केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मंगलवार चार जून 2013 को भूसंपदा नियमन और विकास विधेयक (रियल एस्टेट रेगुलेशन ऐंड डेवलपमेंट बिल) पर मुहर लगा दी।
हालाँकि इसके दायरे में केवल आवासीय परियोजनाओं को रखा गया है, व्यावसायिक भवनों को नहीं। इस विधेयक का मुख्य उद्देश्य भवन-निर्माताओं (बिल्डरों या डेवलपरों) के मनमाने व्यवहार पर अंकुश लगाना, इस क्षेत्र के कामकाज में पारदर्शिता लाना और ग्राहकों के हितों को सुरक्षित करना है। इस क्षेत्र के ज्यादातर जानकार और खुद भवन-निर्माता भी इस बात से सहमत हैं कि इस विधेयक में ग्राहकों के हितों की सुरक्षा करने वाले पर्याप्त प्रावधान हैं। हालाँकि भवन-निर्माताओं की शिकायत यह है कि उन पर शिकंजा कुछ ज्यादा ही कस दिया गया है।
इस विधेयक को 1,000 वर्ग मीटर से बड़ी या 12 से ज्यादा अपार्टमेंट वाली सभी आवासीय परियोजनाओं पर लागू किया जायेगा। इससे स्पष्ट है कि इसका दायरा काफी बड़ा होगा और देश में संगठित क्षेत्र में विकसित होने वाली लगभग सभी निजी रिहाइशी परियोजनाएँ इसके घेरे में होंगी। यहाँ तक कि दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) जैसे सरकारी प्राधिकरणों की ओर से बनायी जाने वाली परियोजनाओं पर भी यह नियमन लागू होगा। इस विधेयक के प्रावधानों के अनुसार अब कोई परियोजना तब तक शुरू नहीं हो पायेगी या उसके विज्ञापन तब तक नहीं दिये जा सकेंगे, जब तक सारी अनुमतियाँ नहीं मिल जायें। इस प्रावधान पर रियल एस्टेट कंपनियों के संगठन क्रेडाई के एनसीआर अध्यक्ष और आम्रपाली समूह के सीएमडी अनिल कुमार शर्मा कहते हैं कि ‘यह अच्छी बात है, क्योंकि रियल एस्टेट में रातों-रात गायब हो जाने वाले काफी लोग होते हैं। इससे उन लोगों पर नियंत्रण हो सकेगा।’
जेएलएल इंडिया के चेयरमैन और कंट्री हेड अनुज पुरी कहते हैं कि ‘केंद्रीय मंत्रिमंडल ने रियल एस्टेट क्षेत्र के लिए विधेयक को स्वीकृति देकर इस क्षेत्र में पारदर्शिता लाने और इसके नियमन (रेगुलेशन) का रास्ता साफ कर दिया है, जिसकी काफी जरूरत थी। भारत में आवासीय (हाउसिंग) क्षेत्र अब तक मोटे तौर पर नियमन से बाहर रहा है। यह विधेयक जब कानून की शक्ल लेगा तो इससे सामान्य ग्राहकों और निवेशकों को काफी राहत मिलेगी, जो कोई संपत्ति खरीदते समय काफी बाधाओं से गुजरते हैं। कई बार छोटे डेवलपरों, बिल्डरों और ब्रोकरों से उन्हें धोखे भी मिलते हैं।’
पुरी कहते हैं कि प्रमोटरों को सख्त नियमों में कसते हुए यह विधेयक सुनिश्चित करेगा कि न केवल परियोजना का निर्माण समयबद्ध ढंग से पूरा हो, बल्कि अंत में ग्राहक को मिलने वाली संपत्ति वैसी ही हो जिसका वादा किया गया था।
इस विधेयक में नियामक प्राधिकरण और अपीलीय न्यायाधिकरण (ट्राइब्यूनल) के गठन का प्रावधान है, जिससे विवादों के समाधान की एक प्रणाली बनेगी। एक केंद्रीय अपीलीय न्यायाधिकरण का गठन होगा। वहीं विभिन्न राज्यों को अपने स्तर पर नियामक प्राधिकरण बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। इनके जरिये उपभोक्ताओं की शिकायतों का समाधान हो सकेगा, जिन्हें आज की स्थिति में न्यायालयों या उपभोक्ता अदालतों में लंबे समय चलने वाली मुकदमेबाजी से गुजरना पड़ता है। शर्मा कहते हैं कि नियामक के गठन से उपभोक्ताओं को अपनी समस्याओं के लिए कई दरवाजों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे और नियामक प्राधिकरण में उनका निदान हो सकेगा।
नेशनल रियल एस्टेट डेवलपमेंट काउंसिल (नरेडको) के अध्यक्ष और रहेजा डेवलपर्स के एमडी नवीन एम. रहेजा जिक्र करते हैं कि यह विधेयक शहरी गरीबों के लिए घर की उपलब्धता भी सुनिश्चित करेगा, क्योंकि इसमें टाउनशिप यानी उपनगर परियोजनाओं में निम्न आय वर्ग के लिए एक हिस्सा बनाना अनिवार्य होगा।
खरीदारों को मिलेगी पूरी जानकारी
