शिवानी भास्कर :
डॉलर के मुकाबले रुपया ऐतिहासिक कमजोरी झेल रहा है। सितंबर के बाद से करीब 17.5% की कमजोरी झेल चुका रुपया जब एक डॉलर के बदले 55 का स्तर छूने से कुछ ही पैसे की दूरी पर था, तब आखिरकार भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को यह महसूस हुआ कि उसे हस्तक्षेप करना चाहिए।
इसके पहले 52 रुपये के स्तर पर आरबीआई के डिप्टी गर्वनर सुबीर गोकर्ण ने बयान दिया कि आरबीआई रुपये को बेतहाशा गिरावट से उबारने के लिए कुछ खास नहीं कर सकता। उनका कहना था कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार ज्यादा बड़ा नहीं है और आने वाले दिनों में अगर यूरोप का कर्ज संकट बढ़ा तो भारत को इससे निपटने के लिए भारी मात्रा में डॉलर की जरूरत पड़ सकती है।
गोकर्ण की बात में वजन था, क्योंकि रुपये की गिरावट के मूल कारणों को दूर किये बिना केवल डॉलर बेचने से स्थिति को बहुत दिनों तक सँभालना कठिन था। लेकिन रुपये की कमजोरी देश की अर्थव्यवस्था के लिए जैसे भयावह परिणाम सामने ला सकती है, उसे देखते हुए आरबीआई के विकल्प बहुत सीमित थे। मुद्रा बाजार के कई विशेषज्ञों ने एक डॉलर का भाव 58 और कुछ ने तो 60 रुपये तक हो जाने की भी भविष्यवाणियाँ कर रखी हैं। इसलिए जब रुपया लुढ़कता हुआ 55 के करीब पहुँचा तो आरबीआई का सक्रिय होना लाजिमी था। आरबीआई ने रुपये के वायदा कारोबार (फ्यूचर ट्रेडिंग) पर अंकुश लगाने और बैंकों के सौदों में डिलीवरी अनिवार्य बनाने जैसे कई कदमों की घोषणा कर रुपये को फौरी मजबूती देने की कोशिश तो की, लेकिन ये सारे उपाय बहुत ही अस्थाई साबित हुए। केवल दो दिनों की मजबूती के बाद रुपये में फिर से गिरावट देखी गयी। बाजार में शायद ही कोई जानकार यह मान रहा है कि रुपये को आरबीआई के कदमों से कोई खास राहत मिल सकेगी।
रुपये में कमजोरी आने से हालाँकि देश के निर्यात में बढ़ोतरी की उम्मीद होती है, क्योंकि इससे घरेलू उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में सस्ते हो जाते हैं। लेकिन दूसरा पहलू यह है कि इससे विदेशी उत्पाद महँगे हो जाते हैं और आयात महँगा होता जाता है। इतना ही नहीं, यह एक दुष्चक्र भी तैयार करता है, जिसमें पहले तो आयात महँगा होता है और फिर उसी आपूर्ति के लिए देश से ज्यादा डॉलर बाहर निकलता है। इस निकासी से रुपया और ज्यादा कमजोर होता है। पहले से ही महँगाई की समस्या से जूझ रही अर्थव्यवस्था के लिए यह एक घातक स्थिति है। देश का सबसे बड़ा आयात बिल कच्चे तेल का होता है। अप्रैल से नवंबर 2011 के बीच भारत ने 94.1 अरब डॉलर केवल कच्चा तेल आयात करने पर खर्च किये, जो पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 42.7% ज्यादा है। हमारे देश में डीजल, केरोसिन और एलपीजी पर सरकार तेल मार्केटिंग कंपनियों को भारी सब्सिडी मुहैया कराती है, इसलिए रुपये में कमजोरी के साथ सब्सिडी का बोझ भी बढ़ता जाता है। केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा पहले ही लक्ष्य से काफी ऊपर जाता दिख रहा है। ऐसे में रुपये की कमजोरी उसकी स्थिति को और बदतर बना सकती है। बजट में विनिवेश के जरिए 40,000 करोड़ रुपये की जिस आमदनी का लक्ष्य सरकार ने रखा था, उसमें से केवल 1,500 करोड़ रुपये जुटाये जा सके हैं। तीसरी तिमाही के लिए कंपनियों के अग्रिम कर (एडवांस टैक्स) भुगतान में केवल 10% की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है। सरकार ने जीडीपी के 4.2% तक राजकोषीय घाटे का लक्ष्य रखा था, लेकिन इसका 5% के ऊपर जाना लगभग तय लग रहा है। इसके साथ ही अगले साल केंद्र सरकार पर करीब 100 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज की देनदारी का भी भार आने वाला है।
इन सब परिस्थितियों के बीच कमजोर रुपया एक खतरनाक स्थिति पैदा कर रहा है। रुपये की कमजोरी के दो और प्रमुख कारण हैं। एक है सोने का बढ़ता आयात। अप्रैल से नवंबर 2011 के बीच देश में सोने का आयात 44 अरब डॉलर का हुआ, जो पिछले साल की इसी अवधि से 56% ज्यादा है। सोना के प्रति भारतीयों का प्रेम जगत प्रसिद्ध है। लेकिन आयात में आयी ताजा बढ़ोतरी के पीछे एक और महत्वपूर्ण कारक है। वह है, घरेलू महँगाई और विदेशी अव्यवस्था। घरेलू महँगाई से त्रस्त लोगों को परंपरागत तौर पर मुद्रास्फीति का हेज माना जाने वाला सोना लुभा रहा है। इसके साथ ही शेयर बाजारों में चल रही भारी गिरावट और भविष्य की अनिश्चितता भी लोगों को निवेश के एक सुरक्षित साधन के तौर पर सोने की ओर धकेल रही है।
