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तेल से खजाना भरने में जुटी सरकार

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Category: दिसंबर 2014

राजीव रंजन झा :

केंद्र सरकार ने चंद हफ्तों के अंदर दूसरी बार पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क (एक्साइज ड्यूटी) में वृद्धि कर दी है।

इस तरह अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की घटती कीमतों का पूरा फायदा उपभोक्ताओं को देने के बदले वह इसका फायदा उठा खुद अपना खजाने भरने में जुट गयी है। मंगलवार 2 दिसंबर की आधी रात से पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 2.25 रुपये और डीजल पर 1 रुपये बढ़ा दिया गया है।
लोगों को सांत्वना दी जा रही है कि इस शुल्क वृद्धि का असर उपभोक्ताओं पर नहीं डाला जायेगा, यानी इसके चलते खुदरा कीमतों में वृद्धि नहीं की जायेगी। लेकिन इसके चलते कीमतों में जो कमी हो जानी चाहिए थी, वह तो टल ही जायेगी ना।
कहा जा सकता है कि नवंबर के मध्य में उत्पाद शुल्क वृद्धि के कारण ही पेट्रोल-डीजल की कीमतें नहीं घटायी गयीं और नवंबर के अंत में की गयी कमी काफी हल्की रही। नवंबर के अंत में पेट्रोल की कीमत 91 पैसे प्रति लीटर और डीजल की कीमत 84 पैसे प्रति लीटर घटायी गयी है।
इससे पहले नवंबर के दूसरे हफ्ते में सूत्रों के हवाले से चैनलों की खबरें बता रही थीं कि एक बार फिर पेट्रोल-डीजल के दाम घटने वाले हैं। लेकिन इसके बदले सबको चौंकाते हुए 13 नवंबर को खबर यह आयी कि केंद्र सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क 1.50 रुपये प्रति लीटर बढ़ा दिया है।
दो बार हुई इस वृद्धि के चलते ब्रांड-रहित पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 1.20 रुपये से बढ़ कर अब 4.95 रुपये प्रति लीटर हो गया है। ब्रांड-रहित डीजल पर उत्पाद शुल्क 1.46 रुपये से बढ़ कर 3.96 रुपये प्रति लीटर हो गया है। इसी तरह ब्रांडेड पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क दो बार की वृद्धि के चलते 2.35 रुपये से 6.10 रुपये पर पहुँच गया है, जबकि ब्रांडेड डीजल पर भी शुल्क 3.75 रुपये से 6.25 रुपये हो गया है।
इस कदम का सीधा उद्देश्य सरकारी आमदनी को बढ़ाना है। सरकार ने इस साल अपना वित्तीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) जीडीपी के 4.1% तक सीमित रखने का लक्ष्य रखा है और इस लक्ष्य को पूरा करने में इस फैसले से मदद मिलेगी। अनुमान है कि उत्पाद शुल्क में दो बार हुई इस वृद्धि से सरकार इस कारोबारी साल के बाकी बचे महीनों में वह लगभग 10,000-11,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त कमाई कर सकती है। हाल के महीनों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें नीचे आने से देश में पेट्रोल और डीजल के दाम भी घटे हैं।
मगर ऐसा नहीं था कि इससे केंद्र सरकार के राजस्व में कोई कमी आयी, क्योंकि इन पर उत्पाद शुल्क मूल्य आधारित नहीं बल्कि नियत है। इसलिए घटते दामों के बीच उत्पाद शुल्क में यह वृद्धि सीधे तौर पर अधिक राजस्व उगाही का ही एक तरीका है।
सरकार ने कर-संग्रह तेज करने की आकुलता में ही यह कदम उठाया है, क्योंकि इस वित्त वर्ष में अप्रत्यक्ष कर संग्रह में 25.8% के ऊँची वृद्धि (जिसे जानकार आरंभ से ही अवास्तविक कहते रहे) के लक्ष्य की तुलना में अब तक केवल 5.6% की वृद्धि दर्ज की जा सकी है। इसलिए कर संग्रह बढ़ाने के उपायों के प्रति सरकार की तत्परता को समझा जा सकता है।
डीजल की कीमतों में पाँच वर्षों से ज्यादा समय के बाद इस साल 19 अक्टूबर को पहली बार कटौती की गयी थी। इसके दाम 3.37 रुपये प्रति लीटर घटाने के साथ सरकारी तेल कंपनियों को इसका मूल्य स्वयं निर्धारित करने की छूट भी दे दी गयी। इससे पहले डीजल की कीमतों में आखिरी कटौती जनवरी 2009 में हुई थी। इसके बाद 1 नवंबर को पेट्रोल की कीमत 2.41 रुपये और डीजल की कीमत 2.25 रुपये प्रति लीटर घटायी गयी।
