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खाद्य सुरक्षा : विलंब का गुनहगार कौन

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Category: जुलाई 2013

राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :

गरीबों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने के लिए यूपीए सरकार ने अंतत: राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल को अमली जामा पहनाने के लिए अध्यादेश जारी कर दिया है।

दिल्ली राज्य सरकार ने इसे 20 अगस्त 2013 से लागू करने का भी फैसला लिया है। इस विधेयक से देश की 67% आबादी को खाद्य सुरक्षा का कानूनी हक मिल जायेगा। इस विधेयक के लाभार्थियों को 5 किलोग्राम प्रति व्यक्ति के हिसाब से आगामी तीन साल तक स्थिर कीमतों पर चावल 3 रुपये, गेहूँ 2 रुपये और मोटा अनाज 1 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से मुहैया कराया जायेगा। इसके साथ ही निर्धनतम परिवारों के लिए अंत्योदय योजना को जारी रखा गया है। इसके तहत प्रति व्यक्ति 7 किलोग्राम अनाज लाभार्थियों को दिया जाता है। देश में 2.47 करोड़ परिवार इस श्रेणी में आते हैं। सरकार के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र की 75% और शहरी क्षेत्र की 50% आबादी को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक का लाभ मिलेगा। सरकारी अनुमानों के मुताबिक इस महाकार्य के लिए 6.12 करोड़ टन अनाज की आवश्यकता होगी। इस पर 1,24,724 करोड़ रुपये सरकारी खजाने से खर्च होंगे।
कांग्रेस ने 2009 के अपने चुनावी घोषणा पत्र में इस कानून को लाने का वायदा किया था। जून 2009 में संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति ने भी इसकी घोषणा की थी। कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने दिसंबर 2011 में इस विधेयक को संसद में पेश किया था। लेकिन विपक्षी दलों खास कर भाजपा के संसद में लगातार हंगामे के कारण संसद में इस पर बहस नहीं हो सकी। अब भाजपा का यह कहना थोथा लगता है कि मानसून सत्र नजदीक होते हुए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लाना संसदीय परंपराओं की घोर अवहेलना है। भाजपा का विरोध इसलिए भी वाजिब नहीं लगता है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सिफारिशों के काफी अनुरूप भाजपा-शासित छत्तीसगढ़ सरकार छत्तीसगढ़ खाद्य सुरक्षा कानून दिसंबर 2012 में लागू कर चुकी है।
देश में भूख और कुपोषण की स्थिति भयावह है। पिछले 20 सालों में तेज आर्थिक तरक्की के बावजूद देश में भूखे लोगों और कुपोषण की स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है। खाद्य नीति संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व भूख सूचकांक की 79 देशों की सूची में भारत 65वें स्थान पर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 2005-10 में कम वजन के बच्चों की 129 देशों की सूची में भारत 128वें स्थान पर है, यानी नीचे से दूसरा। सरकार के अपने दस्तावेजों के अनुसार देश में पाँच साल की उम्र तक के आधे से ज्यादा बच्चे भारी कुपोषण के शिकार हैं। देश में बाली उम्र की 36% महिलाएँ कम वजन की हैं। देश में कुपोषण और भूखे लोगों की स्थिति को देखते हुए खाद्य सुरक्षा विधेयक लाना सराहनीय है।
लेकिन देश के उदारवादी, बाजारवादी आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि इससे देश के सरकारी खजाने पर भारी बोझ बढ़ेगा। सरकारी घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 4.8% तक रखना मुश्किल हो जायेगा। असल में यह वर्ग इसको खाद्य सुरक्षा बनाम राजकोषीय जिम्मेदारी बना देने पर तुला हुआ है। इस तबके की चिंता यह है कि सरकारी खजाने की एक बड़ी राशि इस खाद्य सुरक्षा विधेयक पर खर्च हो जायेगी, जिससे कॉर्पोरेट जगत के लिए छूट और कमाई के संसाधनों में कमी हो जायेगी। लेकिन याद करें कि 2008 में उपजे विश्व आर्थिक संकट के समय देश के धनाढ्य कॉर्पोरेट क्षेत्र को 1,86,000 करोड़ रुपये की विशेष सहायता दी गयी थी। तब इसके फलस्वरूप देश का सरकारी घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 6.5% तक पहुँच गया था। लेकिन तब ये आवाजें केंद्र सरकार के स्तुतिगान में लगी हुई थीं। खाद्य सुरक्षा से आर्थिक बोझ का सवाल न केवल अतार्किक, बल्कि अमानवीय भी है। 
सबसे बड़ा खतरा खाद्यों के वितरण को लेकर है। सर्वमान्य तथ्य है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली से 40% अनाज खुले बाजार में बिकने आ जाता है। लेकिन इस मामले में छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश की सरकारों से बाकी राज्य सबक ले सकते हैं। इन प्रदेशों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का अधिकतम लाभ वहाँ की आबादी को मिल रहा है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली में राशन की दुकानें राज्य सरकारें आवंटित करती हैं। ये दुकानें प्राय: राजनीतिक कार्यकर्ताओं या उनके समर्थकों को ही मिलती हैं। इसलिए इस लूटमारी को न्यूनतम करने की पूरी जिम्मेदारी और जवाबदेही राजनीतिक दलों की है। खाद्य सुरक्षा विधेयक संसद में 2011 में पेश हो चुका था। संसदीय समिति भी इस पर अपनी सिफारिशें दे चुकी है। लेकिन संसद में इस पर बहस नहीं हो सकी। इसके लिए गुनहगार कौन है?
(निवेश मंथन, जुलाई 2013)

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