नरेंद्र तनेजा, ऊर्जा विश्लेषक :
सीरिया को लेकर अंतरराष्ट्रीय तनाव हाल में कुछ कम भले ही हुआ है, मगर इसे केवल एक विराम समझना चाहिए।
अभी मसला हल नहीं हुआ है। मुझे नहीं लगता है कि सीरिया पर हमले की संभावनाएँ घट गयी हैं। इतना जरूर है कि सीरिया को कुछ महीनों का समय मिल गया है। अमेरिकी प्रशासन तो सीरिया पर आक्रमण के पक्ष में था, लेकिन खुद अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा इसमें व्यक्तिगत रूप से कुछ हिचक रहे थे। उन्हें भी थोड़ा समय मिल गया है। लेकिन अंतत: अमेरिका वहाँ जो करना चाहता है, उसकी दिशा में आगे बढ़ेगा।
इसलिए आने वाले हफ्तों और महीनों में मध्य-पूर्व में सीरिया एक उबाल-बिंदु बना रहेगा। पिछले तीन महीनों से इस क्षेत्र में जिस तनाव के चलते अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें ऊपर गयीं, वह अभी कम होने वाला नहीं है। फौरी तौर पर तेल की कीमतें कुछ घटी हैं, पर ऐसा नहीं है कि सब कुछ ठीक हो गया और दाम 100 डॉलर प्रति बैरल से नीचे आ गये हों। दाम केवल इस बात से घटे हैं कि सीरिया पर हमला फिलहाल कुछ समय तक नहीं होगा।
तेल की कीमतें अभी बहुत नहीं घटेंगी, क्योंकि ऐसा नहीं है कि सीरिया में शांति आ गयी है। सीरिया का लगभग आधा हिस्सा विद्रोहियों के हाथ में है, जिनके पीछे अरब के ही कुछ देश हैं। वे चुप बैठने वाले नहीं हैं। अल-कायदा भी वहाँ काफी सक्रिय है। अगले करीब एक महीने में स्थिति ज्यादा साफ हो सकेगी। फिलहाल कुछ हफ्तों तक तेल की कीमतें 104-116 डॉलर प्रति बैरल के ही दायरे में ऊपर-नीचे होती रहेंगी।
सीरिया की अहमियत वैश्विक तेल बाजार में हिस्सेदारी के लिहाज से नहीं है। दुनिया के कुल तेल भंडार में सीरिया का 0.5% ही योगदान है। सीरिया का कुल तेल निर्यात-आयात चार अरब डॉलर का है, जो कुछ खास नहीं है। तेल उत्पादन या इसके निर्यात की दृष्टि से सीरिया की अहमियत नहीं है। सीरिया का महत्व उसके भौगोलिक परिदृश्य से है। मध्य-पूर्व के भौगोलिक नक्शे के हिसाब से सीरिया की स्थिति बहुत बढिय़ा है। अगर सीरिया के पश्चिम यूरोप के साथ अच्छे संबंध हों तो यूरोप के देशों को मध्य-पूर्व का तेल आसानी से प्राप्त हो सकता है। ईरान का तेल पश्चिम के बाजारों में ले जाने के लिए सीरिया सबसे अच्छा रास्ता है। सीरिया का समुद्र गहरा है, जिसमें बंदरगाह बना कर जहाजों के माध्यम से पश्चिमी देशों तक तेल ले जाया जा सकता है। ईरान और सीरिया में गैस पाइपलाइन का निर्माण चल रहा है। इराक आने वाले समय में दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश बनेगा। इराक के तेल को पश्चिम के बाजारों, जैसे इटली, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस वगैरह तक ले जाने का सबसे बढिय़ा रास्ता सीरिया से होकर ही है। ईराक से पाइपलाइन के जरिये सीरिया में बंदरगाह से समुद्री जहाज के माध्यम से तेल-गैस को ले जाया जा सकता है। यह रास्ता बहुत छोटा है। इसके उल्टे, आज कल जहाज अफ्रीका का पूरा चक्कर लगा कर यूरोप पहुँचते हैं।
इराक, कतर, सऊदी अरब जैसे देशों का तेल निर्यात ईरान की राजनीति पर निर्भर करता है। ईरान के साथ दुनिया के तनाव से तेल निर्यात के सारे समुद्री रास्तों में अड़चनों का सामना करना पड़ेगा, जबकि सीरिया का रास्ता सभी के लिए उपयुक्त है। सऊदी अरब, इराक और ईरान का तेल सीरिया की पाइपलाइन के माध्यम से आसानी से निकल सकता है।
