Nivesh Manthan
Menu
  • Home
  • About Us
  • ई-पत्रिका
  • Blog
  • Home/
  • 2013/
  • मार्च 2013/
  • नये शिखर की तैयारी, या निफ्टी लौटेगा 5,500 की ओर?
Follow @niveshmanthan

घर बेच कर खरीदा दफ्तर

Details
Category: सितंबर 2013

बृजेश अग्रवाल, सीओओ, दिनेश अग्रवाल, सीईओ, इंडियामार्ट :

हमने सबसे पहले जो करीब 2000 ग्राहक बनाये थे, उनकी वेबसाइटों का सारा डिजाइन हाथ से बना था। जब हमने उनके उत्पादों की जानकारी डायरेक्ट्री के रूप में इंडियामार्ट पर डालने का फैसला किया, तो उनकी वेबसाइटों को पूरा फिर से डिजाइन किया गया। उसी समय लोगों ने ऐसे मुद्दे सामने रखे कि इंडियामार्ट पर जो उत्पादक या विक्रेता हैं, उनकी विश्वसनीयता क्या है? इस पर हमने ट्रस्टसील नाम का उत्पाद तैयार किया। इसके लिए पहले हमने ऐसी कई कंपनियों से बात की, जो ट्रस्ट वेरिफिकेशन का काम करते हैं। लेकिन उन सबके उत्पाद बहुत महँगे थे और एसएमई के लिए उपयुक्त नहीं थे।

