्य में लेहमान ब्रदर्स के ढहने से उपजे विश्वव्यापी आर्थिक संकट से निपटने के लिए दिये गये प्रोत्साहन पैकेज में इस दर में 4% और कटौती कर दी गयी। फिर 2009-10 के बजट में सेनवैट को 2% घटा कर 8% कर दिया गया।

यद्यपि 2010-11 के बजट में सेनवैट में दी गयी इन रियायतों को पूरी तरह वापस ले लेना चाहिए था, लेकिन वित्त मंत्री इतना साहस नहीं जुटा पाये।उन्होंने सेनवैट की मानक दर केवल 2% बढ़ा कर 10% करना ही मुनासिब समझा। जाहिर है कि राजकोषीय घाटे की बढ़ती खाई को पाटने के लिए इस मद में बढ़ोतरी तयशुदा है। इसका सीधा अर्थ है कि उत्पाद अब और अधिक महँगे हो जायेंगे।

इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि धनिक लोगों के उपभोग की वस्तुओं पर वित्त मंत्री करों का ज्यादा बोझ डालें। इससे आर्थिक विसंगतियाँ भी कम होंगी। सामान्य अनुभव यह बताता है कि विलासी वस्तुओं के अधिक महँगा होने पर भी उनकी माँग बनी रहती है। इसलिए कीमती कारों, टीवी, मोबाइल, रेफ्रिजरेटर पर वित्त मंत्री अधिक शुल्क बढ़ोतरी कर सकते हैं।

आर्थिक संकट के बाद राहत पैकेज में सेवा कर (सर्विस टैक्स) घटा कर 12% से 10% कर दिया गया था। क्या वित्त मंत्री इस बार सेवा कर में बढ़ोतरी करेंगे? इसकी संभावना कम है। लेकिन इसका दायरा बढ़ाया जा सकता है, क्योंकि यह सरकार की सबसे दुधारू गाय साबित हो रहा है। इस कर की शुरुआत डॉ. मनमोहन सिंह ने ही बतौर वित्त मंत्री 1994-95 में की थी। तब केवल तीन सेवाओं पर इसे लगाया गया था। पहले साल में मात्र 410 करोड़ रुपये इस से हासिल हुए थे लेकिन चालू वित्त वर्ष में सरकार को इस कर से 80,000 करोड़ रुपये से अधिक मिलने का अनुमान है।

वित्त मंत्री भले ही सेवा कर की दर न बढ़ायें, लेकिन इससे अधिकाधिक राजस्व उगाहने के पुख्ता इंतजाम कर दिये गये हैं। वित्त मंत्रालय ने राज्य सरकारों के साथ मिल कर एक नकारात्मक सूची तैयार की है। इस सूची में 22 मद हैं, जिन पर केंद्र सरकार शुल्क नहीं लगायेगी। इन मदों पर शुल्क लगाने का अधिकार राज्य सरकारों के पास रहेगा। लेकिन इस नकारात्मक सूची से अलग किसी भी सेवा पर कर लगाने का खुला अधिकार केंद्र के पास रहेगा। जाहिर है कि अधिकाधिक सेवाओं को सेवा कर के दायरे में लाने की पुरजोर कोशिश होगी। पर सरकार की विडंबना यह है कि इतने भारी उपायों के बाद भी उसके पास खाद्य सुरक्षा विधेयक लागू करने के लिए पर्याप्त राशि का इंतजाम नहीं हो पायेगा। रिजर्व बैंक कीमा नें तो खाद्य सुरक्षा विधेयक की सिफारिशों को लागू करने के लिए वित्त का पुख्ता इंतजाम केवल पेट्रोलियम पदार्थों की सब्सिडी खत्म करने पर हो सकता है, खास तौर से डीजल और रसोई गैस (एलपीजी)। डीजल की बढ़ती हुई खपत सरकार के लिए गले की हड्डी बन गयी है। डीजल की खपत पेट्रोल की खपत से अधिक तेजी से बढ़ रही है, जो मौजूदा आर्थिक परिदृश्य में बेहद खतरनाक है। डीजल कारों और टेलीकॉम क्षेत्र में इसकी खपत बेतहाशा बढ़ रही है।इसके अलावा विद्युत और औद्योगिक क्षेत्र डीजल को वैकल्पिक ईंधन की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसके चलते डीजल की माँग बढ़ रही है।

टेलीकॉम टावरों में डीजल का सालाना इस्तेमाल लगभग 300 करोड़ लीटर है। इस पर दी जाने वाली सब्सिडी देखें, तो सरकार इन कंपनियों को सालाना 3,000 करोड़ रुपये की सहायता दे रही है। अप्रैल-अक्टूबर 2011 के दरम्यान डीजल की खपत में 6.2% की वृद्धि हुई है, जबकि पेट्रोल की खपत इस बीच 5.2% बढ़ी है। डीजल की माँग में अपेक्षा से लगभग 3% ज्यादा खपत हुई है। इसका मूल कारण डीजल पर मिलने वाली सब्सिडी। दुनिया भर में डीजल पेट्रोल से अधिक महँगा है।ना केवल राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने के लिए, बल्कि व्यापार घाटे को भी काबू में रखने के लिए डीजल की बढ़ती खपत पर अंकुश लगाना अनिवार्य हो गया है। यह अंकुश नहीं लगने पर देश की रिफाइनरियाँ माँग के अनुरूप डीजल की आपूर्ति नहीं कर पायेंगी। नतीजतन डीजल का आयात करना पड़ सकता है, जो अभी नहीं होता है। डीजल कारों को महँगा कर डीजल की खपत में कमी लाने का विकल्प भी सरकार के पास है । पेट्रोलियम मंत्री ने 80,000 रुपये का शुल्क डीजल का रोंपर लगाने की सिफारिश की है।

वित्त मंत्री इस बजट में कितना कर पायेंगे, इसका सारा दारोमदार पाँच विधानसभा चुनावों के नतीजों पर टिका हुआ है। यदि उत्तर प्रदेश के चुनाव कांग्रेस सबसे ज्यादा फायदे में रहती है, तो कांग्रेस को गेंदबाजी करने में आसानी महसूस होगी। लेकिन इतना तय है कि क्लीन बोल्ड तो केवल आम आदमी ही होगा। 

(निवेश मंथन, फरवरी 2012)

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