सुशांत शेखर :
अमेरिकी फेडरल रिजर्व की 21 सितंबर को हुई बैठक से वैश्विक बाजारों को बहुत उम्मीदें थीं। लोग सोच रहे थे कि फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बेन बर्नांके कुछ ऐसा जरूर करेंगे, जिससे मंदी के मुहाने पर खड़ी अमेरिकी अर्थव्यस्था को राहत मिलेगी।
कुछ विश्लेषक क्यूई-3 यानी तीसरे राहत पैकेज की उम्मीद भी कर रहे थे। लेकिन फेडरल रिजर्व की बैठक से जो निकल कर आया, उससे पूरी दुनिया के शेयर बाजार निराशा के गर्त में समा गये। नतीजा यह हुआ कि जुलाई-सितंबर 2011 की तिमाही 2008 की मंदी के बाद से अब तक की सबसे बुरी तिमाही साबित हुई। शेयर बाजार का हाल बेहाल करने में अमेरिका के साथ यूरोप का भी बड़ा हाथ रहा, जहाँ ग्रीस सहित कई देशों की सरकारें ही अपने कर्ज वापस नहीं लौटा पाने की हालत में दिख रही हैं और यह खतरा मँडरा रहा है कि वे अपने कर्ज लौटाने से इन्कार (डिफॉल्ट) कर दें।
बेन बर्नांके ने फेडरल ओपन मार्केट कमेटी की बैठक के बाद दुनिया भर के शेयर बाजारों को एक नया मुहावरा दिया, ‘ऑपरेशन ट्विस्ट’। फेडरल रिजर्व ने ‘ऑपरेशन ट्विस्ट’ के तहत जून 2012 तक 6 साल से 30 साल तक की अवधि वाली 400 करोड़ डॉलर की प्रतिभूतियाँ (सिक्योरिटीज) खरीदने का ऐलान किया। लेकिन साथ ही इसी दौरान वह 400 करोड़ डॉलर की 3 साल या इससे कम अवधि वाली प्रतिभूतियों की बिक्री भी करेगा।
मतलब यह कि फेडरल रिजर्व एक तरह से कोई नहीं खरीदारी नहीं करेगा, बल्कि अपने पोर्टफोलिओ में मौजूद प्रतिभूतियों की अवधि को बदल देगा। इसी बात को ट्विस्ट कहा गया। फेडरल रिजर्व को उम्मीद है कि ‘ऑपरेशन ट्विस्ट’ से लंबे समय में ब्याज दरों पर दबाव कम होगा। हालाँकि इसके पहले फेडरल रिजर्व ने 1960 में भी इसी तरह के ‘ट्विस्ट’ का ऐलान किया था और वह नाकाम रहा। ऐसे में दुनिया भर के विश्लेषकों ने मौजूदा ‘ऑपरेशन ट्विस्ट’ की सफलता पर सवाल उठाये हैं। जानकारों को लगता है कि ‘ऑपरेशन ट्विस्ट’ से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को उबारने में बहुत मदद नहीं मिल पायेगी।
इसके साथ ही बेन बर्नांके ने 2013 के मध्य तक फेडरल रिजर्व की ब्याज दरें शून्य से 0.25% के मौजूदा स्तरों पर ही कायम रखने का ऐलान किया। फेडरल रिजर्व ने 2008 की मंदी के दौरान ही अपनी ब्याज दर लगभग शून्य कर दी थी। लेकिन उस समय से अब तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था में विकास की रफ्तार इतनी सुस्त रही कि फेडरल रिजर्व ब्याज दरों को वापस बढ़ाने की कोशिश भी नहीं कर सका।
दुनिया भर के शेयर बाजार अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सेहत पर फेडरल रिजर्व की टिप्पणियों से बहुत ज्यादा निराश हो गये। निवेशकों को भविष्य के बारे में फेडरल रिजर्व की टिप्पणी से भी गहरी चिंता हो गयी। इसने 21 सितंबर की बैठक के बाद जारी बयान में कहा कि अमेरिका में आर्थिक हालात और बिगडऩे का खतरा है। साथ ही यह भी कहा गया कि दुनिया भर के वित्तीय बाजारों पर दबाव दिख सकता है। फेडरल रिजर्व ने यह भी साफ किया कि अमेरिका में बेरोजगारी की स्थिति के जल्दी ही नियंत्रण में आने की उम्मीद नहीं है।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर फेडरल रिजर्व की निराशाजनक टिप्पणियों और यूरोप के कर्ज संकट से यह सवाल फिर उठ रहा है कि क्या दुनिया 2008 के बाद फिर से मंदी के मुहाने पर खड़ी है। पिछली बार अमेरिका के दिग्गज निवेश बैंक लेहमन ब्रदर्स के दिवालिया होने के बाद दुनिया भर के शेयर बाजारों में मंदी का कोहराम मचा था। कई जानकार मानते हैं कि इस बार ग्रीस सरकार का डिफॉल्ट करना बारूद के ढेर पर चिंगारी का काम कर सकता है।
अगर ग्रीस को राहत योजना के तहत अगली किस्त के तौर पर 8 अरब यूरो की रकम नहीं मिली तो अक्टूबर के मध्य तक ग्रीस सरकार को मजबूरन डिफॉल्ट करना होगा, यानी वह अपनी देनदारियाँ चुकाने की स्थिति में नहीं रह जायेगी। दरअसल यूरोपीय संघ और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने ग्रीस सरकार को राहत पैकेज इस शर्त पर दिया था कि वह बजट घाटे में कमी लाने के साथ अपने खर्चों में भारी कटौती करेगी। ग्रीस सरकार ने पिछले 15 महीनों में बजट घाटा कम करने के लिए कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने, करों की दरों में बढ़ोतरी करने और पेंशन जैसी सामाजिक योजनाओं के तहत खर्च घटाने का ऐलान किया। लेकिन ग्रीस अभी लक्ष्य से काफी पीछे है।