मैंने ये देखा कि जितने भी निर्यातक थे, वे आम तौर पर एसएमई ही ज्यादा थे, एक-दो करोड़ रुपये से लेकर बीस-पच्चीस करोड़ रुपये तक के। वेबसाइट बनाने का काम धीरे-धीरे हमारी प्राथमिकता में पीछे जाने लग गया, जिसमें निरूलाज, जिंदल, जेके जैसे ग्राहक थे। जो एसएमई से जुड़ा कामकाज था, वह हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण बनता गया। 
अब मूल्यांकन की बात कैसे शुरू हुई? मेरी डायरेक्ट्री महत्वपूर्ण होती गयी। पहले तो हम केवल वेबसाइट बनाते थे और डायरेक्ट्री में लगा देते थे। एक दिन एक ग्राहक आया। उसने कहा कि हमें इसमें सबसे ऊपर लगा दो। इसके लिए उसने नकद पैसे सामने रख दिये। इससे हमें अपनी डायरेक्ट्री की अहमियत समझ में आने लगी। फिर उस डायरेक्ट्री को बनाने और उसकी श्रेणियाँ तैयार करने पर हम ज्यादा ध्यान देने लगे। जब शुरू में बनायी तो 50 श्रेणियाँ बनायीं, फिर 500 बना दी, अब 50,000 तरह के व्यवसायों की, उत्पादों की श्रेणियाँ दिखनी शुरू हो गयी हैं।
यह कुछ ऐसा मामला है कि हिंदुस्तान लीवर शुरू में भी साबुन बनाती थी, कोलगेट पामोलिव शुरू में भी दंतमंजन बनाती थी और आज भी दंतमंजन ही बना रही है। उनके कारोबार में कोई नाटकीय बदलाव आया है। लेकिन कारोबार की मात्रा, सुधार लाने, चीजों को स्वचालित बनाने और बेहतर करने का उत्साह, इसे ज्यादा असरदार बनाने की कोशिश में बदलाव आता रहता है। 
एक वेंचर कैपिटल (वीसी) फर्म से 1998 में चि_ी आयी कि हम आपकी कंपनी में पैसा लगाना चाहते हैं। मुझे लगा कि वे कर्ज देना चाहते हैं, मैंने कहा मुझे कर्ज लेना ही नहीं है। मेरे पिताजी के पास पैसा है, वैसे भी हमारा व्यवसाय ठीक-ठाक चल रहा है, हम कर्ज नहीं लेना चाहते। मेरे मन में यह बहुत स्पष्ट था कि हम ऋणमुक्त रहना चाहते हैं। यह बात जरूर थी कि हमें दफ्तर के लिए ज्यादा जगह की बार-बार जरूरत पड़ती रहती थी, क्योंकि यह लोगों पर आधारित व्यवसाय है। पहले एक दफ्तर लिया, फिर उसके बगल में कोई दूसरा दफ्तर किराये पर लिया। फिर उसके बगल में एक और भवन किराये पर लिया। 
फिर वेंचर कैपिटल वाले कुछ लोग 199९ में आने शुरू हो गये। तब पता लगा कि साहब ये वेंचर कैपिटल होता क्या है, मूल्यांकन क्या है? हमने किसी से पाँच करोड़ कहा तो उसने ढाई कहा। अगले से 10 बताया तो उसने पाँच कहा। उसके अगले को 50 बताने पर उसने 25 कहा। मुझे लगा कि इस व्यवस्था में कुछ बड़ा गड़बड़ है।
उसी समय 1999 में इंडियावल्र्ड डॉट कॉम, खेल डॉट कॉम, खोज डॉट कॉम ये सब ५०० करोड़ रुपये में बिक गये। कहाँ हम लोग पाँच करोड़ की बात कर रहे थे! उस समय हम लोग तीन-चार बड़ी कंपनियाँ ही थे, इंडियावल्र्ड, रीडिफ, इंडियामार्ट के अलावा एक-दो और नाम ही होते थे। इतना ही बस इंटरनेट उद्योग होता था बस। दस आदमियों का ही क्षेत्र था यह1998 तक। इसके बाद ही नये-नये नाम आने शुरू हुए थे। भारत मैट्रिमोनी, नौकरी डॉट कॉम वगबैरह की कुछ छोटी सी वेबसाइटें बनी थीं। जब इंडियावल्र्ड 500 करोड़ रुपये में बिकने की खबर आयी तो हम अचानक कुर्सी से गिर गये!
उस समय हमारे साथ कई अच्छे लोग जुड़े हुए थे, जो संगठन के विकास में हमारे साथ लगे थे। संजय तनेजा, सूरज सिंह भाटी, रमन शर्मा, दिलीप मेहता, मनीष गुप्ता, विकास अग्रवाल जैसे पुराने लोग, जिनमें से बहुत से नाम आज भी हमारे साथ हैं। मुझे लगता है कि वे सब भी यहाँ के समाज से, पढ़ाई की व्यवस्था से चिढ़े हुए थे। उन्हें भी इंटरनेट में कुछ नयापन दिखता था। ये सब मिलती-जुलती सोच वाले लोग थे, जो कुछ अलग करना चाहते थे। उन्हें ज्यादा पैसे मिलें या कम, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था। न ही उन्हें नौ से छह की नौकरी चाहिए थी। रात के 12 बजे तक काम करना पड़े तो उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता था। यह मेरी अच्छी किस्मत थी कि मुझे ऐसी टीम मिली। लेकिन हमारे पास ब्रांडिंग और मार्केटिंग की समझ वाले ज्यादा लोग नहीं थे, न ही मूल्यांकन और वित्तीय मामलों की समझ रखने वाले लोग। इसे आप चाहें तो हमारी अच्छी किस्मत कह लें या बुरी किस्मत।