सीरिया को लेकर अमेरिका की परेशानी केवल उसके रासायनिक हथियारों से नहीं है। उसकी परेशानी यह भी है कि सीरिया के शासक अल असद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चलने वाले शीत युद्ध के समय की कूटनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं। अमेरिका उन्हें सत्ता से पूरी तरह हटाना भी नहीं चाहता है, लेकिन उसका मकसद यह है कि अल असद की शक्ति कमजोर हो जाये, जिससे वे अमेरिका पर निर्भर हो जायें।
सीरिया के मौजूदा शासन से अमेरिका, पश्चिम यूरोप और मध्य पूर्व के देश खासतौर से सऊदी अरब और कतर परेशान रहते हैं, क्योंकि सीरिया की राजनीति और विचारधारा दूसरे देशों से अलग है। सीरिया एक मुस्लिम देश है, लेकिन वह धर्मनिरपेक्ष है। सीरिया की सांस्कृतिक परंपरा काफी हद तक अब भी धर्मनिरपेक्ष है। सीरिया की सत्ता में शिया हैं, लेकिन वहाँ ज्यादा आबादी सुन्नी की है। मध्य-पूर्व के देश यह चाहते हैं कि सीरिया में ऐसे लोग सत्ता में आयें जो उनके साथ-साथ पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के भी हितैषी हों। यदि ऐसा नहीं हो सके तो उनकी इच्छा होगी कि सीरिया के टुकड़े हो जायें, एक हिस्सा सुन्नी और एक शिया के पास चला जाये।
कुल मिला कर मध्य-पूर्व में तनाव आने वाले समय में वहाँ के भूगोल को बदलने की लड़ाई के चलते है। अमेरिका की मध्य-पूर्व में स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है। उसे मध्य-पूर्व के तेल की ज्यादा जरूरत नहीं है। वह वहाँ तेल की वजह से नहीं, इस्रायल की वजह से रहेगा। वह अपने निवेश की सुरक्षा बढ़ाने के लिए और आतंकवाद से अमेरिका एवं पश्चिम यूरोप को होने वाले खतरे पर निगरानी रखने के मकसद से रहेगा। कुल मिला कर मध्य-पूर्व में अमेरिका की भूमिका सीमित रहेगी। हालाँकि आने वाले समय में अमेरिका मध्य-पूर्व से हटेगा। इसी वजह से सऊदी अरब, यूएई, कतर, तुर्की और कुवैत जैसे देशों में बेचैनी है। यहाँ तेल के विशाल भंडार हैं। यदि अमेरिका यहाँ से हटता है तो इस बात पर चिंता बनी रहेगी कि इन देशों में कौन शासन करेगा, क्योंकि ईरान, तुर्की, रूस, चीन सभी यहाँ अपनी बादशाहत बनाना चाहते हैं।
आने वाले समय में मुझे लगता नहीं कि सीरिया में अमेरिकी हमले का रूस और चीन एक हद से ज्यादा विरोध करेंगे। यदि सर्जिकल ऑपरेशन सफल होता है, जिसमें इस्रायल पर हमला करने की सीरिया की सेना की शक्ति को पहली चोट में ही खत्म कर दिया जाये, तो ऐसे युद्ध की स्थिति में तेल की कीमतें 7 से लेकर 12 डॉलर प्रति बैरल तक ही ऊपर जायेंगी। लेकिन यदि सीरिया इस्रायल पर हमला कर दे और बदले में इस्रायल भी पलट वार कर दे तो तेल की कीमत 165 डॉलर प्रति बैरल तक ऊपर चली जायेगी। लेकिन लगता नहीं कि यह युद्ध पूरे मध्य-पूर्व में फैलेगा, इसलिए संभावना यही है कि युद्ध ज्यादा लंबा नहीं चलेगा। अमेरिका, इस्रायल और ईरान इसे बड़ा युद्ध नहीं बनाना चाहते।
यह पूरा युद्ध उपग्रहों के माध्यम से मिसाइल से लड़ा जायेगा। ये सर्जिकल ऑपरेशन होगा, जिसमें पैदल सेना नहीं उतारी जायेगी। अमेरिका अपनी फौज नहीं भेजेगा। सीरिया अमेरिका के मुकाबले बहुत छोटा देश है और उसकी शक्ति सीमित है। आर्थिक हिसाब से देखें तो सीरिया का कुल जीडीपी मात्र 65 अरब डॉलर है। दूसरे शब्दों में कहें तो सीरिया रिलायंस से भी छोटा है। यह इंडियन ऑयल का मात्र 75% है। सीरिया में अमेरिका ने पूरा होमवर्क कर लिया है और उसे पूरा विश्वास है कि यह सर्जिकल ऑपरेशन सफल होगा। अमेरिका चाहेगा कि वह पहले ही हमले में सीरिया की पलट कर हमला करने की क्षमता को नष्ट कर दे। पूरी संभावना है कि हमला ऐसा जबरदस्त होगा कि वह सीरिया को स्तब्ध कर दे। अगर सीरिया इस्रायल पर रासायनिक हमला करता है तो युद्ध बेकाबू हो जायेगा, लेकिन इसकी संभावना बहुत कम है।
