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मुक्त बॉण्ड समय-पूर्व निकासी के नुकसान

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Category: जनवरी 2014

आलोक द्विवेदी :

सरकारी क्षेत्र की कंपनी इंडिया इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस कंपनी (आईआईएफसीएल) का कर-मुक्त (टैक्स-फ्री) बॉण्ड निवेश के लिए उपलब्ध है।

आईआईएफसीएल के 10 सालों की अवधि वाले बॉण्ड की कूपन दर 8.66%, 15 सालों की अवधि वाले बॉण्ड की कूपन दर 8.73% और 20 सालों की अवधि वाले बॉण्ड की कूपन दर 8.91% है। इसका मतलब यह कि 10 सालों के बॉण्ड में निवेश करने वाले निवेशक को हर साल 8.66%, 15 सालों के बॉण्ड पर हर साल 8.73% और 20 सालों के बॉण्ड पर हर साल 8.91% कर-मुक्त रिटर्न मिलेगा। आईआईएफसीएल ने इश्यू का 40% खुदरा निवेशकों के लिए आरक्षित रखा है। गौरतलब है कि उन लोगों को खुदरा निवेशक कहा जाता है जो लोग 10 लाख रुपये से कम निवेश करते हैं। इन बॉण्डों को बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज बीएसई पर सूचीबद्ध किया जायेगा।
इसके अलावा हाउसिंग ऐंड अर्बन डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (हुडको) के कर-मुक्त बॉण्ड भी निवेश के लिए उपलब्ध हैं। जहाँ तक खुदरा निवेशकों के लिए इन बॉण्ड की कूपन दरों का सवाल है, 10 सालों की अवधि वाले बॉण्ड की कूपन दर 8.76%, 15 सालों की अवधि वाले बॉण्ड की कूपन दर 8.83% और 20 सालों की अवधि वाले बॉण्ड की कूपन दर 9.01% है। आईसीआईसीआई सिक्योरिटीज का कहना है कि कूपन दरों की यह पेशकश कर-मुक्त बॉण्ड के इतिहास में अब तक की सबसे अधिक है। वैसे तो इस इश्यू की अंतिम तारीख 10 जनवरी 2014 है, लेकिन यदि यह पूरा सब्सक्राइब हो गया तो इससे पहले भी बंद किया जा सकता है।
लेकिन यदि आप इन बॉण्डों में निवेश नहीं कर सके तो भी परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि अभी कई ऐसी सरकारी/अद्र्धसरकारी कंपनियों के बॉण्ड बाजार में आने बाकी हैं। दरअसल अगस्त 2013 में केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) ने 13 कंपनियों को कर-मुक्त बॉण्ड के जरिये बाजार से 48,000 करोड़ रुपये जुटाने की इजाजत दी थी और कंपनियाँ बारी-बारी अपने बॉण्ड इश्यू बाजार में उतार रही हैं। नेशनल हाउसिंग बैंक (एनएचबी) का कर-मुक्त बॉण्ड इश्यू 30 दिसंबर 2013 से खुल रहा है। नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) का कर-मुक्त बॉण्ड इश्यू जनवरी 2014 के दूसरे हफ्ते में खुलने की संभावना है।
खुदरा निवेशकों को ये बॉण्ड काफी पसंद आते हैं। इसकी पहली वजह यह है कि इनसे मिलने वाली ब्याज आय पर आय कर नहीं लगता। इसका मतलब यह कि इनसे मिलने वाला रिटर्न काफी आकर्षक होता है। दूसरी बात, चूँकि ये सरकारी/अद्र्धसरकारी कंपनियों द्वारा जारी किये जाते हैं, ऐसे में क्रेडिट जोखिम काफी कम होता है। लेकिन दिक्कत यह है कि ये बॉण्ड लंबी परिपक्वता अवधि के होते हैं और परिपक्वता से पहले इनसे निकलने की अनुमति नहीं होती।
