डी. आलोक :
पिछले दिनों भारतीय मुद्रा को ऐतिहासिक निचले स्तरों का मुँह देखना पड़ा जब एक डॉलर की कीमत 60 रुपये से भी अधिक हो गयी।
बीते 26 जून को डॉलर के मुकाबले रुपये ने 60.76 का स्तर छू लिया। दरअसल जैसे ही अमेरिकी फेडरल रिजर्व के चेयरमैन ने क्वांटिटेटिव ईजिंग (क्यूई) यानी बॉन्डों की खरीदारी के कार्यक्रम को बंद करने के संकेत दिये, विदेशी निवेशकों ने भारतीय बाजारों से पूँजी निकालना आरंभ कर दिया। इसका नकारात्मक असर भारतीय मुद्रा पर पड़ा। इंडिया फॉरेक्स एडवाइजर्स के संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी अभिषेक गोयनका के अनुसार, फेडरल रिजर्व के इस संकेत के बाद डॉलर में मजबूती आ गयी। विदेशी निवेशकों ने ऋण (डेट) बाजार से भारी मात्रा में रकम की निकासी किये जाने से भी रुपये पर दबाव बना। चालू खाता घाटा या सीएडी (विदेशी मुद्रा की आवक और निकासी का अंतर) खतरनाक स्तर पर पहुँचने की वजह से भी रुपया कमजोर हुआ। अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने रुपये की कमजोरी पर टिप्पणी करते हुए कहा कि भारतीय मुद्रा में यह गिरावट अर्थव्यवस्था के कमजोर होने से आयी है।
दरअसल क्यूई (मौद्रिक ढील) के तीन चरणों के जरिये बाजार में पाँच खरब डॉलर से अधिक की पूँजी की आपूर्ति की गयी थी। इस उपलब्धता की वजह से अमेरिका और भारत में मिलने वाली ब्याज दर के फर्क का फायदा उठाने के लिए विदेशी निवेशकों ने साल 2008 के बाद से भारत में जम कर निवेश किया था। फेडरल रिजर्व के मुताबिक वैश्विक बाजारों से अतिरिक्त पूँजी को 2014 के मध्य तक निकाल लिया जायेगा।
रुपये के कमजोर होने से देश पर विदेशी कर्ज का बोझ बढ़ रहा है। कमजोर रुपया देश की साख बिगाड़ रहा है। कमजोर रुपया देश में होने वाले आयात को महँगा करेगा और देश के खजाने पर दबाव बनायेगा। अभी जो विदेशी मुद्रा भंडार है वह महज सात-आठ महीने के आयात के लिए पर्याप्त है। आरबीआई ने भी माना है कि विदेशी मुद्रा भंडार में एकत्र होने वाले डॉलर का एक बड़ा हिस्सा शेयर बाजार के रास्ते आ रहा है और यह रास्ता कब बंद हो जायेगा, किसी को नहीं पता।
कारोबारी साल 2012-13 में भारत का चालू खाते का घाटा इसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 4.8% के रिकॉर्ड स्तर तक पहुँच गया। मौजूदा स्थिति में इस घाटे की पूर्ति के लिए तकरीबन 90 अरब डॉलर की जरूरत है। क्रिसिल रिसर्च के मुख्य अर्थशास्त्री धर्मकीर्ति जोशी के अनुसार, यह काम आसान नहीं है क्योंकि वैश्विक बाजारों से पूँजी की निकासी होनी तय है। अन्य उभरते बाजारों के मुकाबले विकास की कम होती दर के कारण एक निवेश विकल्प के तौर पर भारत का आकर्षण भी कम होता दिख रहा है।
जोशी के अनुसार, भले ही साल 2012-13 की चौथी तिमाही में चालू खाता घाटा देश की जीडीपी के 3.6% पर आ गया हो, लेकिन यह कमी अस्थायी है और साल 2013-14 में यह बढ़ कर जीडीपी का 4.5% रहने का अनुमान है। हालाँकि इडेलवाइज सिक्योरिटीज के अनुसार मौजूदा साल में यह जीडीपी का 4% रह सकता है। नोम्युरा ने 4.3% और बैंक ऑफ अमेरिका-मेरिल लिंच ने 4.4% सीएडी रहने का आकलन सामने रखा है। जानकार बताते हैं कि यदि कच्चे तेल और सोने की कीमतों में नरमी बनी रही तो निश्चित तौर पर चालू खाते का घाटा भी कम रह सकता है।
तात्कालिक तौर पर रुपये की कमजोरी को थामने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक को अभी 25-30 अरब डॉलर की बिक्री और करनी पड़ सकती है। इसके अतिरिक्त तकरीबन 100-120 अरब डॉलर की व्यवस्था करनी होगी जिससे कुछ और महीनों के आयात के लिए विदेशी मुद्रा जुट सके। जहाँ तक अतिरिक्त डॉलरों की व्यवस्था का प्रश्न है, इसके लिए अनिवासी भारतीयों के लिए विशेष जमा योजनाएँ लायी जा सकती हैं। साथ ही विदेशी निवेशकों के लिए बॉन्ड योजनाओं को शुरू किया जा सकता है।
विदेशी निवेश को लुभाने के लिए सरकार ने पिछले एक महीने के दौरान कई बड़े नीतिगत फैसले किये हैं। सरकार को उम्मीद है कि इन फैसलों की वजह से अगले दो सालों में देश में तकरीबन 40 अरब डॉलर का निवेश आ सकता है। इसके अलावा इसे अपने आयात में कुछ कमी लानी होगी ताकि चालू खाते के घाटे को कम किया जा सके। हालाँकि भारत के आयात ढाँचे को देखते हुए यह काम आसान नहीं है। जब चालू खाते के घाटे में कमी आयेगी और विदेशी मुद्रा भंडार में बढ़ोतरी होगी तो रुपये में मजबूती आ सकती है।
क्रिसिल रिसर्च की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, विदेशी पूँजी की निकासी और रुपये में तीखी गिरावट छोटी अवधि के लिए है और फेडरल रिजर्व के कार्यक्रम के नतीजों की अनिश्चितता के प्रतिक्रियास्वरूप हैं। सरकार सुधार कार्यक्रम को आगे बढ़ा रही है और साथ ही साथ देशी-विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के उपाय कर रही है। यदि सरकार इस काम को सफलतापूर्वक कर सकी तो विदेशी पूँजी का प्रवाह भारत की ओर लौट सकता है।
(निवेश मंथन, जुलाई 2013)