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अमेरिकी शैल गैस ने बदला समीकरण

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Category: जून 2013

नरेंद्र तनेजा , ऊर्जा विशेषज्ञ :

अमेरिका विश्व में तेल और गैस का सबसे बड़ा उपभोक्ता और आयातक देश है, लिहाजा अमेरिका के ऊर्जा बाजार का पूरे विश्व पर प्रभाव पड़ता है।

पिछले चार सालों में शैल गैस ने पूरा परिदृश्य बदल दिया है। अमेरिका में शैल गैस के अपार भंडार मिले हैं, जिससे अमेरिका के उद्योगों के समक्ष ईंधन की समस्या काफी हद तक खत्म हो गयी है। अमेरिका में गैस का औसत मूल्य लगभग 3.8 डॉलर प्रति यूनिट या इससे भी कम है। वहाँ गैस की वितरण प्रणाली भी विश्व में सबसे उम्दा है और गैस पाइपलाइन का जाल लगभग 26 लाख किलोमीटर का है। आप अमेरिका के किसी भी क्षेत्र में गैस उत्पादन कर उसे बड़ी सरलता से देश के किसी दूसरे कोने तक पहुँचा सकते हैं। इसके विपरीत भारत में समस्या यह है कि यहाँ गैस पाइपलाइन नेटवर्क मात्र 12,000-13,000 किलोमीटर लंबा है, जिसके चलते गैस को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में काफी दिक्कतें आती हैं। वितरण की मुश्किलों के चलते ही हम बड़े स्तर पर कोयला भी आयात कर रहे हैं, क्योंकि देश में कोयला तो है, लेकिन उस तक पहुँच नहीं है।
अमेरिका का मानना है कि अगले पाँच वर्षों में यानी 2018 तक वह ऊर्जा के क्षेत्र में पूरी तरह आत्मनिर्भर हो जायेगा। तब वह आयात बाजार से काफी हद तक हट जायेगा और निर्यात बाजार में सक्रिय हो जायेगा। अभी अमेरिका में गैस के निर्यात पर रोक लगी हुई है। भारत सरकार अमेरिका पर लगातार गैस के निर्यात की इजाजत देने को लेकर दबाव डालती रही है। गेल इंडिया ने अमेरिका से वहाँ से गैस लाने के लिए दो समझौते भी किये हैं। अमेरिका की इस्पात, मैन्युफैक्चरिंग और कार लॉबी गैस निर्यात के पक्ष में नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें सस्ती गैस नहीं मिलेगी। दूसरी ओर भारत और चीन दोनों अमेरिका पर निर्यात के लिए दबाव ड़ाल रहे हैं। अमेरिका ने गैस निर्यात शुरू करने के संकेत भी दिये हैं।
तेल-गैस में अमेरिकी आत्मनिर्भरता का असर अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर कितना होगा, यह इस बात पर निर्भर है कि अमेरिका वैश्विक स्तर पर गैस का बड़ा निर्यातक बन सकेगा या नहीं। लेकिन पिछले लगभग एक साल से यह देखने को मिला है कि अमेरिका के बदले भारत और चीन के जीडीपी के आँकड़ों से तेल-गैस बाजार ज्यादा प्रभावित होता है। आने वाले दिनों में भारत, चीन, जापान और कोरिया - यही चार देश ऊर्जा के सबसे बड़े आयातक देश होंगे।
कीमतें हमेशा दो चीजों से तय होती हैं - माँग और आपूर्ति। माँग आपूर्ति से ज्यादा है तो कीमतें कम होनी चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए भारत और चीन में तेल-गैस की माँग ज्यादा नहीं बढ़ेगी। यह सामान्य रूप से लगभग 6% के आसपास बढ़ती रहेगी।
दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय राजनयिक संबंधों का भी बहुत असर रहेगा। राजनयिक जोखिम बढऩे से कीमतें ऊपर जाती हैं। तेल और गैस के बड़े निर्यातक देशों में रूस, मध्य पूर्व के देश, ब्राजील, वेनेजुएला, नाइजीरिया और अंगोला शामिल हैं। इन देशों में राजनीतिक अस्थिरता हमेशा बनी रहती है। इसलिए एक तरफ जहाँ माँग-आपूर्ति के आधार पर कीमतें घटने की संभावना एक से 10 के पैमाने पर 7.5 कही जा सकती है, तो दूसरी ओर राजनयिक स्थितियों के जोखिम के चलते एक से 10 के पैमाने पर कीमतें बढऩे की संभावना भी आठ लगती है। राजनयिक जोखिम रूस, वेनेजुएला और मध्य पूर्व के देशों को लेकर ज्यादा है। रूस विश्व में तेल का दूसरा बड़ा निर्यातक देश है और वह राजनीतिक रूप से स्थिर नहीं है।
इस तरह माँग-आपूर्ति और राजनयिक जोखिम - ये दोनों बातें एक दूसरे को काट रही हैं। इन दोनों के संतुलन के चलते ब्रेंट क्रूड की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल के आसपास चलती रहेगी। एक और पहलू यह है कि तेल की कीमतें घट कर 65 डॉलर प्रति बैरल के आसपास चले जाने पर ईराक, ईरान, सऊदी अरब जैसे देशों में युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराने वाली परियोजनाओं पर असर पड़ेगा। इन परियोजनाओं के लिए उन्हें पैसा चाहिए, जो तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल के आसपास रहने पर भी मिल पायेगा। इन योजनाओं के अटकने पर वहाँ आतंरिक अशांति फैलेगी, जिससे तेल की कीमतें फिर बढ़ जायेंगी। इस तरह यह कश्मकश चलती रहेगी। हो सकता है कि भविष्य में तेल की कीमतें घट कर 70 डॉलर प्रति बैरल हो जायें और बाद में फिर से बढ़ कर 100 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच जायें। यदि सब कुछ ठीक रहता है तो 70-100 डॉलर का एक दायरा बना रहेगा। तेल का बहुत बड़ा आयातक देश होने के कारण यह स्थिति भारत के लिए फायदेमंद है।
यदि अमेरिका से गैस के निर्यात की इजाजत मिल जाती है तो भारत-चीन को इससे बहुत फायदा होगा। ओएनजीसी, इंडियन ऑयल, रिलायंस सभी धीरे धीरे कदम आगे बढ़ा रही हैं और अवसर ढूँढ़ रही हैं। भारत में गैस की जरूरत बहुत है। यहाँ 66% बिजली का उत्पादन कोयले से हो रहा है। इसे घटाना जरूरी है क्योंकि हम कोयला भी आयात कर रहे हैं।
(निवेश मंथन, जून 2013)

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