उत्पाद शुल्क में इस वृद्धि के बाद अब ब्रांड-रहित पेट्रोल पर 4.95 रुपये के मूलभूत उत्पाद शुल्क के अलावा 6 रुपये प्रति लीटर का विशेष अतिरिक्त उत्पाद शुल्क (एसएडी) और 2 रुपये प्रति लीटर का सड़क उपकर (रोड सेस) भी लागू है। इस तरह पेट्रोल पर अब कुल मिला कर 12.95 रुपये का उत्पाद शुल्क लागू है। वहीं ब्रांड-रहित डीजल पर मूलभूत उत्पाद शुल्क के अलावा केवल 2 रुपये प्रति लीटर का सड़क उपकर है, यानी इस पर कुल मिला कर 5.96 रुपये का उत्पाद शुल्क लग रहा है। ब्रांडेड पेट्रोल पर कुल उत्पाद शुल्क बढ़ कर अब 14.10 रुपये प्रति लीटर और ब्रांडेड डीजल पर 8.25 रुपये प्रति लीटर हो गया है।
केंद्र सरकार के इस शुल्क के ऊपर पेट्रोल और डीजल पर तमाम तरह के और भी शुल्क लदे होते हैं। इनमें बिक्री कर (सेल्स टैक्स), वैल्यू ऐडेड टैक्स (वैट), राज्य-विशेष शुल्क (एसएससी), लोकल बॉटी टैक्स (एलबीटी), प्रवेश शुल्क और उपकर (सेस) शामिल हैं। इन शुल्कों की दरें अलग-अलग राज्यों में, और एक ही राज्य के अलग-अलग शहरों में अलग-अलग हैं।
इसी कारण दिल्ली की सीमा से निकल कर नोएडा या गुडग़ाँव में प्रवेश करते ही या मुंबई से निकल कर ठाणे में प्रवेश करते ही पेट्रोल-डीजल की खुदरा कीमतें बदल जाती हैं। विभिन्न राज्यों की अलग-अलग कर-नीतियों के कारण देश में पेट्रोल-डीजल की न्यूनतम और अधिकतम खुदरा कीमतों के बीच का अंतर 35% तक है। देश में इनकी सबसे ज्यादा ऊँची कीमतें महाराष्ट्र में और सबसे कम कीमतें गोवा में हैं।
यदि पेट्रोल पर बिक्री कर/वैट की दरों के बीच का फर्क देखें, तो यह एक ओर जहाँ पंजाब में 33.35% और आंध्र प्रदेश में 31.00% है, वहीं अंडमान निकोबार और लक्षद्वीप में शून्य है। गोवा में यह मात्र 3.50% है। अधिकांश राज्यों में यह 20-30% के बीच है।
डीजल पर बिक्री कर/वैट छत्तीसगढ़ में 25.00%, गुजरात में 24.63%, मध्य प्रदेश में 24.23% और महाराष्ट्र के मुंबई, ठाणे एवं नवी मुंबई में 24.00% है। दूसरी ओर हरियाणा में 9.24% और हिमाचल प्रदेश में केवल 9.60% की दर है।
वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने पर खुदरा कीमतों में इस अंतर को खत्म या कम करने का रास्ता खुल सकता है। लेकिन बहुत-सी राज्य सरकारें पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने का विरोध कर रही हैं।
अगर हम केंद्र, राज्य और स्थानीय सरकारों के शुल्कों को जोड़ कर देखें तो पेट्रोल पर लगने वाले करों की कुल मात्रा लगभग 30% से 40% तक (कहीं-कहीं और ज्यादा) हो जाती है। डीजल के मामले में ये थोड़ा कम हैं, लेकिन कई राज्यों में 30% तक पहुँच जाते हैं।
अर्थव्यवस्था के लिए एक बेहद जरूरी कच्चे माल पर इतना ज्यादा कर-बोझ किसी रूप में वाजिब नहीं कहा जा सकता। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों, दोनों के लिए यह राजस्व जुटाने का एक आसान तरीका है। सरकारों को क्रमश: इस अवांछनीय स्थिति से बाहर आने और धीरे-धीरे पेट्रोल-डीजल पर इन शुल्कों को कम करने का रास्ता अपनाना चाहिए था, मगर केंद्र सरकार का ताजा कदम दिखाता है कि वह पेट्रोलियम क्षेत्र को दुधारू गाय मानने के प्रलोभन से बच नहीं पा रही।
इससे पहले केंद्र सरकार जनता को इस भ्रम में रखती आयी है कि पेट्रोलियम क्षेत्र पर वह भारी सब्सिडी देती है, जिससे खजाने पर काफी बोझ पड़ता है। सब्सिडी और टैक्स का हिसाब कुछ ऐसा रहा है कि आप किसी से 10 रुपये वसूलने के बाद उसे दो रुपये मदद के नाम पर दे दें। अब तो कच्चे तेल की घटी हुई कीमतों के चलते सरकार पर सब्सिडी के बोझ का रोना भी कम हो गया है।
हकीकत यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें अपनी आमदनी के लिए पेट्रोलियम क्षेत्र पर बुरी तरह से निर्भर रही हैं। राज्य सरकारों की यह निर्भरता केंद्र सरकार से कहीं ज्यादा है। इस निर्भरता को कम करके पेट्रोलियम क्षेत्रों पर लदे ऊँचे करों के बोझ को तार्किक बनाये जाने की जरूरत थी। मगर केंद्र सरकार का ताजा फैसला बता रहा है कि वह तात्कालिक फायदे को ही प्राथमिकता दे रही है, पेट्रोलियम क्षेत्र में संरचनात्मक सुधार को नहीं।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2014)

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