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लौट आये नारायणमूर्ति

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Category: जून 2013

इन्फोसिस की डगमगाती नैया को सँभालने के लिए इसके जन्मदाता खेवनहार एन आर नारायणमूर्ति वापस लौट आये हैं।

इसे नारायणमूर्ति 2.0 कहा जा रहा है, क्योंकि आईटी क्षेत्र में अक्सर उत्पादों के नाम इसी तरह रखे जाते हैं। इससे पहले हाल में इन्फोसिस ने जब खुद को नये ढंग से चलाने के लिए अलग रणनीति बनायी तो इसे इन्फोसिस 3.0 कहा गया। अब नारायणमूर्ति 2.0 को यह समीक्षा करनी है कि इन्फोसिस 3.0 में कौन-से सुधार करने हैं।
शनिवार 1 जून 2013 को जब इन्फोसिस ने खबर दी कि 66 वर्षीय एन आर नारायणमूर्ति कंपनी में वापस लौट रहे हैं, तो यह सबके लिए एक चौंकाने वाली खबर थी। नारायणमूर्ति के शब्दों में खुद उनके लिए भी यह वापसी अचानक, अप्रत्याशित और असामान्य बात थी।
नारायणमूर्ति अगर पूरी तरह सेवानिवृत होने के बाद कंपनी में वापस लौटे हैं तो निश्चित रूप से इसके खास मायने हैं। पहला सीधा मतलब यही है कि शीर्ष प्रबंधन को लेकर इन्फोसिस के हाल के प्रयोगों को असफल मान लिया गया है। कंपनी ने अपने संस्थापक-समूह के लोगों को एक-एक कर नेतृत्व का मौका देने की जो अघोषित नीति चलायी थी, उस नीति से हट कर कंपनी वापस अपने मुख्य संस्थापक की शरण में लौट आयी है।
यहाँ गौरतलब है कि नारायणमूर्ति कार्यकारी (एक्जीक्यूटिव) चेयरमैन की भूमिका में लौटे हैं। मतलब यह है कि वे कामकाजी स्तर पर भी पूरे सक्रिय ढंग से कंपनी का नेतृत्व करेंगे। अगर वे नॉन-एक्जीक्यूटिव चेयरमैन बनते तो इसका मतलब होता कि केवल निदेशक बोर्ड के स्तर पर वे कंपनी को दिशा देने का काम करेंगे, लेकिन कामकाजी स्तर पर सक्रिय भूमिका नहीं निभायेंगे।
नारायणमूर्ति की इस वापसी में इन्फोसिस पर नजर रखने वालों के लिए एक और असामान्य बात थी। नारायणमूर्ति का साथ देने के लिए उनके बेटे डॉ. रोहन मूर्ति भी पहली बार इन्फोसिस से जुड़ेंगे। इससे पहले कभी रोहन मूर्ति ने इन्फोसिस के लिए काम नहीं किया और न ही कभी ऐसी इच्छा जतायी। कंपनी ने अपने संस्थापकों के बच्चों को कंपनी से नहीं जोडऩे की नीति अपना रखी थी। इस लिहाज से यह शुद्ध पेशेवर ढंग से आगे बढऩे वाली कंपनी रही थी।
क्या यह स्थिति बदलने जा रही है? अभी ऐसा मान लेना जल्दबाजी होगी, क्योंकि रोहन मूर्ति की भूमिका के बारे में कहा गया है कि वे केवल नारायणमूर्ति को अधिक प्रभावी ढंग से काम करने में मदद के लिए उनके कार्यकारी सहायक के तौर पर चेयरमैन के दफ्तर में होंगे। रोहन मूर्ति को कोई नेतृत्व वाली भूमिका नहीं दी जा रही। लेकिन पीढ़ी-दर-पीढ़ी नेतृत्व का हस्तांतरण जिन समूहों में होता रहा है, उनमें भी अक्सर अगली पीढ़ी के %युवराज’ बिल्कुल पहले पायदान पर अपने काम की शुरुआत करते हैं। हालाँकि उस समय भी सबको पता होता है कि युवराज की मंजिल क्या है। इसलिए इन्फोसिस में रोहन मूर्ति के इस आगमन को कंपनी के भावी नेतृत्व की तलाश के नजरिये से देखना अस्वाभाविक नहीं होगा।
रोहन मूर्ति की पृष्ठभूमि केवल इतनी नहीं है कि वे नारायणमूर्ति के बेटे हैं। रोहन हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के जूनियर फेलो हैं और हार्वर्ड से उन्होंने कंप्यूटर साइंस में पीएचडी किया है। उन्होंने कॉर्नेल यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर साइंस में बैचलर डिग्री ली है और एमआईटी के साथ-साथ माइक्रोसॉफ्ट रिसर्च से भी फेलोशिप हासिल की है। वायरलेस और मोबाइल कंप्यूटिंग पर अपने रिसर्च में उन्होंने कई रिसर्च पेपर लिखे हैं और पेटेंट भी हासिल किये हैं।
ध्यान रखना चाहिए कि नारायणमूर्ति इन्फोसिस में अपनी पहली पारी में केवल एक पेशेवर प्रबंधक के रूप में नहीं जुड़े थे, बल्कि उसके मुख्य संस्थापक थे। नारायणमूर्ति और उनके परिवार के पास कंपनी की 4.47% हिस्सेदारी है, जो प्रमोटर समूह के बाकी परिवारों, यानी नीलकेणि परिवार, गोपालकृष्णन परिवार और शिबुलाल परिवार की तुलना में कहीं ज्यादा है।
इसलिए यह मानना एकदम गलत होगा कि इन्फोसिस से सेवानिवृत होने के बाद कंपनी में नारायणमूर्ति के हित जुड़े नहीं रह गये थे। अगर कंपनी का प्रदर्शन कमजोर हो रहा था तो एक प्रमोटर और बड़े शेयरधारक के रूप में उनके हित प्रभावित हो रहे थे। कहा जा सकता है कि उन्होंने कंपनी की स्थापना में साथ रहे सहयोगियों को एक-एक करके नेतृत्व का मौका देने की नीति चुनी, लेकिन जब लगा कि यह प्रयोग सफल नहीं हो पा रहा तो उन्होंने वापस आकर कमान सँभाल ली। स्वाभाविक रूप से इस खबर पर शेयर बाजार में अच्छा उत्साह दिख रहा है। इस खबर के बाद पहले कारोबारी दिन, यानी सोमवार 3 जून को शुरुआती कारोबार में इन्फोसिस के शेयर में करीब 9% की जबरदस्त उछाल दिखी। गौरतलब है कि इस घोषणा के एक दिन पहले शुक्रवार 31 मई को भी इन्फोसिस ने अपने क्षेत्र के बाकी दिग्गजों से अलग चाल दिखाते हुए 2.8% की अच्छी बढ़त दर्ज की थी।
लेकिन इस शुरुआती उत्साह के बाद बाजार बारीकी से इस पर नजर रखेगा कि नारायणमूर्ति की वापसी से कंपनी के प्रदर्शन पर कैसा असर पड़ता है। लेकिन इस असर को आँकने में कम-से-कम छह महीने तो लग ही जायेंगे।
(निवेश मंथन, जून 2013)

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