शिवानी भास्कर :
पेट्रोल और डीजल की कीमतें यूँ तो सीधे-सीधे आम आदमी की जेब और देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ी हुई हैं, लेकिन अपने देश में इसका साबका आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक परिणामों से पड़ता है। पिछले तीन साल में पहली बार 16 नवंबर को तेल मार्केटिंग कंपनियों ने पेट्रोल के दाम में कमी की। दिल्ली में 2.22 रुपये की कमी के बाद पेट्रोल की कीमत 66.42 रुपये है।
हालांकि यह कमी अप्रैल 2010 के बाद यानी पिछले डेढ़ वर्षों में पेट्रोल की कीमतों में आई 18.49 रुपये यानी 39% की बढ़ोतरी के बाद की गयी है। इसके बाद 30 नवंबर को फिर से पेट्रोल के दाम घटाये गये। दिल्ली में 78 पैसे प्रति लीटर की कटौती से इसकी कीमत 65.64 रुपये हो गयी।
देश में पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और केरोसिन तेल की मार्केटिंग करने वाली कंपनियों का लगभग हमेशा यह रोना रहता है कि अंडररिकवरी के बोझ से उनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। वहीं कंपनियों को कारोबार में बनाये रखने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी से सरकार का चालू खाता घाटा और राजकोषीय घाटा, दोनों ही अपनी सीमा को पार करने लगे हैं। लेकिन तमाम दुश्वारियों के बावजूद सरकार सब्सिडी का अपना बोझ कम करने को तैयार नहीं है, क्योंकि ऐसा करने के लिए उसे पेट्रोल और डीजल की कीमतों को पूरी तरह बाजार की ताकतों के हवाले करना होगा और राजनीतिक तौर पर यह उसके लिए घातक हो सकता है।
हालाँकि सब्सिडी के चलते सरकार पर पडऩे वाला बोझ एक छलावा भी है। ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है कि सरकार को पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाली करों की दरों को कम करना चाहिए। पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से भारी मात्रा में कर लगाये जाते हैं, जिसके कारण इनका मूल्य काफी बढ़ जाता है। तब जनता को राहत देने के लिए केंद्र को सब्सिडी देनी पड़ती है।
भारत में तेल की सालाना खपत 10.6 करोड़ टन से ज्यादा है, जबकि घरेलू उत्पादन से केवल 3.4 करोड़ टन की ही आपूर्ति हो पाती है। शेष आपूर्ति के लिए देश पूरी तरह आयात पर निर्भर है। मॉर्गन स्टैनले की एक रिपोर्ट के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में हुई एक डॉलर की बढ़ोतरी से चालू साल में तेल सब्सिडी में 61.2 करोड़ डॉलर की बढ़ोतरी होगी। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2011-12 के दौरान 100 डॉलर प्रति बैरल के औसत भाव से सरकार का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 1.3% होगा। चालू वित्त वर्ष के पहले छह महीनों में भारत पेट्रोलियम (बीपीसीएल) और हिंदुस्तान पेट्रोलियम (एचपीसीएल) का सम्मिलित घाटा 12,000 करोड़ रुपये हो चुका है। इंडियन ऑयल (आईओसी) की हालत भी खराब है। ऐसे में सरकार पर लगातार पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने का दबाव बना हुआ है।