आज जब मैं पीछे देखता हूँ 1999-2000 डॉट कॉम के रक्तपात को, तो मुझे लगता है कि अच्छा ही हुआ कि हमें उस समय इसके बारे में कुछ पता नहीं था। हमने 1999-2000 में हमने अर्नस्ट एंड यंग को अपना सलाहकार को नियुक्त किया था, जिसने 500 करोड़ के सौदे में भी सलाह दी थी। उन्होंने कुछ लंबी-लंबी कारोबारी योजनाओं का खाका और पता नहीं क्या-क्या बनाना शुरू किया। एक्सेल शीट वगैरह, पर मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। खैर, किस्मत अच्छी थी कि उसी समय डॉट कॉम का बुलबुला फूट गया। हमारे लिए अच्छा ही हुआ!
लेकिन उस दौरान एक चीज अच्छी हुई कि 1999-2000 के दौरान हमारी सालाना आमदनी लगभग एक करोड़ रुपये हो गयी थी और हमारे 500 ग्राहक बन गये थे। उस समय तक हमारी टीम 60 या शायद 100 लोगों की हो गयी थी। इससे हमारे अंदर आत्मविश्वास पैदा हुआ।
उस समय मीडिया में भी डॉट कॉम की काफी बातें हो रही थीं। कहीं कोई मेड इन इंडिया डॉट कॉम खुल रहा था तो कोई होम ट्रेड डॉट कॉम खुल रहा था। ये सब खुल रहे थे, बंद हो रहे थे, पता नहीं क्या-क्या हो रहा था। यह सब चीजें पढ़-पढ़ कर हमारी टीम के लोगों के मन में भी खलबली मचने लगी थी। उसी दौर में हमने ऑटो डॉट इंडियामार्ट डॉट कॉम शुरू कर दिया। योजना यह थी कि इंडियामार्ट पर हर उद्योग का एक अलग हिस्सा बनायेंगे। ट्रैवल डॉट इंडियामार्ट भी बना। जब ऑटोमोबाइल पुर्जों की बी टू बी साइट बनाने की बात चली तो वहाँ फेरारी, हायाबुसा दिखने लगी। मैंने कहा कि यह नहीं चाहिए, पर लोगों ने कहा कि यही बिकता है। इस तरह हम लोग उस वक्त अपने बी टू बी कारोबार से थोड़ा अलग जा कर दिशाभ्रम में पड़े थे। लेकिन वह सब बहुत कम समय तक ही चला। 
करीब 1999-2001 के आसपास मीडिया में एक पहचान मिलनी शुरू हो गयी। टेलीविजन में कुछ चर्चा होने लगी, कुछ अखबारों-पत्रिकाओं में थोड़े-बहुत लेख भी छपने लगे। उसी बीच बिजनेस वल्र्ड ने एक सर्वे किया। पहले तो हमसे उनकी बात नहीं हो पायी थी। अगर उन्होंने फोन किया भी होगा तो पता नहीं किसने उठाया और क्या जवाब दिया। उनका लेख लगभग पूरा तैयार हो गया था। लेकिन अंतिम समय उन्होंने हमें दोबारा फोन किया। हमने कहा कि ठीक है, आ जाइये। जब हमने उन्हें बताया कि हम मुनाफा कमा रहे हैं तो वे लोग एकदम अचंभित हो गये थे। उन्हें आश्चर्य था कि डॉट कॉम की तबाही के दौर में कैसे कोई मुनाफे में होने का दावा कर रहा है। यहाँ तक कि उन्होंने हमारी बैलेंस शीट वगैरह भी देखी। हमें मुनाफा भी हो रहा था और हम उस पर आय कर भी जमा कर रहे थे। तब उन्होंने अपने मुखपृष्ठ पर हमें डाला। उस वक्त हमने यह महसूस किया कि अब हमारा कारोबार वास्तव में एक अच्छी स्थिति में आ गया है और हमें इसे आगे बढ़ाने के लिए ज्यादा लोगों की जरूरत है। उसके बाद ही मैंने कर्ज भी लिया और नोएडा में दफ्तर खरीदा। इसके लिए मुझे घर भी बेचना पड़ा। बहुत से कर्मचारियों ने भी योगदान किया जिसके लिए हमने ईसॉप योजना चलायी, जिसमें कर्मचारियों को कंपनी के शेयर खरीदने का प्रस्ताव दिया गया।
उस समय मैं कारोबारी सोच पर भावनाएँ हावी थीं या भावनाओं पर कारोबारी सोच ज्यादा हावी थीं, यह मुझे खुद नहीं मालूम। मेरे लिए यह एक जुनून था कि इसे करना है। हम सही धंधे में थे, हमें कारोबार मिल रहा था। उस वक्त 2001 में हमारा कारोबार बढ़ रहा था, जबकि बाकी सबका नीचे जा रहा था। हम लोग विकास कर रहे थे, लोगों को नौकरियाँ दे रहे थे। बाकी जगह से लोगों को निकाला जा रहा था। हिंदुस्तान टाइम्स की गो4आई जैसी कंपनी रातों-रात बंद हो गयी और अगले दिन 200 लोग सड़क पर आ गये। हम ऐसे वक्त में भी लोगों की कमी महसूस कर रहे थे और नौकरियाँ दे रहे थे। हम दूसरों की वेबसाइटें बना रहे थे। हमारी अपनी वेबसाइट अच्छी चल रही थी, इसके ग्राहकों को फायदा हो रहा था। हमें लगा कि अब अपना दफ्तर तो खरीदना ही पड़ेगा। किराये पर चार-छह जगहों पर छोटे-छोटे दफ्तर ले कर कब काम चला सकेंगे? नोएडा में तब तक दाम भी बढ़ गये थे, लेकिन वहाँ इंटरनेट ठीक-ठाक चलने लग गया था। इसलिए हमने दफ्तर के लिए जमीन ले ली, कर्ज ले लिया।
उससे पहले एक बात और हुई थी। मुझे लगा कि मुझे एमबीए करना पड़ेगा, क्योंकि डॉट कॉम मूल्यांकन वगैरह मुझे आता नहीं था। यह सोच कर मैंने 2001 में आईएमटी में पार्टटाइम एमबीए में दाखिला ले लिया। जुलाई से जाना भी शुरू कर दिया। तीन महीने तक गया भी।