ऐसे में निवेशकों को इनसे बाहर निकलने का रास्ता देने के लिए ही इनको द्वितीयक बाजार (सेकेंडरी मार्केट) में सूचीबद्ध किया जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन बॉण्डों को स्टॉक एक्सचेंजों पर भी खरीदा-बेचा जा सकता है। सर्टिफाइड फाइनेंशियल प्लानर अर्णव पांड्या बताते हैं, ‘लिक्विडिटी के लिए इन्हें स्टॉक एक्सचेंजों में सूचीबद्ध किया जाता है। चूँकि उस कर-मुक्त बॉण्ड की परिपक्वता अवधि के अनुरूप निवेशक का निवेश 10 या 15 या 20 सालों के लिए लॉक-इन हो जाता है, ऐसे में इस स्थिति से बचने के लिए इन कर-मुक्त बॉण्डों को सूचीबद्ध किया जाता है।' सर्टिफाइड फाइनेंशियल प्लानर अनिल कौल के अनुसार, ‘निवेशकों के लिए यह अच्छी सुविधा है क्योंकि कभी-कभी उन्हें अचानक पैसों की जरूरत पड़ जाती है।'
लेकिन निवेशकों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि स्टॉक एक्सचेंजों पर सूचीबद्ध होने के बावजूद इनमें पर्याप्त लिक्विडिटी का अभाव होता है। इसकी प्रमुख वजह है इसकी लंबी परिपक्वता अवधि। पांड्या बताते हैं, ‘इनके सूचीबद्ध होने की वजह से निवेशक चाहें तो इन्हें बेच सकते हैं लेकिन इस बात की गारंटी नहीं है कि आज आप बेचने गये तो आपको कोई खरीदार मिलेगा। हो सकता है कि तीन-चार दिनों बाद आपको कोई खरीदार मिले। यानी आपको इंतजार करना पड़ सकता है।'
अगर बॉण्ड धारक को पैसे की जरूरत पड़ती है और वह इसको भुनाना चाहता है तो इसको वही निवेशक खरीदेगा जिसको आज की तारीख पर ज्यादा यील्ड-टू-मैच्योरिटी (बॉण्ड को परिपक्वता अवधि तक रखने पर मिलने वाला रिटर्न) मिलेगा। स्टॉक एक्सचेंज पर एक खरीदार होता है और एक विक्रेता होता है। और खरीदार जिस दर की पेशकश करेगा, उसी पर विक्रेता को बेचना पड़ेगा। ऐसे में इस बात की अधिकतम संभावना होती कि खरीदार उस विक्रेता के मुताबिक दर की पेशकश न करे और उससे कम दर की पेशकश करे। कोई खरीदार किसी विक्रेता से स्टॉक एक्सचेंज पर यह बॉण्ड तभी खरीदेगा जब उसको मार्केट से अधिक यील्ड-टू-मैच्योरिटी मिलेगा। यानी स्टॉक एक्सचेंज पर इस बॉण्ड की बिक्री को डिस्ट्रेस सेल कह सकते हैं। आम तौर पर म्यूचुअल फंड कंपनियाँ ही इनकी खरीदार होती हैं। जब इनको बेहतर यील्ड-टू-मैच्योरिटी पाने का मौका मिलता है, तो वे इन्हें खरीद लेती हैं।
स्टॉक एक्सचेंज पर सूचीबद्ध किये जाने के बाद इनकी लिक्विडिटी की समस्या तो कमोबेश खत्म हो जाती है, लेकिन परिपक्वता अवधि तक बने रहने के बराबर रिटर्न यहाँ नहीं आता। हो सकता है कि बिक्री के बाद निवेशक को अपने मूल निवेश से भी कम पूँजी वापस मिले। पांड्या के अनुसार, ‘स्टॉक एक्सचेंज पर इन्हें बेच कर निकलने की सोचने वाले निवेशकों को घाटा भी हो सकता है। उनको घाटा होगा या मुनाफा यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किन स्तरों पर ट्रेड कर रहा है। आम तौर पर इसे डिस्काउंट पर ही बेचना पड़ता है क्योंकि इसके इंट्रेस्ट में प्राइस फैक्टर-इन किया जाता है।' हालाँकि ऐसा हमेशा नहीं होता। कौल के अनुसार, ‘उसे घाटे पर बेचना पड़ेगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस समय ब्याज दरों का परिदृश्य कैसा है, यानी उस समय ब्याज दरें कितनी चल रही हैं।'
पांड्या बताते हैं, ‘जो निवेशक इन बॉण्ड को स्टॉक एक्सचेंज पर बेच देता है उसके लिए कर-मुक्त स्थिति भी खत्म हो जाती है। बेचने के बाद अगर उसे कैपिटल गेन हुआ तो अवधि के हिसाब से उसे शॉर्ट टर्म या लांग टर्म कैपिटल गेन कर देना पड़ सकता है। लेकिन इस खरीद-बिक्री के बाद बॉण्ड का जो नया धारक होता है उसको मिलने वाले ब्याज पर कोई कर नहीं लगता।'
(निवेश मंथन, जनवरी 2014)

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