इसी दबाव के तहत सरकार ने 28 जून 2010 को पेट्रोल की कीमतों पर से नियंत्रण हटाने का फैसला लिया था। हालाँकि इसके बाद भी इस बारे में तेल मार्केटिंग कंपनियों को व्यावहारिक रूप से स्वतंत्रता नहीं दी गयी। सैद्धांतिक तौर पर उस बैठक में डीजल की कीमतों को भी नियंत्रण मुक्त करने की बात कही गयी थी, लेकिन अब तक इस दिशा में कोई पहल नहीं की गयी है। दरअसल पहली बार केंद्र सरकार ने अप्रैल 2002 में ही ऐडमिनिस्टर्ड प्राइसिंग मैकेनिज्म (एपीएम) को खत्म कर इस प्रक्रिया की शुरुआत की थी। एपीएम के तहत केंद्र सरकार सीधे पेट्रोलियम उत्पादों के दाम तय करती थी। इसे खत्म कर 2002 में यह अधिकार तेल मार्केटिंग कंपनियों को दिया गया, जो पेट्रोलियम क्षेत्र के नियामक की देखरेख में इंपोर्ट पैरिटी प्राइसिंग फॉर्मूला के आधार पर कीमतें तय करने लगीं।
इस नयी व्यवस्था से उत्साहित होकर रिलायंस और एस्सार जैसी कुछ कंपनियों ने अपने पेट्रोल पंप भी खोले। लेकिन 2004 की शुरुआत में कच्चे तेल के दाम में लगातार बढ़ोतरी होने और चुनाव सिर पर होने की वजह से केंद्र सरकार ने इस मामले में कंपनियों की स्वतंत्रता पर फिर अंकुश लगाने शुरू कर दिये। केंद्र ने 2004 के मध्य तक कीमतें निर्धारित करने की नयी व्यवस्था को खत्म कर हर बार दाम बढ़ाने से पहले सरकारी मंजूरी को अनिवार्य कर दिया।
एक बार फिर तेल कंपनियों की अंडररिकवरी में बढ़ोतरी शुरू हो गयी। साल 2004 के बाद से कम-से-कम 10 बार पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ाने के बावजूद तेल कंपनियों की बैलेंस शीट में सुराख बढ़ता गया। साल 2010-11 के दौरान तेल कंपनियों की अंडररिकवरी 78,190 करोड़ रुपये थी, जबकि कच्चे तेल की औसत कीमत 85 डॉलर प्रति बैरल थी। चालू वित्त वर्ष में यह कीमत औसतन 110 डॉलर प्रति बैरल रही है, इसलिए इस अंडररिकवरी के बढ़ कर 1,30,000 करोड़ रुपये तक पहुँच जाने की आशंका है। इस अंडररिकवरी के बोझ से कंपनियों को बचाने के लिए सरकार समय-समय पर इन्हें तेल बॉन्ड जारी करती है। लेकिन तेल बॉन्ड सरकार का राजकोषीय घाटा और बढ़ाने का ही काम करते हैं।
सरकार ने करों में कटौती कर अंडररिकवरी का बोझ कम करने की भी कोशिश की है। जून 2008 में सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर एक्साइज ड्यूटी को मूल्य आधारित 26% और उसके ऊपर 7.50 रुपये प्रति लीटर से घटा कर सीधे 13.35 रुपये प्रति लीटर तय कर दिया। डीजल पर भी इसी तरह कर को घटाया गया। उत्पाद शुल्क 2004 में रसोई गैस (एलपीजी) पर 8% और केरोसिन पर 16% था। इन्हें जून 2008 तक पूरी तरह खत्म कर दिया गया। इसके बावजूद करों के मोर्चे पर पेट्रोलियम उत्पादों को कोई खास राहत नहीं मिली, क्योंकि भले ही केंद्र सरकार ने अपने हिस्से के करों पर कैंची चलायी हो, लेकिन राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की है।
केवल दिल्ली की बात करें तो, यहाँ पेट्रोल की खुदरा कीमत का 45% हिस्सा केवल करों का होता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत इस समय मोटे तौर पर 100-110 डॉलर प्रति बैरल चल रही है। एक बैरल में 158.99 लीटर तेल होता है। इस लिहाज से प्रति लीटर कच्चे तेल की कीमत 69 सेंट बैठती है, जिसे 52 रुपये प्रति डॉलर के मौजूदा विनिमय दर पर भी बदला जाये तो एक लीटर कच्चे तेल की कीमत 35.88 रुपये ही होगी। अगर इसमें तेल-सफाई (रिफाइनिंग) की लागत जोड़ ली जाये तो रिफाइनरी से बाहर आने वाले पेट्रोल की कीमत बैठती है 36.82 रुपये प्रति लीटर। इसमें अंतर्देशीय परिवहन खर्च के तौर पर प्रति लीटर 2.25 रुपये जोड़े जाते हैं। इसके अलावा 14.78 रुपये उत्पाद कर के रूप में और 11.07 रुपये दिल्ली सरकार की बिक्री कर के जुड़ जाते हैं। पेट्रोल पंप मालिक को 1.50 रुपये का कमीशन मिलता है। यानी लगभग 37 रुपये की कीमत और 30 रुपये का शुल्क।