उसी के बाद दफ्तर का भवन खरीदा, एक सितंबर को उसकी रजिस्ट्री हुई, 10 सितंबर को उसका भूमि-पूजन हुआ, अगले दिन से काम शुरू करना था। लेकिन अगले ही दिन 11 सितंबर की घटना (अमेरिका में वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमला) हो गयी। मैं उसके बाद और 2-3 दिन तक कॉलेज गया, लेकिन उसके बाद सोचा कि छोड़ो एमबीए बाद में करेंगे। हुआ यह कि अचानक ही हमारी मासिक आमदनी घट कर आधी हो गयी। उस समय ट्रैवल की श्रेणी से अच्छी कमाई होती थी, बैनर वगैरह से, लेकिन इस घटना के अगले दिन ही हमारी आमदनी आधी हो गयी। बहुत से ग्राहकों ने अपने हाथ खींच लिये। अगले 5-10 दिनों में बहुत से निर्यातकों ने कह दिया कि हमारी वेबसाइट बंद कर दो, हम पैसे नहीं दे पायेंगे।
अगले दो-चार महीनों में यही सब होता रहा। वह बड़ा मुश्किल समय था। सितंबर 2001 से लेकर, या कह लें कि जनवरी 2002 से दिसंबर 2002 तक का जो समय था, वह बहुत बुरा दौर रहा था। यहाँ तक कि कर्मचारियों से भी पैसे लिये, उनके वेतन भी नहीं बढ़े। दफ्तर के भवन को भी तैयार कराना था, लोगों को वेतन भी देना था। उस समय वाकई यही लगने लगा कि दफ्तर का भवन खरीदने का गलत फैसला कर लिया। लेकिन अब तो जो हो गया, वह हो गया, इससे पीछे तो हट नहीं सकते। आखिर अब कुछ कर तो सकते नहीं थे। भवन खरीद लिया, इसके पैसे दे दिये, अब ऐसा तो कर नहीं सकते थे कि इसको वापस बेच दें, कारोबार बंद कर दें। अभी तक तो कारोबार अच्छा ही चल रहा था, बस 11 सितंबर की घटना से असर पड़ा था। इसलिए यही सोचा कि आखिर इसका असर कब तक रहेगा - शायद छह महीने रहेगा, या साल भर रहेगा।
उस दौरान काम काफी घट गया। बृजेश के होने से काफी मदद मिली। उसने एक-एक छोटी-से-छोटी चीज में खर्च घटाने और उत्पादकता बढ़ाने की कोशिश की। मैं एमबीए जैसा नहीं था, लेकिन वह उस तरह से सोच सकता था। हर बात में पैसे बचा-बचा कर चलते रहे। खैर, 2002 में हमारे दफ्तर का भवन पूरी तरह से बन कर तैयार हो गया और वहीं से हमारा सुनहरा समय भी शुरू हुआ। पूरा बाजार डॉट कॉम से खाली हो चुका था। कोई भी इंटरनेट की किसी कंपनी को पैसे देने को राजी नहीं था। हमारा दफ्तर पूरे भारत में किसी डॉट कॉम का सबसे बड़ा और अच्छा दफ्तर था। हम जान-बूझकर अपने ग्राहकों को दफ्तर बुलाते थे। उस समय तक वेबसाइट कंपनियाँ रातों-रात गायब हो जाने वाली कंपनियाँ मानी जाने लगी थीं। लेकिन हमारे दफ्तर में आने के बाद वह ग्राहक कहता था कि जो भी करना है कर दो, मुझे तुम पर भरोसा है। वह दफ्तर हमारे लिए एक मील का पत्थर था। मई-जून 2001 की ऊँचाई और बिजनेस वल्र्ड के मुखपृष्ठ पर छपने के बाद सितंबर 2001 की गिरावट और फिर वापस जून 2002 में अच्छे दिनों की शुरुआत तक ये जो एक साल का समय था, उसमें हमने बहुत उतार-चढ़ाव देखे। उसके बाद दो-तीन साल तक हम बड़ा सँभल कर चले, क्योंकि हम पर 50 लाख का कर्ज था। लेकिन हमने अपने उस दफ्तर का अच्छे से इस्तेमाल किया। इसने हमें ग्राहक लाने में, अच्छे लोगों को अपने साथ जोडऩे में और मीडिया में छवि बनाने में काफी मदद की। ब्रश माई टीथ डॉट कॉम जैसी चीजें बंद हो चुकी थीं। उन दो-तीन सालों में हम बड़े इतमीनान से एक सीधे रास्ते पर अपना काम करते रहे। उसी बीच हमने ट्रस्टसील जैसी कई नयी चीजें भी शुरू कीं।
डॉट कॉम की तबाही के दौर में भी हम यह सब कर पा रहे थे, क्योंकि हम अपने ग्राहकों को धंधा दिला पा रहे थे। उन्हें हमारी वेबसाइट के जरिये विदेशों से ऑर्डर मिल रहे थे। हमारे ग्राहकों की संतुष्टि दर 80% से ज्यादा थी, हम हर साल अपने 82-83% ग्राहकों को अगले साल भी जोड़े रख पा रहे थे। हमारे पास 2001 में करीब एक डेढ़ हजार तक ग्राहक थे। जून 2002 से जून 2006 तक के चार सालों में हमारे ग्राहकों की संख्या 2000 से बढ़ कर 10,000 तक हो गयी थी। हम अपने मुनाफे को सालाना औसतन 30-40% तक बढ़ा पा रहे थे। यहाँ तक कि 2001-2002 में भी जब सितंबर में हमारी आमदनी घट कर आधी रह गयी थी, उस साल भी हमने कुल मिला कर 22% बढ़ोतरी दर्ज की। 
हमारी सफलता देख कर हमारे कारोबारी मॉडल की नकल भी खूब हुई। अब भी होती है। ऐसे नामों को छोड़ भी दें तो हमारे कारोबारी मॉडल से मिलते-जुलते कुछ गंभीर प्रतिस्पर्धी भी आये। ट्रेड इंडिया नाम से एक कंपनी शुरू हुई। पहले इसका नाम था एक्सपोर्टर्स येलो पेजेज। इनका प्रिंट कारोबार था, लेकिन 1998-1999 में इन्होंने हमारा कारोबार बढ़ता देख कर इंटनेट पर ट्रेड इंडिया के नाम से काम करना शुरू कर दिया। उन्हें एसएमई क्षेत्र के बारे में जानकारी थी, वे निर्यातकों को भी जानते थे और उन्होंने इंटरनेट के बारे में भी जल्दी ही सीख लिया। मुझे लगा कि ये हमारे लिए एक गंभीर प्रतिस्पर्धी है।
