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जमीन कम, नकदी कम, दाम ज्यादा

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Category: सितंबर 2013

सुशांत शेखर :

जमीन अधिग्रहण के नये कानून और आवास ऋण (होम लोन) की 80:20 योजना पर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की सख्ती से देश में जमीन-जायदाद (रियल एस्टेट) क्षेत्र की कंपनियों की मुश्किलें और बढऩे जा रही हैं।

भूमि अधिग्रहण कानून से न सिर्फ रियल एस्टेट, बल्कि दूसरे उद्योगों के लिए भी जमीन मिलना बहुत मुश्किल हो जायेगा। नया कानून लागू होने से जमीन की लागत कई गुना तो बढ़ ही जायेगी, साथ ही इसमें कई तरह की कानूनी जटिलताएँ भी बढेंगी।
भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक 2011 को लोक सभा और राज्य सभा की मंजूरी मिल चुकी है। यह कानून किसानों को बेहतर मुआवजे और पुनर्वास का भरोसा देता है। लेकिन इसकी सख्त शर्तों ने उद्योग जगत की नींद उड़ा दी है।
भूमि अधिग्रहण की शर्तें
यह कानून शहरी इलाकों में 50 एकड़ और ग्रामीण इलाकों में 100 एकड़ जमीन के अधिग्रहण के मामले में लागू होगा। इसके मुताबिक गाँवों में अधिग्रहण की जमीन के बदले बाजार भाव का चौगुना और शहरों में दोगुना मुआवजा मिलेगा।
निजी कंपनियों के लिए 80% जमीन मालिकों की मंजूरी जरूरी होगी, जबकि सरकारी-निजी साझेदारी यानी पीपीपी परियोजनाओं के लिए 70% जमीन मालिकों की मंजूरी लेनी होगी। सरकारी परियोजनाओं के लिए ऐसी मंजूरी की जरूरत नहीं होगी।
पूरे मुआवजे का भुगतान नहीं होने तक जमीन मालिकों को नहीं हटाया जायेगा। साथ ही जो पुराने अधिग्रहण अभी पूरे नहीं हुए हैं, उन पर भी अब मुआवजा नये कानून के हिसाब से मिलेगा। अगर पाँच साल में परियोजना शुरू नहीं हो पाती है तो अधिग्रहण खारिज हो जायेगा और जमीन वापस भूस्वामी को मिल जायेगी।
जमीन अधिग्रहण के लिए कंपनियों को मुआवजे के साथ-साथ प्रभावित होने वाले लोगों के पुनर्वास खर्च भी देना होगा। प्रभावित परिवार के एक सदस्य को नौकरी या पाँच लाख रुपये या 20 साल तक हर माह 2,000 रुपये देने होंगे। कंपनी को प्रभावित परिवार को परिवहन मुआवजे के तौर पर 50,000 रुपये देने होंगे। साथ ही रीसेटलमेंट भत्ते के तौर पर भी इतनी ही रकम देनी होगी। अगर अधिग्रहण के दौरान किसी का मकान तोड़ा जाता है तो उसे कम-से-कम 50 वर्ग मीटर का मकान बना कर देना होगा।
उद्योग नाराज, किसान भी संतुष्ट नहीं
नये जमीन अधिग्रहण कानून की उद्योग जगत ने कड़ी आलोचना की है। उद्योग संगठन सीआईआई ने अपने बयान में कहा कि इससे जमीन की लागत 3 गुना से ज्यादा बढ़ जायेगी। साथ ही पुनर्वास पर खर्च भी इतना ही बढ़ेगा। इसके अलावा 80% किसानों से मंजूरी लेने की प्रक्रिया लंबी होगी। इससे जमीन अधिग्रहण बहुत मुश्किल हो जायेगा। उद्योग संगठन एसोचैम ने भी कहा है कि इससे सुस्ती के दौर से गुजर रहे उद्योग जगत की मुश्किलें और बढ़ेंगी। साथ ही कंपनियों की विस्तार योजनाओं पर भी इसका असर पड़ेगा। उद्योग जगत को लगता है कि नया कानून लागू होने के बाद जमीन अधिग्रहण को लेकर अदालतों के चक्कर और ज्यादा काटने पड़ेंगे।