केंद्र पेट्रोल पर जो कर वसूलता है, वित्त आयोग की व्यवस्था के तहत उसका भी करीब एक तिहाई हिस्सा राज्यों को ही चला जाता है। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने हाल ही में बताया कि केंद्र को पेट्रोलियम उत्पादों से सालाना 96,000 करोड़ रुपये की आमदनी हुई, जबकि राज्यों ने 84,000 करोड़ रुपये उगाहे। लेकिन केंद्र को अपनी रकम में से एक तिहाई यानी 32,000 करोड़ रुपये राज्यों के खाते में डालने पड़े। यानी केंद्र की यह आमदनी घट कर ६४,००० करोड़ रुपये रह गयी, जबकि राज्यों की कुल आमदनी 116,000 करोड़ रुपये हो गयी।
जून 2010 में पेट्रोल की कीमतों के नियंत्रणमुक्त होने के बाद से राज्य सरकारों की पेट्रोल से होने वाली आय में 40-43% की बढ़ोतरी हुई है। दिल्ली का ही उदाहरण देखें तो यहाँ जून 2010 में जब पेट्रोल की कीमत 47.93 रुपये थी, उस समय दिल्ली सरकार को पेट्रोल की हर लीटर बिक्री पर 7.99 रुपये की कमाई होती थी। राजधानी में पेट्रोल की कीमत 68.64 रुपये हो जाने पर उसकी यह कमाई बढ़ कर 11.14 रुपये प्रति लीटर हो गयी, यानी डेढ़ साल में 39.42% की वृद्धि।
मासिक आधार पर 11.3 करोड़ लीटर पेट्रोल की बिक्री पर दिल्ली सरकार को डेढ़ साल पहले जहाँ 90.28 करोड़ रुपये की कमाई हो रही थी, वह अब बढ़ कर 125.88 करोड़ रुपये हो चुकी है। सालाना आधार पर यह 427 करोड़ रुपये की अतिरिक्त कमाई है।
पेट्रोल पर 20% वैट लगाने वाली दिल्ली कोई अपवाद नहीं है। तमाम राज्य इस पर 15% (पुडुचेरी) से लेकर 33% (आंध्र प्रदेश) तक वैट आयद करते हैं। जून 2010 में नियंत्रण मुक्त होने के बाद से पेट्रोल की कीमतें 43% बढ़ चुकी हैं। मौजूदा कराधान ढाँचे के तहत राज्य सरकारें मूल्य के आधार पर वैट लगाती हैं। मतलब साफ है कि कीमतें जितनी बढ़ेंगी, उतनी ही राज्यों की आमदनी भी बढ़ेगी। इसकी तुलना में केंद्र का उत्पाद कर प्रति लीटर पर 14.35 रुपये तय है, चाहे कीमत कुछ भी हो। इसमें 3% का सेस शामिल नहीं है। इसके अलावा इस साल जून में केंद्र सरकार ने कच्चे तेल पर 5% का सीमा शुल्क हटा लिया। पेट्रोल एवं डीजल पर आयात कर 7.5% से घटा कर 2.5% कर दिया। इसके अलावा डीजल पर उत्पाद कर 2.60 रुपये से घटा कर 2 रुपये प्रति लीटर कर दिया गया। इस बदलावों से सालाना केंद्र सरकार को 49,000 करोड़ रुपये का नुकसान होने का अनुमान है।
कुल मिलाकर जो परिस्थिति दिख रही है, उसमें केंद्र पर तेल सब्सिडी का बोझ बढ़ता जा रहा है, जबकि करों की मलाई राज्य खा रहे हैं। केंद्र के लगातार अनुरोध के बावजूद राज्य सरकारों ने उपभोक्ताओं का कष्ट कम करने में कोई रुचि नहीं दिखाई है। जानकारों का मानना है कि कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में फिलहाल कोई खास कमी आने की उम्मीद नहीं है। ऐसे में जब तक राज्य सरकारें संवेदनशीलता दिखाते हुए अपनी आमदनी के लिए वैकल्पिक स्रोत नहीं तलाशतीं और पेट्रोलियम पदार्थों पर लगे अपने कर नहीं घटातीं, तब तक इस बात की संभावना नहीं दिखती कि लोगों को पेट्रोल और डीजल की बढ़ी दरों से कोई खास राहत मिल सकेगी।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2011)