ग्रीस ही नहीं 17 देशों के पूरे यूरोपीय संघ की हालत खस्ता है। ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड को राहत पैकेज मिल चुका है। इटली और स्पेन की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। खासकर इटली का बजट घाटा उसकी जीडीपी के 119% तक पहुँच चुका है।
जर्मनी और फ्रांस यूरो क्षेत्र के सबसे मजबूत देश हैं, लेकिन अब खुद इनकी हालत भी खराब हो रही है। दूसरी तिमाही में जर्मनी की जीडीपी विकास दर लगभग शून्य रही। ऐसे में यूरोपीय देश बड़े असमंजस में हैं कि कर्ज संकट के दलदल से कैसे निकला जाये। इसी कड़ी में यूरोपीय देश पिछले साल बने 440 अरब यूरो के यूरोपीय वित्तीय स्थिरता कोष (यूरोपियन फाइनेंशियल स्टैबिलिटी फंड) का आकार बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। जर्मनी और फ्रांस सहित कई देशों की सरकारें इस प्रस्ताव को मंजूर कर चुकी हैं। लेकिन फंड का आकार तभी बढ़ेगा जब यूरो क्षेत्र के सभी 17 देशों की सरकारें इसे मंजूरी दे दें।
इसी तरह यूरोपीय सरकारें संकट से निकलने के लिए सामूहिक ‘यूरो बॉन्ड’ जारी करने पर सहमति बनाने की कोशिश कर रही हैं। इस योजना के तहत यूरो क्षेत्र के सभी 17 देश एक दूसरे के कर्जों के एवज में जारी बॉन्डों की गारंटी देंगे। इरादा यह है कि सभी देशों को एक समान ब्याज दरों पर कर्ज मिल सके। कई जानकार मानते हैं कि यूरो बॉन्ड से यूरोप के कर्ज संकट का स्थायी समाधान निकल सकता है।
लेकिन यूरो बॉन्ड की योजना की राह में कई बड़ी बाधाएँ हैं। यूरो बॉन्ड की योजना पर सबसे ज्यादा आपत्ति जर्मनी को है। दरअसल जर्मनी को ट्रिपल ए रेटिंग की वजह से काफी सस्ते में कर्ज मिल जाता है। लेकिन यूरो बॉन्ड योजना लागू होने पर जर्मनी को ग्रीस और अन्य खस्ताहाल देशों के कर्जों की गारंटी लेनी होगी। जाहिर है इससे जर्मनी को खुद संकट में फँस जाने का डर सता रहा है।
यही वजह है कि जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल को घरेलू मोर्चे पर दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। उनकी अपनी पार्टी भी नहीं चाहती कि ग्रीस और अन्य संकटग्रस्त देशों की इस हद तक मदद की जाये जिससे जर्मनी खुद संकट में पड़ जाये। जर्मनी में यह मामला वहाँ के सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचा। लेकिन कोर्ट ने एंजेला सरकार को कुछ हिदायतों के साथ अपनी योजना पर काम करते रहने की इजाजत दे दी।
यूरोप के कर्ज संकट ने यूरो क्षेत्र और एक सामूहिक मुद्रा के तौर पर यूरो के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। हालाँकि यूरोपीय देश यूरो क्षेत्र के अस्तित्व पर किसी तरह के संकट से इंकार करते हुए एकजुटता का राग अलाप रहे हैं। लेकिन भीतर-ही-भीतर उनमें एक बेचैनी भी है। बेचैनी इस बात पर कि हम क्यों दूसरे देशों के आर्थिक संकट का बोझ सहें। खासकर जर्मनी और फ्रांस जैसे बड़े देशों का एक बड़ा तबका यह सोचने लगा है कि 1999 में अस्तित्व में आये यूरो क्षेत्र का अब कोई मतलब नहीं है।
अमेरिका भी चाहता है कि यूरोप के कर्ज संकट का जल्दी ही कोई स्थायी समाधान निकले। पिछले दिनों यूरोपीय देशों के वित्त मंत्रियों की बैठक में अमेरिकी विदेश मंत्री टिमोथी गीथनर ने भी हिस्सा लिया। दरअसल अमेरिका के मॉर्गन स्टैनले जैसे कई बैंकों ने भारी मात्रा में यूरोपीय देशों के बॉन्ड खरीद रखे हैं। यही वजह है कि यूरोप से एक भी नकारात्मक खबर आती है तो शेयर बाजार में अमेरिकी बैंकों के शेयर में तेज बिकवाली शुरू हो जाती है।
अगर यूरोप का एक देश भी डिफॉल्ट करे तो यूरोप और अमेरिका के साथ पूरी दुनिया की बैंकिंग व्यवस्था चरमरा सकती है। इसका असर भारत, चीन और अन्य एशियाई देशों पर भी पडऩा तय है, भले ही यह असर कम या ज्यादा हो। चीन के बैंकों ने भी यूरोपीय देशों के बॉन्डों में भारी निवेश कर रखा है। हालाँकि इसी वजह से जानकारों के एक बड़े वर्ग को यह उम्मीद भी है कि आखिरी वक्त तक कोई न कोई सहमति बन जायेगी। उन्हें उम्मीद है कि अमेरिका और यूरोपीय देश ग्रीस को किसी भी तरह डिफॉल्ट नहीं करने देंगे। आमीन!
(निवेश मंथन, अक्तूबर 2011)