मेड इन इंडिया नाम से एक कंपनी 1998 में आयी, बड़े-बड़े अखबारों में उसके विज्ञापन छपे, मुंबई में काफी होर्डिंग लगे। लेकिन वे साल भर के अंदर सिमट गये। फिर एक कंपनी इंडियामार्केट्स आयी, जिसने शायद एक-दो करोड़ डॉलर का वेंचर कैपिटल जुटाया था। उसने हर औद्योगिक केंद्र में खरीदार-विक्रेता को आपस में मिलाने के केंद्र खोले। लेकिन वह भी बंद हो गयी दो साल के अंदर। उसके बाद विप्रो ने भी एक कंपनी शुरू की थी जीरोवन मार्केट्स। वह कंपनी बी2बी की रिवर्स ऑक्शन मतलब उल्टी नीलामी कराती थी। उनका बाजार थोड़ा अलग था, लेकिन बाद में वह भी बंद हो गयी।
लेकिन हमने अपनी मुफ्त लिस्टिंग बंद नही की, भले ही उसमें हमें कुछ मिलता नहीं था और हमारे पैसे लगते ही थे। उल्टे हमने ज्यादा तेज दौड़ लगानी शुरू की। जब हमारे 10,000 ग्राहक हो गये तो हमने देखा कि हमारी मुफ्त लिस्टिंग एक लाख है और पैसे देने वाले 10,000 ग्राहक हैं। मतलब 10% लोग पैसे देने वाले ग्राहक हैं। सोचने का एक तरीका यह हो सकता था कि अभी तो 90,000 और पड़े हैं। रोज के 100 वैसे भी आ ही जा रहे हैं। लेकिन हमने सोचा अगर 50,000 ग्राहक बनाने हैं तो पहले पाँच लाख की मुफ्त लिस्टिंग करनी पड़ेगी। हमने सारे व्यापार मेलों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। हर जगह से डायरेक्ट्री लानी शुरू कर दी। अपने डेटाबेस को और बेहतर बनाया। अभी गूगल ने एक नयी योजना शुरू की है जिसमें वे कह रहे हैं कि 4-5 लाख छोटे व्यवसायों को ऑनलाइन करेंगे। हमने 2005-2006 में ही यह अभियान शुरू कर दिया। हम जिनकी मुफ्त लिस्टिंग करते थे, उनकी मुफ्त वेबसाइट बनाने लग गये। कुछ महीने पहले ही हमारी 5 लाख की संख्या पूरी भी हो गयी है।
हम दूसरों की नकल के चक्कर में नहीं पड़े। ऐसा नहीं किया कि आज ईबे चल रहा है तो वैसे ही मॉडल पर काम शुरू कर दो और कल ग्रुपऑन चल रहा है तो उसका मॉडल पकड़ लो। हम कसिर्फ अपने ही मॉडल पर चल रहे थे। पर हाँ, एक कंपनी का तरीका मुझे काफी पसंद आया था। हांगकांग की एशियन सोर्सेज नाम की एक कंपनी थी जिसने 1997-98 में काफी अच्छा काम किया। उन्होंने पत्रिकाओं के क्षेत्र में काम शुरू किया, फिर इंटरनेट में अच्छा काम किया और सीडी-रोम वगैरह में भी आये। लेकिन बाद में अलीबाबा ने उसे सस्ती कीमत वाला मॉडल लाकर बुरी तरह पटक दिया।
जब 2006 में हमारे 10,000 ग्राहक हो गये तो हमारी कुल आमदनी थी 15 करोड़ रुपये, यानी प्रति ग्राहक आमदनी लगभग 15,000 रुपये थी। हमें समझ में आया कि पूरी रणनीति बना कर प्रति ग्राहक आमदनी को बढ़ाना होगा। केवल हर साल पुराने ग्राहकों का नवीकरण करते रहने से काम नहीं चलेगा। अगले 2-3 सालों तक हमने प्रति ग्राहक आमदनी बढ़ाने पर काफी जोर दिया। लेकिन उस बीच महँगाई की वजह से लागत भी काफी बढ़ती चली गयी। हमारे खर्चे हाथ से बाहर निकलते चले गये। हमारी आमदनी तो बढ़ रही थी, लेकिन मुनाफेदारी घटती जा रही थी।
कंपनी के करीब 10 साल पूरे होने के बाद मुझे लगा कि वेंचर कैपिटल की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि अब इस बाजार की संभावनाएँ साबित हो चुकी हैं और अलीबाबा, इंडियाटाइम्स या रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियाँ इस बाजार में कदम रख सकती हैं। हमने वेंचर कैपिटल के लिए कई लोगों से बातें की। कुछ लोगों ने हमे पसंद किया, कुछ लोगों ने नहीं किया। कुछ लोग आपको शायद इसलिए पसंद नहीं करते कि आप हार्वर्ड से नहीं हैं। लोगों से मिलते-जुलते हमें करीब डेढ़ दो साल लग गये साल 2007-2008 के बीच। उसी बीच हांगकांग में अलीबाबा का आईपीओ भी आ गया और इस क्षेत्र के लिए मूल्यांकन काफी ऊँचा हो गया। हमने लगभग उसी समय वेंचर कैपिटल से पैसा लिया जो हमें 2008 के अंत में मिला। साल 2008 में ही अलीबाबा ने टीवी18 के इन्फोमीडिया के साथ साझेदारी करके यहाँ कदम रखने के बाद हमें काफी परेशान भी किया। उनका ब्रांड भी अच्छा था। हमारे कुछ ग्राहक टूटे और हमारे कुछ साथी भी टूटे।
