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बेढब बयान : संवेदनहीनता या सियासी चालाकी?

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Category: अगस्त 2013

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :

राजनीति में कई बार विवादास्पद बयान जुबान फिसलने से होते हैं, तो कई बार यह सोची-समझी रणनीति का हिस्सा होता है।

कांग्रेस पार्टी ने आक्रामक दिखने पर जोर दिया है। सूचना प्रसारण मंत्रालय में अंबिका सोनी की तुलना में मनीष तिवारी ज्यादा आक्रामक लगे, तो उन्हें पद सौंप दिया गया। आजकल ईंट का जवाब पत्थर से देने की राजनीति है। दिग्विजय सिंह एक अलग उद्देश्य के तहत काम कर रहे हैं।
पार्टी एक रणनीति के तहत इन विवादास्पद बयानों के लिए प्रेरित करती है, लेकिन जब लगे कि सीमा लांघ ली गयी है तो व्यक्तिगत मामला बता कर पार्टी को बयान से अलग कर दिया जाता है। दिग्विजय सिंह के बयान सोचे-समझे बयान थे, लेकिन पाँच रुपये और 12 रुपये में खाना मिलने वाले बयान दूसरी श्रेणी के बयान हैं, जो अहंकार से भरे हुए हैं। जब आप जनता से पूरी तरह से कट गये, इस स्थिति में इस तरह के बयान सामने आते हैं।
लेकिन यह बात कई अन्य दलों में भी देखी जा सकती है। बीजेपी के भी कई कद्दावर नेता, जैसे नरेंद्र मोदी और नितिन गड़करी भी इस तरह की फजीहत में फँस चुके हैं। ऐसी प्रवृति नेताओं की संवेदनहीनता का परिचायक है, जिससे स्पष्ट है कि जिस लोकतंत्र के सहारे आप सत्ता सुख भोग रहे हैं, उस लोकतंत्र के प्रति आपका रवैया कैसा है?
पिछले कुछ सालों में राजनेताओं में अहंकार भावना बहुत बढ़ गयी है, जो एक तरह की गलतफहमी से उभरी है। पिछले 10-12 सालों में आक्रामकता की राजनीति बहुत तेजी से उभरी है। मायावती, राज ठाकरे, नरेंद्र मोदी जैसे कई बड़े नेता आक्रामक तेवर की वजह से जाने जाते है। उत्तर प्रदेश के पिछले चुनावों में राहुल गाँधी ने भी आक्रामक बनने की कोशिश की। राजनेताओं में यह भ्रम बन गया है कि आक्रामकता की वजह से ही वे राजनीति में अपनी एक अहम जगह बना सकते हैं, युवाओं में लोकप्रिय हो सकते हैं। यही आक्रामकता अवचेतन में जाकर अहंकार में बदल जाती है।
कांग्रेस पिछले नौ सालों से सत्ता में काबिज है, इसलिए अहंकार की भावना उसमें ज्यादा प्रबल दिखायी देती है। पंजाब में सुखबीर सिंह बादल, हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा, गुजरात में नरेंद्र मोदी और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी जैसे कई बड़े नेताओं में अहकांर झलकता है। ममता बनर्जी को आमतौर पर एक जुझारू नेता के तौर पर पहचाना जाता था, लेकिन उनका जुझारुपन अहंकार में बदल गया है। कह सकते हैं कि यह बीमारी किसी एक पार्टी तक ही सीमित नहीं है।
(निवेश मंथन, अगस्त 2013)

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