इसका नतीजा यह हो रहा है कि देश से अरबों डॉलर बाहर निकल रहे हैं और रुपये पर दबाव बढ़ता जा रहा है। तीसरा प्रमुख कारण शेयर बाजार में आयी गिरावट है। यहाँ भी एक दुष्चक्र पैदा होता है। विदेशी संस्थागत निवेशकों का लाभ डॉलर के मुकाबले कमजोर होते रुपये के कारण घटता है, जिससे भारतीय शेयर बाजार उनके निवेश के लिए अनाकर्षक हो जाता है। ज्यादा सुरक्षित और आकर्षक लाभ देने वाले बाजारों में निवेश बढ़ाने के लिए एफआईआई यहाँ अपने शेयर बेचते हैं और रुपये में की गयी बिकवाली को डॉलर से बदल कर देश से बाहर ले जाते हैं। इससे एक बार फिर रुपया कमजोर होता है।
रुपये को कमजोर करने वाले इन तीनों बुनियादी कारणों को खत्म कर ही भारतीय मुद्रा में जारी भीषण कमजोरी को रोका जा सकता है। इस लिहाज से आरबीआई के विकल्प बहुत सीमित हैं और इसमें ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका सरकार को निभानी होगी। सबसे पहले कच्चा तेल। सरकार डीजल, केरोसिन और एलपीजी से सब्सिडी हटा कर इन कमोडिटीज की माँग को कम कर सकती है। जरूरतमंदों को सस्ता डीजल, केरोसिन और एलपीजी मुहैया कराने के लिए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर की योजना का सहारा लिया जा सकता है, जिसकी घोषणा वित्त मंत्री ने 2011-12 के आम बजट में की थी। साथ ही सोने के आयात पर अंकुश लगाने के लिए सरकार ऐसे निवेश इंस्ट्रूमेंट जारी कर सकती है, जिनसे एक आम निवेशक को मुद्रास्फीति से सुरक्षा मिले।
सोना अपने निवेश चक्र के चरम पर जा चुका है। इसमें हाल के दिनों में आयी तेजी का मुख्य कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर डर और डॉलर के प्रति पैदा हुआ अविश्वास है। डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए तमाम देशों के केंद्रीय बैंकों ने जम कर सोने की खरीदारी की है और फिलहाल उनके पास कुल 30,000 टन का स्वर्ण भंडार है। वैश्विक हालात ठीक होते ही इनमें से बहुत सा सोना फिर बाजार में आयेगा और इसके भाव में भारी गिरावट देखने को मिल सकती है।
अगर सरकार निवेशकों को कोई ऐसा इंस्ट्रूमेंट मुहैया कराये, जिसका लाभ मुद्रास्फीति से जुड़ा हो और जो निवेशक को मुद्रास्फीति के ऊपर भी कुछ लाभ सुनिश्चित करे तो इससे निवेश के मकसद से सोने की खरीदारी कम होगी और विदेशी मुद्रा का देश से बाहर जाना थमेगा। तीसरा उपाय शेयर बाजार को स्थिरता देना है। भारतीय शेयर बाजार विदेशी संस्थागत निवेशकों पर बुरी तरह निर्भर है। सरकार को कुछ नीतिगत कदमों के जरिये यह निर्भरता कम करनी होगी। इसमें एक महत्वपूर्ण कदम पेंशन सुधार लागू करना है ताकि पेंशन फंड की राशि का निवेश शेयर बाजार में किया जा सके। इसमें हर आदमी को यह छूट दी जानी चाहिए कि वह स्वेच्छा से शेयर बाजार में अपने पेंशन जमा को निवेश करने का विकल्प चुन सके। इससे एक तो आम आदमी की शेयर बाजार में भागीदारी बढ़ेगी और दूसरे लंबी अवधि के निवेश का अनुपात बढ़ेगा, जिससे शेयरों की गिरावट रुकेगी। ऐसा होने पर रुपया स्थिर होगा और विदेशी पूँजी भी बाजार में वापस लौटेगी।
सरकार को देश में विदेशी मुद्रा लाने के पारंपरिक तरीकों को भी मजबूत बनाना होगा। इनमें सबसे अहम है प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई)। इस बारे में सरकार का एक प्रयास तो हाल ही में असफल हो गया, जब उसे विपक्षी दलों और अपने सहयोगियों के दबाव में मल्टी ब्रांड रीटेल में एफडीआई को अनुमति देने का फैसला वापस लेना पड़ा।
दिक्कत यह है कि सरकार बुनियादी उपायों की जगह अस्थाई और खतरनाक सिद्धांतों पर निर्भर कर रही है। पिछले साल भारत में 29 अरब डॉलर का निवेश करने वाले विदेशी निवेशकों को वापस बुलाने के लिए नीतिगत स्तर पर सक्रियता दिखाने के बजाय सरकार भारतीय कंपनियों को विदेशी बाजारों से ज्यादा से ज्यादा कर्ज लेने को प्रोत्साहित कर रही है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय बैंकों के सबसे बड़े कर्जदाता यूरोपीय बैंक हैं, जो पहले ही नये नियमों के तहत अपना पूँजी आधार मौजूदा 2,000 अरब डॉलर से घटा कर 600 अरब डॉलर करने वाले हैं। स्वाभाविक तौर पर इससे भारतीय कंपनियों पर ऊँची ब्याज दर का दबाव बढ़ेगा। यह एक जोखिम भरा खेल है, जिससे आगे चलकर कंपनियों का लाभ मार्जिन कम हो सकता है। अगर कहीं घरेलू अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर एक सीमा से ज्यादा सुस्त पड़ी तो काफी कंपनियाँ ब्याज के बोझ से दब कर बीमार हो सकती हैं।
(निवेश मंथन, जनवरी 2012)