जब हमें वेंचर कैपिटल का पैसा मिला तो हमने वह पैसा ज्यादा खर्च नहीं किया, मगर हम नये जोश से काम पर लग गये। अगले 3-6 महीनों में ही हमने फिर से अपने-आप को मजबूत किया और अलीबाबा इस बाजार में कहीं नहीं टिकी। इस मुकाबले के लिए हमने कई अच्छे स्तर के उत्पाद बाजार में उतारे। अलीबाबा की कुछ कमियाँ भी थीं, इस बाजार के बारे में उनकी जानकारी भी कम थी। शुरुआती दौर में उन्होंने हमें जो नुकसान पहुँचाया, वह उनके ब्रांड और हमारी बेवकूफी का नतीजा था।
हमारी बेवकूफी थी ग्राहक सेवा और कर्मचारियों की संतुष्टि के मामले में। हम मुकाबले के लिए पहले से तैयार नहीं थे। हम चीजों को बड़े हल्के में ले रहे थे और हमारे अंदर सुस्ती आ गयी थी, आक्रामक तेवर नहीं रह गया था। तिमाही नतीजों को लेकर अनुशासन घट गया था, हम कारोबारी योजनाओं में सुस्ती बरत रहे थे। हमने इन सब पर काम करना शुरू किया। कुछ अलीबाबा की अपनी गलतियाँ भी थीं, जो शुरू में उनके ब्रांड की चमक में नहीं दिख रही थीं।
वे केवल सब्सक्रिप्शन बेचते थे और कहते थे कि सारा काम हमारी वेबसाइट पर जा कर खुद कर लो। हम अपने ग्राहकों से कहते थे कि आप पैसे देंगे तो हम बना कर देंगे और फिर आपको दिखायेंगे जिससे आप उसे जाँच सकें। हम अपने एसएमई ग्राहकों की पूरी मदद करते थे। वे स्वयंसेवा मॉडल पर काम करने के लिए कहते थे। हमारी वेबसाइट पर ज्यादातर भारतीय सप्लायर मिलते हैं, उनकी वेबसाइट पर ज्यादातर चीन के सप्लायर हैं। जो भारतीय सप्लायर हैं, वे चीन के सप्लायरों से कीमत पर प्रतिस्पर्धा करने के लिए तैयार नहीं थे। अलीबाबा चीन में काफी सफल है, इसलिए उनकी वेबसाइट पर आप कुछ भी खोजें तो आपको केवल चीन की चीजें ही मिलेंगी। ऐसे में भारतीय एसएमई को वहाँ से धंधा ही नहीं मिलता था। अलीबाबा के लिए चीन ही सबसे मजबूत पहलू था और यहाँ वही उनका कमजोर पहलू बन गया। उसी बीच इन्फोमीडिया का अपना प्रिंट कारोबार अच्छा नहीं चल रहा था। अब उन्होंने अकेले अलीबाबा इंडिया बनाया है, लेकिन उसका ज्यादा असर हमारे ऊपर नहीं पड़ा है। अब कुछ दूसरी बातें उनके खिलाफ जा रही हैं। उन्होंने अपनी कीमतें काफी बढ़ा दी हैं।
भारतीय एसएमई और भारतीय कर्मचारियों के बारे में हमारी जो समझ बन चुकी है, उसका हमें फायदा मिल रहा है। कोई दूसरा व्यक्ति बाहर से दिखने वाले कारोबारी मॉडल पर प्रतिस्पर्धा कर सकता है, लेकिन उस कारोबारी मॉडल का जो आंतरिक डीएनए है उसकी नकल इतनी आसानी से बाहर से नहीं की जा सकती। हम और एसएमई 15 साल से साथ चल रहे हैं। हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह समझते हैं।
आगे हमें प्रतिस्पर्धा के चलते खतरे का सामना नहीं करना पड़े, इसके लिए हम काफी काम कर रहे हैं। बी2बी कारोबार में खास बात यह होती है कि इसके बी और बी दोनों एक ही हैं। हर विक्रेता किसी चीज का खरीदार भी है। हमारे पास शर्ट का भी उत्पादक है और बटन का भी। बटन जिस मोल्ड से बनता है उसका उत्पादक भी हमारे पास है और उस मोल्ड की कास्टिंग का उत्पादक भी हमारे पास है। इससे हमारे अपने बाजार-तंत्र के अंदर ही 20-25% कारोबारी गतिविधियाँ होने लग गयी हैं। खरीदार या विक्रेता इसके बाहर से नहीं आ रहा। हमारे अपने परितंत्र के अंदर ही खरीदार और विक्रेता दोनों की रोजमर्रा की जरूरतें पूरी होने लग गयी हैं। जैसे ही 51% कारोबारी गतिविधियाँ हमारे अपने बाजार-तंत्र के अंदर होने लग जायेंगी, तो किसी दूसरे के लिए उसकी नकल करना लगभग असंभव हो जायेगा। वैसा करने के लिए उसे हमारे जितना बड़ा समुदाय बनाना पड़ेगा। लेकिन इतना बड़ा समुदाय बनाना केवल नकल करके संभव नहीं है।
इस समय आप गूगल प्लस और फेसबुक को देखें तो मेरे लिए यह कहना बड़ा मुश्किल है कि गूगल प्लस बेहतर है या फेसबुक बेहतर है। लेकिन तथ्य यह है कि 80 करोड़ लोग फेसबुक पर मौजूद हैं। वे रातों-रात बदल नहीं सकते। मेरी तस्वीरें वहाँ हैं, मेरे मित्र वहाँ हैं। इसके चलते मैं एक तरह से फेसबुक से बँध गया हूँ। अगर फेसबुक एक के बाद एक गलतियाँ करती चली जाये और गूगल एक के बाद एक अच्छे कदम उठाती रहे तो जरूर लोग फेसबुक से गूगल की ओर जा सकते हैं।
लोगों को टीवी चैनल बदलने में एक पल नहीं लगता। लेकिन आज गूगल सर्च के बदले कोई बेहतर तकनीक ले आ जाये तो क्या वह गूगल के पास जमा अथाह सामग्री की बराबरी कर पायेगा या नहीं, इसे देखना होगा। गूगल का ऐडसेंस और ऐडवर्ड इसी तरह का समुदाय बन गया है, जिसे तोडऩा मुश्किल है। वहाँ ज्यादा वेबसाइट प्रकाशक हैं, इसलिए ज्यादा विज्ञापनदाता हैं। और चूँकि वहाँ ज्यादा विज्ञापनदाता हैं, इसलिए वहाँ ज्यादा प्रकाशक हैं। अब उनके पास लाखों विज्ञापनदाता और लाखों प्रकाशक दोनों हैं। जब एक समुदाय का परितंत्र बन जाता है तो उसे तोडऩा बड़ा मुश्किल हो जाता है। हमें लगता है कि अपने दायरे को बढ़ाते चले जायें तो हम उसी तरह का परितंत्र बना लेंगे।
