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कार्रवाई में देरी से फँसे करोड़ों निवेशक

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Category: सितंबर 2014

राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :

आखिरकार सेबी ने 22 अगस्त 2014 को पर्ल समूह की कंपनी पीएसीएल को तीन महीने के अंदर निवेशकों का 49,100 करोड़ रुपये वापस करने का आदेश दे दिया। 

यह देश का अब तक का सबसे बड़ा पोंजी घोटाला है। इससे पहले सेबी ने सहारा समूह को निवेशकों के 24,000 करोड़ रुपये वापस करने का आदेश दिया था। प. बंगाल के शारदा घोटाले पर भी अब सीबीआई का शिकंजा दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस घोटाले में पोंजी स्कीमों के चलते निवेशकों के 30,000 करोड़ रुपये की आशंका है। पर पर्ल समूह के घोटाले से यह यक्ष प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ है कि सेबी और अन्य न्यायिक संस्थाओं ने समय पर कारगर कदम नहीं उठाये। इससे पर्ल समूह को अपना विवादित साम्राज्य फैलाने का भरपूर मौका मिला। विधि-शा का सर्वमान्य सिद्धांत है कि न्याय में देरी का मतलब न्याय को नकारना है। सहारा समूह के मामले में सेबी और सर्वोच्च न्यायालय ने जो तत्पररता और कड़ाई दिखायी, वह पर्ल समूह की धरपकड़ में नजर नहीं आती है।
सेबी ने अपने 92 पृष्ठों के आदेश में बताया है कि पर्ल समूह की कंपनी पीएसीएल की धन जुटाने की योजना सामूहिक निवेश योजना (सीआईएस) के आती है, जिसके लिए कंपनी ने सेबी से कोई अनुमति नहीं ली। सेबी ने बताया है कि इस कंपनी को 5.83 करोड़ निवेशकों को यह विशाल रकम लौटानी है। सेबी ने इस आदेश में कहा है कि यह राशि 49,100 करोड़ रुपये से भी अधिक हो सकती है, यदि यह कंपनी 1 अप्रैल 2012 से फरवरी 2013 तक जुटायी गयी राशि की भी जानकारी मुहैया करा दे। 
सेबी की निगाह में यह प्रकरण मार्च 1998 में ही आ गया था और उसने इस कंपनी की धन जुटाने की योजनाओं को सामूहिक निवेश योजना करार दे दिया था। लेकिन इस कंपनी ने साफ इन्कार कर दिया कि वह सेबी के दायरे में नहीं आती है, क्योंकि उनकी योजना सामूहिक निवेश योजना नहीं है बल्कि वह जमीन खरीदने-बेचने का धंधा करती है। जून 2002 में सेबी ने आदेश पारित किया कि पीएसीएल की धन जुटाने की योजनाएँ सीआईएस के दायरे में हैं। इस कंपनी ने 2002 में ही राजस्थान उच्च न्यायालय में सेबी के आदेश के खिलाफ मुकदमा दायर किया और नवंबर 2003 में उच्च न्यायालय ने पीएसीएल की योजनाओं को सीआईएस के दायरे के बाहर माना।
उच्च न्यायालय के निर्णय के खिलाफ सेबी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। फरवरी 2013 में शीर्ष न्यायालय ने राजस्थान उच्च न्यायालय का फैसला रद्द कर दिया और सेबी को आगे कार्रवाई करने को कहा। इसके फलस्वरूप 22 अगस्त 2014 को सेबी का यह फैसला सामने आया है। तीन महीने के निर्दिष्ट समय के अंदर इस कंपनी ने निवेशकों की रकम नहीं लौटायी तो सेबी कंपनी के खिलाफ राज्यों की पुलिस से आपराधिक षडयंत्र और धोखाधड़ी की धाराओं के तहत कार्रवाई करने को कहेगी। इस आदेश में सेबी ने अचरज जताया है कि उत्तर प्रदेश का एक छोटा निवेशक 2000 किलोमीटर दूर 100-150 या 500 गज का भूखंड ले कर क्या करेगा!
इस संदर्भ में टाइम्स ऑफ इंडिया ने 25 जून 2010 को एक बेहद चौंकाने वाली रिपोर्ट छापी इस रिपोर्ट के अनुसार भारत-पाक सीमा से सटे बाड़मेर जिले की शियोपुर तहसील में 2002 और 2003 में 681 सौदों में 10,000 एकड़ जमीन इस कंपनी ने खरीदी थी। इसी अखबार की एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया कि इस जिले में कंपनी के पास 400 वर्ग किलोमीटर जमीन है, जो सैन्य दृष्टि से अति संवेदनशील हैं। इस क्षेत्र में भारतीय वायुसेना का हवाईअड्डा है, जहाँ जेट लड़ाकू विमान हमला करने की मुद्रा में हमेशा तैयार खड़े रहते हैं। यह ऐसा क्षेत्र है, जहाँ तिनका पैदा करना भी दुष्कर है, रहना तो और भी दूभर है। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि न राज्य सरकार ने, न केंद्र सरकार ने न ही रक्षा विभाग ने इस ध्यान देना आवश्यक समझा।
इकोनॉमिक टाइम्स ने भी जून 2011 में इस कंपनी के बारे में चौंकाने वाली कई जानकारियाँ दीं। उसकी रिपोर्ट के अनुसार कंपनी के भू-बैंक में 1.80 लाख एकड़ जमीन है, जो क्षेत्रफल के हिसाब से बेंगलूरु महानगर के क्षेत्रफल से ज्यादा है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि कंपनी के 50 लाख निवेशक हैं और उनके 200,000 करोड़ रुपये कंपनी में जमा हैं। यानी 2011 और 2014 के बीच कंपनी के निवेशकों की संख्या 50 लाख से बढ़ कर 5.83 करोड़ हो गयी और जमा राशि 49,100 करोड़ रुपये। यदि समय रहते इस कंपनी पर कारगर कार्रवाई हो गयी होती तो करोड़ों निवेशकों का पैसा फँसने से बच जाता।
(निवेश मंथन, सितंबर 2014)

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