भारत के लिए मुसीबत यह है कि मध्य-पूर्व हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण इलाका है। हमारा दो-तिहाई तेल मध्य-पूर्व से आता है। हमारे लगभग 70-80 लाख भारतीय वहाँ रहते हैं, जो हर साल 60-70 अरब डॉलर भारत को भेजते हैं। भारत के भुगतान संतुलन और चालू खाते को सँभालने में बड़ी भूमिका मध्य-पूर्व में रहने वाले भारतीयों की है। भारत के लिए सबसे अहम क्षेत्र अमेरिका, चीन या यूरोप नहीं, बल्कि मध्य-पूर्व है। भारत और मध्य-पूर्व के बीच का कुल आर्थिक लेनदेन सालाना 180 अरब डॉलर का है, जिसमें भारत के वहाँ से आयात, भारत का मध्य-पूर्व को निर्यात और मध्य-पूर्व में रहने वाले भारतीयों की भेजी गयी विदेशी मुद्रा शामिल है। इसलिए मध्य-पूर्व में कोई तनाव भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बहुत नकारात्मक होगा।
अमेरिका भारत के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन भारत सीरिया पर हमले का समर्थन नहीं कर सकता। भारत वहाँ युद्ध नहीं चाहता। भारत के लिए यह बेहद बुरी स्थिति होगी कि इस खराब समय में यह युद्ध छिड़ जाये। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा। रुपया तेजी से लुढ़केगा, चालू खाता घाटा बढ़ेगा, तेल की कीमत बढ़ेगी और सरकार पर ऐसे कदम उठाने का दबाव बढ़ेगा, जिससे देश में तेल की उपलब्धता को कम किया जा सके। हालाँकि राशनिंग की नौबत नहीं आयेगी, पर तेल की आपूर्ति सीमित हो जायेगी। यदि युद्ध लंबा चला तो पेट्रोल की कीमत 100 रुपये प्रति लीटर जा सकती है।
युद्ध की स्थिति में सऊदी अरब और कुवैत सीधे तौर पर सीरिया के खिलाफ खड़े हो जायेंगे, जबकि ईरान सीरिया का साथ देगा। जिन देशों के शासक सुन्नी हैं वे सीरिया के खिलाफ होंगे, जबकि शिया शासक वाले देश सीरिया का साथ देंगे। मुख्यत: सीरिया के साथ ईरान ही एक बड़ा देश होगा, जबकि पीछे से रूस उसका समर्थन कर सकता है।
ईरान में नयी सरकार आयी है। ईरान अमेरिका बातचीत पिछले दरवाजे से लगभग शुरू हो गयी है, जिसमें ओमान मध्यस्थता कर रहा है। ओमान में भारत, अमेरिका और ईरान के संबंध स्थापित हुए हैं। इसलिए मुझे नहीं लगता कि ईरान सीरिया को लेकर सीधे युद्ध लड़ेगा। वह समर्थन दे सकता है, छद्म युद्ध कर सकता है, हथियार दे सकता है, लेकिन जमीनी लड़ाई नहीं लड़ेगा। आज सीरिया में 50% सत्ता सरकार और 50% विद्रोहियों के हाथ में है। विद्रोहियों में अलकायदा और जेहादी सभी शामिल हैं और गृह युद्ध चल रहा है। मुझे नहीं लगता कि ईरान इसमें शामिल होना चाहेगा।
भारत के सामने इस मुश्किल स्थिति से बचने का कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था कमजोर हो गयी है। हमारे पास वैसी सैन्य शक्ति या कूटनीतिक शक्ति नहीं है कि हम वहाँ कोई बड़ी भूमिका निभा सकें। तेल का सुरक्षित भंडार बनाना भी आसान नहीं है, क्योंकि इसके लिए बहुत पैसे की जरूरत होती है। दो महीनों के लिए तेल भंडार रखना चाहें तो आपको 35 अरब डॉलर की रकम फँसानी पड़ेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था में अभी इतनी क्षमता नहीं है कि वह 35 अरब डॉलर बिना किसी लाभ के अटका कर रख सके। हम सिर्फ उम्मीद कर सकते हैं कि सीरिया युद्ध अगर छिड़े तो यह सीमित हो और जल्दी निबट जाये।
(निवेश मंथन, सितंबर 2013)