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आरबीआई के फैसले से क्यों चौंके सिन्हा!

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Category: फरवरी 2014

राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :

काला धन एक बार फिर सुर्खियों में है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 2005 से पहले की करेंसी को वापस लेने का औचक निर्णय लिया है। इससे बैंकों के काउंटरों पर निकट भविष्य में भीड़ जुटना लाजमी है। आरबीआई और वाणिज्यिक बैंकों ने करेंसी वापसी के इस निर्णय के लिए मुकम्मल तैयारियाँ नहीं की तो आम जन के बीच दहशत फैलने की आशंका होगी, क्योंकि अफवाहें ध्वनि की गति से भी तेज फैलती हैं। बेहद ठंडे और सामान्य ढंग से आरबीआई ने 2005 से पूर्व के करेंसी नोटों को वापसी लेने की घोषणा की, तो उससे चौंकना स्वाभाविक है, वह भी लोक सभा चुनावों के पहले। सब जानते हैं कि चुनावों में उम्मीदवार काले धन का जम कर इस्तेमाल करते हैं।
निस्संदेह आरबीआई का यह कदम स्वागत योग्य है। इसके इतिहास में पहली बार इतने व्यापक पैमाने पर पुराने नोटों की अदला-बदली होगी। इससे पहले 1978 में आरबीआई ने बड़े नोटों का विमुद्रीकरण, यानी उन्हें रद्द किया था। इस निर्णय से निश्चय ही करेंसी जमाखोरों और जालसाजों पर नकेल कसेगी।
मजेदार बात यह है आरबीआई की इस पहल से सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हा भी भौंचक हैं। इस निर्णय के एक दिन बाद हुए एक समारोह में उन्होंने आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन से पूछ ही लिया कि लोक सभा चुनाव से पहले इस निर्णय का क्या महत्व है? राजन ने दो टूक कहा कि पुराने नोटों की वापसी के निर्णय का चुनावों से कोई लेना-देना नहीं है। लंबे अरसे से यह बात उठ रही थी कि 2005 से पहले की करेंसी में सुरक्षा कवच कम हैं, इसलिए उन्हें वापस लिया जाये। राजन ने कहा कि मैं समझ सकता हूँ कि इस पहल के तमाम अर्थ निकाले जा रहे हैं, लेकिन मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। इस पहल के बाद भी 2005 के पहले की करेंसी की कानूनी मान्यता बनी रहेगी, मगर केवल बैंक ही ऐसे पुराने नोट स्वीकार कर सकेंगे।
असल में 2005 से निर्गमित करेंसी में नकली और असली की पहचान करना सुगम है। रिजर्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार, 31 मार्च 2013 तक 7,351 करोड़ करेंसी नोट प्रचलन में थे। इनमें से 14.6% नोट 500 रुपये और 5.9% 1000 रुपये के थे। रिजर्व बैंक समेत अन्य बैंकों को भी उम्मीद है कि इन नोटों की अदला-बदली में कोई खास दिक्कत नहीं आयेगी। बैंकरों का कहना है कि करेंसी नोटों का जीवन चक्र अमूमन १० साल का होता है। इस निर्णय से जाली करेंसी की रोकथाम में मदद मिलेगी, इससे कोई भी जानकार असहमत नहीं है।
इससे काले धन पर कितनी लगाम लग पायेगी, यह कहना जरा मुश्किल है। लेकिन अब करेंसी जमाखोरों के पास यही विकल्प है कि वे या तो बैंकों में जाकर करेंसी बदलें या खर्च करें। इससे मुद्रा के बहाव नियंत्रित करने में सहूलियत होगी। इसलिए रिजर्व बैंक के सुविचारित निर्णय का प्रभाव जमा काले धन पर भी छलकेगा।
वैसे लोक सभा चुनावों से ठीक पहले काले धन का यह शिगूफा मतदाताओं को रिझाने का मंत्र मान लिया गया है। 2009 के लोक सभा चुनावों के समय विदेशों में जमा काला धन लाने के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने चुनावी बिगुल बजाया था। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने भी दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में विदेशों में जमा काले धन को लाने की कसमें खायी हैं।
देश के काले धन के अनुमान को लेकर कई सरकारी और गैर-सरकारी अध्ययन हुए हैं। पर विडंबना यह है कि काले धन के अनुमानों में भारी अंतर है। जेएनयू के प्रोफेसर अरुण कुमार ने काले धन पर उल्लेखनीय काम किया है। उनके अनुसार देश में सृजित काले धन की मात्र सकल घरेलू उत्पाद के 50% के तुल्य है, यानी लगभग 55 लाख करोड़ रुपये। इसमें से आधे से ज्यादा काला धन सोने, निवेश और अवमूल्यित संपत्तियों आदि के रूप में हैं। इसमें से थोड़ा सा हिस्सा करेंसी के रूप में लॉकरों में या अन्यत्र छिपा हुआ है। इस काले धन का तकरीबन १०% हिस्सा विदेश चला जाता है, जिसमें कुछ हिस्सा उपभोग में इस्तेमाल कर लिया जाता है और शेष हिस्सा गुप्त विदेशी खातों या परिसंपत्तियों के रूप में जमा है।
मूल सवाल यह है कि क्या विदेश में जमा काला धन लाना आसान काम है? बेहतर है कि देश में ही काले धन के स्रोतों पर शिकंजा कसा जाये। पर मौजूदा परिदृश्य में क्या यह संभव है? राजनेता, नौकरशाह और कारोबारी ही काले धन के सबसे बड़े पोषक, सृजक और संरक्षक हैं। शायद इसीलिए आरबीआई की यह पहल सीबीआई के निदेशक को हैरानी में डाल देती है!
(निवेश मंथन, फरवरी 2014)

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