नरेंद्र तनेजा, राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक :
कांग्रेस काफी बड़ा संगठन है। कुछ केंद्रीय मुद्दों को लेकर कांग्रेस में बड़ी स्पष्ट नीति है, जिनके बारे में कोई नहीं बोलेगा या बोलेगा तो एक ही आवाज में बोलेगा।
लेकिन उसके अलावा बाकी विषयों में कांग्रेस कुछ हद तक लचीलापन देती है। कई बार तो यह बड़ा नाप-तौल कर किया जाता है लोगों की प्रतिक्रिया देखने के लिए, जैसे शकील अहमद का बयान। अगर लोगों की प्रतिक्रिया मन-मुताबिक रही तो उस बयान का साथ दिया जाता है और प्रतिक्रिया ठीक नहीं रही तो उसे व्यक्तिगत विचार कह दिया जाता है।
कांग्रेस की संचार रणनीति में गलतियाँ कम होती हैं। यहाँ तक कि उनके किसी नेता या प्रवक्ता ने हास्यास्पद बयान दे दिया तो उस पर वे तुरंत खेद नहीं जताते हैं। राज बब्बर और शकील अहमद ने जो कहा, उसे तुरंत नहीं काटा गया।
दूसरी तरफ दिग्विजिय सिंह अपने बयानों से टोह ले रहे होते हैं। जैसे सेना को कहीं जाना होता है तो उससे पहले एक अग्रिम दस्ता भेजा जाता है। वे औपचारिक बयान से पहले का बयान देते हैं। अगर ठीक चला तो पार्टी उसे अपना लेती है। जहाँ ठीक नहीं चलता, उसे वे व्यक्तिगत राय बता देते हैं। %टंच माल’ बोलते समय वे मध्य प्रदेश में अपने लोगों के बीच थे। उन्होंने वह भाषा बोल दी जो सामान्य विधायक रहने के समय वे बोला करते होंगे। वे 30 साल पीछे चले गये और पकड़ में आ गये। लेकिन आम तौर पर वे जो कुछ बोलते हैं, उसमें वे एक धनुष से चार-चार तीर फेंक रहे होते हैं, जो रणनीति का हिस्सा होता है।
बाटला हाउस के मामले में पी चिदंबरम और दिग्विजय के जो अलग-अलग तरह के बयान आये, उनसे कांग्रेस का मतलब पूरा हो जाता है। नौकरशाही, सशस्त्र बलों, पुलिस और मध्यम वर्ग को चिदंबरम ने सँभाल लिया और मुस्लिम समुदाय को दिग्विजय सिंह ने सँभाल लिया। ये विरोधाभास नहीं, सोची-समझी रणनीति है। जब आपको परेशानी होती है तो कहते हैं कि ये पार्टी का मत है, सरकार का नहीं। जब बात अनुकूल हो तो कहते हैं कि पार्टी और सरकार तो एक ही है।
राजनेताओं ने जनता से दूरी बनायी है और जनता भी राजनेताओं से दूर हो गयी है। पहले राजनीतिक वर्ग अपने संसाधनों के लिए भी आम लोगों पर निर्भर करता था। पहले तो यह आम बात थी कि पाँच-पाँच रुपये इक_े हो रहे हैं। कोई विधायक का चुनाव लड़ रहा है तो घर-घर जा कर दो, पाँच, दस, बीस रुपये इक_े होते थे। अब राजनीतिक वर्ग अपने संसाधनों के लिए उद्योग जगत पर निर्भर करता है। लेकिन उसकी हताशा यह है कि वोट के लिए उसे अब भी आम आदमी के पास जाना पड़ता है!
(निवेश मंथन, अगस्त 2013)