पर हम ऐसा कभी नहीं कह सकते कि ऐसी रणनीति बना लें जिससे कोई हमारे कारोबारी मॉडल भेद न पाये। अगर आप अपना काम अच्छा नहीं करेंगे तो चाहे जैसी रणनीति बना लें, कोई आपके कारोबारी मॉडल की नकल भी कर लेगा और आपका धंधा ले भी जायेगा। यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि आप लोगों को हमेशा के लिए अपने साथ बाँध कर रख लेंगे।
इंडियामार्ट का कारोबार ऐसे स्तर पर आ चुका है, जहाँ मुझे लगता है कि मेरा व्यक्तिगत योगदान शायद उतना नहीं बचा है। अब यहाँ गुणवत्ता बनाये रखना और सब चीजें ठीक से चलती रहें यह देखना ही बाकी बचा है। अब एक उद्यमी के बदले एक कार्यकारी अधिकारी की भूमिका ज्यादा है। आप इस बात को सँभाल रहे हैं कि आपके 50,000 ग्राहक हैं जिनके लिए अच्छी सेवाएँ सुनिश्चित करना, 50 लाख लिस्टिंग हैं जिनकी जानकारियों के सही होने पर ध्यान देना, अब ऐसी ही भूमिका है। हम यह काम करते रहे हैं और अच्छा किया है। लेकिन मुझे लगता है कि ऐसी भूमिकाओं में हमें ऐसे कार्यकारी अधिकारी लाने चाहिए जो इन चीजों को अच्छी तरह चला सकें, जिससे मैं कुछ नयी और कुछ अलग ऐसी चीजों पर ध्यान दे सकूँ जिससे इस समुदाय को मदद मिले या कोई और नया समुदाय बनाया जा सके।
मेरे सामने अगर कभी प्रश्न आयेगा कि क्या मैं इंडियामार्ट को बेचना चाहता हूँ, तो मैं इसके विरुद्ध नहीं हूँ। लेकिन अगर आईपीओ लाकर इस कंपनी को आगे चलाना हो और इसे ज्यादा से ज्यादा बड़ा संगठन बनाना हो, तो उसमें मुझे परेशानी नहीं है। इस व्यवसाय को यहाँ तक लाने में मेरे 20 साल लग चुके हैं। अगर हमें इसमें 15-20 साल और लगाने पड़ जायें तो भी मुझे कोई निराशा नहीं होगी। मैं इसे खुशी से चलाते रह सकता हूँ। वह कोई परेशानी नहीं है। लेकिन अगर कोई एक बड़ा चेक काट कर मुझे कहे कि कल से आप मुक्त हो गये हैं, तो मुझे लगता है कि 15 साल काम करने के बाद ऐसी आजादी भी मुझे बड़ी अच्छी लगेगी! उसके बाद कितने दिनों में मुझे फिर से लगने लगेगा कि कुछ और करो, वह मुझे अभी मालूम नहीं। इस बात का रोमांच भी कम नहीं होगा कि कोई मुझे 2000 करोड़ रुपये का चेक काट कर दे दे! लेकिन अगर इस कारोबार को अगले 20 साल में बढ़ा कर 10 अरब डॉलर तक ले जाना हो तो मुझे उसमें भी कोई दिक्कत नहीं है।
आईपीओ लाने की हमारी योजना है, लेकिन उसमें अभी तीन साल तो लग जायेंगे। जब 10 करोड़ डॉलर के आसपास की आमदनी होगी, तभी हम आईपीओ के लिए आगे बढ़ेंगे। आईपीओ के साथ कई तरह की जवाबदेहियाँ भी आती हैं। आपको हर तिमाही में लोगों को जवाब देना होता है, आपको अपनी सारी जानकारियाँ सार्वजनिक करनी पड़ती हैं। यह सब सँभालना तभी ठीक है, जब आपकी बाजार पूँजी एक अरब डॉलर से कम की नहीं होनी चाहिए।
आप भारतीय बाजार में 200 करोड़ रुपये या 500 करोड़ रुपये की बाजार पूँजी वाली कंपनी बन कर रह जायें तो आप एक किनारे पड़े रहेंगे, कोई भी कभी आपका भाव ऊपर कर देगा, कभी नीचे कर देगा और नियमन संबंधी कुछ न कुछ होता रहेगा। मैं आईपीओ इस समय भी ला सकता हूँ, तीन साल पहले भी इंटेल के पास जाने के बदले आईपीओ ला सकता था, लेकिन केवल आईपीओ लाने के लिए ऐसा करना मुझे ठीक नहीं लगता। लेकिन जब तक आप एक ऐसा बड़ा आकार हासिल न कर लें जिससे आपको आईपीओ बाजार में एक खिलौने की तरह नहीं देखा जाये, तब तक आईपीओ लाना ठीक नहीं होगा।
हमारे जो वेंचर कैपिटल निवेशक हैं, उन्हें भी कोई जल्दी नहीं है। मुख्य रूप से इंटेल ही है। बेनेट कोलमैन की बस एक छोटी हिस्सेदारी है। हमारे निवेशक इस बात से खुश हैं कि हमारे कारोबार का आकार बढ़ रहा है। अभी हमारे मुनाफे में बढ़त नहीं हो रही है। पिछले दो सालों से हमें घाटा उठाना पड़ा है, क्योंकि इन दो सालों में हमने काफी विस्तार किया है और 50-60 दफ्तर खोले हैं। इसके अलावा पिछले दो सालों में भारत में इंटरनेट के क्षेत्र में काफी उम्मीदें बढ़ी हैं। ई-कॉमर्स बढ़ा है, इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या बढ़ी है। आगे 3जी और 4जी से उम्मीदें हैं।
(निवेश मंथन, सितंबर 2012)