निश्चित रूप से यह नया कानून किसानों के हितों को सबसे ऊपर रखता है। लेकिन इसके प्रावधानों से किसान भी पूरी तरह संतुष्ट हों, ऐसा नहीं है। किसान नेताओं के मुताबिक जमीन अधिग्रहण को लेकर पहले के मुकाबले ज्यादा कानूनी मुश्किलें खड़ी होंगी। उनकी एक मुख्य आपत्ति यह है कि इस कानून में सर्किल रेट को ही बाजार भाव माना गया है। हकीकत में सर्किल रेट और बाजार भाव में काफी फर्क होता है। लेकिन वास्तव में इसी फर्क को ध्यान में रख कर मुआवजे की राशि गाँवों में चौगुनी और शहरों में दोगुनी रखने का फैसला किया गया है।
नहीं चलेगी 80:20 स्कीम
रियल एस्टेट क्षेत्र को दूसरी बड़ी मार आवास ऋणों पर रिजर्व बैंक की सख्ती से पड़ी है। तेजी से लोकप्रिय हो रही 80:20 योजना पर रिजर्व बैंक ने रोक लगा दी है। आवास ऋण की पूरी राशि एकमुश्त जारी करने से जुड़े जोखिम के कारण रिजर्व बैंक ने यह रोक लगायी और बैंकों को इन पर कर्ज नहीं देने का निर्देश दिया है। आरबीआई ने कहा है कि बैंक जमीन-जायदाद की परियोजनाओं में निर्माण की प्रगति के आधार पर ही कर्ज दें।
कुछ बैंक रियल एस्टेट कंपनियों के साथ मिल कर आवास ऋण की खास योजनाएँ ला रहे थे, जिन्हें 80:20 (कुछ मामलों में 75:25) योजना कहा जाता है। इनके तहत ग्राहकों को केवल 20% भुगतान शुरू में करने को कहा जाता है। फिर तीन साल या कब्जा मिलने तक ग्राहक को कोई रकम नहीं देने के लिए कहा जाता था। वहीं बैंक इस कर्ज की किस्तें निर्माण के विभिन्न चरण पूरे होने के मुताबिक जारी करने के बजाय एकमुश्त ही बिल्डर को दे देते थे।
बिल्डर कर्ज लेने वाले खरीदार की ओर से ब्याज और किश्तों का भुगतान खुद करता है। इस व्यवस्था के चलते आरबीआई का मानना है कि इससे कर्ज के वापस भुगतान में जोखिम बढ़ रहा है। बिल्डर और खरीदार के बीच विवाद, ईएमआई बंद होने या परियोजना का काम रुकने पर कर्ज की वापसी में दिक्कत होगी। अगर बिल्डर ने किस्त समय पर जमा नहीं करायी तो इससे खरीदार की क्रेडिट रेटिंग भी खराब होगी। इस तरह की योजनाओं से ग्राहकों के फँस जाने का भी खतरा रहता है।
निवेश मंथन के जून 2013 के अंक में पाठकों को ऐसी योजनाओं के प्रति सचेत किया गया था। निवेश मंथन ने आगाह किया था कि %बैंक जो कर्ज दे रहा है, उसकी पूरी जिम्मेदारी खरीदार पर ही होती है, क्योंकि बैंक ने वास्तव में कर्ज उसी को दिया है। अगर कुछ समय बाद निर्माता ईएमआई का भुगतान बंद कर दे, किसी वजह से हाथ खड़े कर दे, तो खरीदार के ऊपर ही ईएमआई चुकाने की जिम्मेदारी आ जायेगी।’ रिजर्व बैंक के इस फैसले का रियल एस्टेट क्षेत्र पर दूरगामी असर पड़ेगा। जो बिल्डर हवा में ही परियोजना बेच लेने की प्रवृत्ति रखते थे, उन पर लगाम कसेगी। अब निर्माण के मुताबिक ही आवास ऋण का भुगतान होगा, इसलिए बिल्डर पर जल्दी-से-जल्दी फ्लैट बनाने का दबाव रहेगा।
इसके साथ ही भूसंपदा क्षेत्र में सट्टेबाजी की प्रवृत्ति पर भी लगाम कस सकेगी। बिल्डरों के लिए एक परियोजना के नाम पर जुटायी गयी रकम़ का इस्तेमाल दूसरी परियोजना में भी करना मुश्किल हो जायेगा। जानकार मानते हैं फिलहाल रियल एस्टेट क्षेत्र सुस्ती के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में आवास ऋण पर इस सख्ती से संपत्ति की कीमतों में कमी आ सकती है।
रियल एस्टेट क्षेत्र आरबीआई के इस कदम से खुश नहीं है। बिल्डरों के संगठन क्रेडाई का कहना है कि आरबीआई को फैसले से पहले रियल एस्टेट कंपनियों से मशविरा करना चाहिए था। लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि आरबीआई की यह सख्ती ग्राहकों के हित में ही है।
(निवेश मंथन, सितंबर 2013)

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