  • सातवाँ वेतन आयोग कहीं खुशी, कहीं रोष
  • एचडीएफसी लाइफ बनेगी सबसे बड़ी निजी बीमा कंपनी
  • सेंसेक्स साल भर में होगा 33,000 पर
  • सर्वेक्षण की कार्यविधि
  • भारतीय अर्थव्यवस्था ही पहला पैमाना
  • उभरते बाजारों में भारत पहली पसंद
  • विश्व नयी आर्थिक व्यवस्था की ओर
  • मौजूदा स्तरों से ज्यादा गिरावट नहीं
  • जीएसटी पारित कराना सरकार के लिए चुनौती
  • निफ्टी 6000 तक जाने की आशंका
  • बाजार मजबूत, सेंसेक्स 33,000 की ओर
  • ब्याज दरें घटने पर तेज होगा विकास
  • आंतरिक कारक ही ला सकेंगे तेजी
  • गिरावट में करें 2-3 साल के लिए निवेश
  • ब्रेक्सिट से एफपीआई निवेश पर असर संभव
  • अस्थिरताओं के बीच सकारात्मक रुझान
  • भारतीय बाजार काफी मजबूत स्थिति में
  • बीत गया भारतीय बाजार का सबसे बुरा दौर
  • निकट भविष्य में रहेगी अस्थिरता
  • साल भर में सेंसेक्स 30,000 पर
  • निफ्टी का 12 महीने में शिखर 9,400 पर
  • ब्रेक्सिट का असर दो सालों तक पड़ेगा
  • 2016-17 में सुधार आने के स्पष्ट संकेत
  • चुनिंदा क्षेत्रों में तेजी आने की उम्मीद
  • सुधारों पर अमल से आयेगी तेजी
  • तेजी के अगले दौर की तैयारी में बाजार
  • ब्रेक्सिट से भारत बनेगा ज्यादा आकर्षक
  • सावधानी से चुनें क्षेत्र और शेयर
  • छोटी अवधि में बाजार धारणा नकारात्मक
  • निफ्टी 8400 के ऊपर जाने पर तेजी
  • ब्रेक्सिट का तत्काल कोई प्रभाव नहीं
  • निफ्टी अभी 8500-7800 के दायरे में
  • पूँजी मुड़ेगी सोना या यूएस ट्रेजरी की ओर
  • निफ्टी छू सकता है ऐतिहासिक शिखर
  • विकास दर की अच्छी संभावनाओं का लाभ
  • बेहद लंबी अवधि की तेजी का चक्र
  • मुद्रा बाजार की हलचल से चिंता
  • ब्रेक्सिट से भारत को होगा फायदा
  • निफ्टी साल भर में 9,200 के ऊपर
  • घरेलू बाजार आधारित दिग्गजों में करें निवेश
  • गिरावट पर खरीदारी की रणनीति
  • साल भर में 15% बढ़त की उम्मीद
  • भारतीय बाजार का मूल्यांकन ऊँचा
  • सेंसेक्स साल भर में 32,000 की ओर
  • भारतीय बाजार बड़ी तेजी की ओर
  • बाजार सकारात्मक, जारी रहेगा विदेशी निवेश
  • ब्रेक्सिट का परोक्ष असर होगा भारत पर
  • 3-4 साल के नजरिये से जमा करें शेयरों को
  • रुपये में कमजोरी का अल्पकालिक असर
  • साल भर में नया शिखर
7 Empire

अर्थव्यवस्था

  • भारत की विकास दर (जीडीपी वृद्धि दर) : भविष्य के अनुमान
  • भारत की विकास दर (जीडीपी वृद्धि दर) बीती तिमाहियों में
  • भारत की विकास दर (जीडीपी वृद्धि दर) बीते वर्षों में

बाजार के जानकारों से पूछें अपने सवाल

सोशल मीडिया पर

Additionaly, you are welcome to connect with us on the following Social Media sites.

  • Like us on Facebook
  • Follow us on Twitter
  • YouTube Channel
  • Connect on Linkedin

Download Magzine

    Overview
  • 2023
  • 2016
    • July 2016
    • February 2016
  • 2014
    • January

बातचीत

© 2025 Nivesh Manthan

  • About Us
  • Blog
  • Contact Us
Go Top