इस विधेयक में डेवलपरों को ऐसे भ्रामक विज्ञापन जारी करने से रोकने के भी प्रावधान हैं, जिनमें जमीनी स्तर पर हुए वास्तविक विकास से हट कर वादे किये जाते हैं। उन्हें यह भी स्पष्ट रूप से बताना होगा कि कौन-कौन सी स्वीकृतियाँ और अनुमतियाँ हासिल हो चुकी हैं। जब तक जरूरी स्वीकृतियाँ हासिल न हो जायें, तब तक वे किसी परियोजना की मार्केटिंग शुरू नहीं कर सकेंगे। उन्हें नियामक के पास परियोजना का अनिवार्य रूप से पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) कराना होगा। परियोजना के पंजीकरण के बाद ही वे बिक्री शुरू कर सकेंगे। इस तरह परियोजनाओं की मार्केटिंग और उन पर अमल में पारदर्शिता आयेगी। सभी योजनाओं और स्वीकृतियों के बारे में डेवलपर को सारी जानकारियाँ नियामक को देनी होंगी और वेबसाइट पर उपलब्ध करानी होगी। डेवलपर को उस परियोजना के विकास में लगने वाला समय स्पष्ट बताना होगा और उसका पालन करना होगा।
निर्माताओं के लिए यह जरूरी होगा कि ग्राहकों को मकान के क्षेत्रफल की जानकारी कार्पेट एरिया के आधार पर दें। कार्पेट एरिया को स्पष्ट रूप से परिभाषित करके इसे देश भर में मानक बनाया जायेगा। इस समय काफी निर्माता सुपर एरिया के आधार पर मकान का आकार बताते हैं और इसमें काफी अस्पष्टता रहती है कि वास्तव में खरीदार का मकान अंदर से कितना बड़ा होगा।
निर्माता और खरीदार के बीच होने वाले बिक्री समझौते (सेल एग्रीमेंट) का एक मॉडल प्रारूप भी बनाया जायेगा, जिसके तहत निर्माता को परियोजना के सारे जरूरी विवरण आवंटी को उपलब्ध कराने होंगे। निर्माता की यह जिम्मेदारी भी होगी कि खरीदार परियोजना के जिन विवरणों की माँग करे, उन्हें वह उपलब्ध कराये।
पुरी जिक्र करते हैं कि प्रमोटरों की ओर से दी जाने वाली जानकारियों की सूची भले ही काफी लंबी है, लेकिन यह सूची विकसित बाजारों के सर्वोत्तम व्यवहारों को पैमाना बना कर तैयार की जानी चाहिए थी। विकसित देशों के बाजारों में नियमन-प्रणाली लागू हुए एक अरसा बीत चुका है और उनके अनुभवों से लाभ उठाना चाहिए था।
जिसका पैसा, उसी पर खर्च
यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि जिस परियोजना के लिए ग्राहक से पैसा लिया जाये, उसी परियोजना में वह पैसा खर्च हो। किसी परियोजना के आवंटियों (एलॉटी) से प्राप्त रकम का 70% हिस्सा निर्माता को एक अलग खाते में जमा करना होगा और इस रकम का इस्तेमाल केवल उस खास परियोजना में ही किया जा सकेगा। डेवलपर उस रकम का इस्तेमाल कहीं और नहीं कर सकेंगे। हालाँकि इस विधेयक के स्वीकृत प्रारूप में कहा गया है कि सरकार यह सीमा 70% से कम भी कर सकती है, लेकिन यह सीमा ऐसी होनी चाहिए जो परियोजना की निर्माण लागत को पूरा कर सके।
पुरी कहते हैं कि इस विधेयक के मौजूदा प्रारूप को देखने से लगता है कि राज्यों की ओर से दिये गये कुछ सुझावों को मान लिया गया है। परियोजना के लिए एक अलग खाते में 70% राशि को रखना ऐसा ही एक सुझाव है।
हालाँकि शर्मा मानते हैं कि इसमें थोड़ा बदलाव करना चाहिए। दरअसल इस शर्त के चलते निर्माताओं के लिए नकदी की समस्या पैदा होने की संभावना जतायी जा रही है। सबसे पहली बात तो यही है कि जमीन की रजिस्ट्री कराने के बाद परियोजना शुरू की जा सकेगी। जमीन की कीमत परियोजना लागत का एक बड़ा हिस्सा होती है। इसके बाद ग्राहकों से मिलने वाली राशि का 70% हिस्सा एस्क्रो खाते में डालने के प्रावधान के चलते नकदी के प्रबंधन में डेवलपरों के हाथ बंध जायेंगे।
शर्मा बताते हैं कि कई बार ऐसा हो सकता है कि किसी एक परियोजना में आपके पास अतिरिक्त नकदी पड़ी हो, जबकि दूसरी परियोजना नकदी की कमी के चलते अटक रही हो। इसलिए उनका सुझाव है कि 70% की इस सीमा को कुछ घटाना चाहिए, क्योंकि भूमि के लिए कोई भी वित्तीय संस्था कर्ज उपलब्ध नहीं कराती है।
लेकिन इस विधेयक में निर्माताओं पर ऐसी पाबंदी लगाने का कारण यही है कि कई निर्माता संकट में फँसी पुरानी परियोजनाओं में अपनी नयी परियोजनाओं के ग्राहकों से मिला पैसा लगा देते हैं। इसके चलते आगे चल कर उनकी नयी परियोजनाओं का भी काम अटक जाता है और उनके ग्राहक मँझधार में फँस जाते हैं। कुछ निर्माताओं के ऐसे रवैये के मद्देनजर ही एक परियोजना का पैसा दूसरी परियोजना में लगाने पर रोक लगाने का प्रावधान लाया गया है।
सरकारी देरी पर सवाल
कुल मिला कर संपत्ति खरीदारों और उपभोक्ताओं को यह विधेयक काफी राहत देने वाला है। लेकिन दूसरी ओर डेवलपरों की यह शिकायत है कि उनके हितों का ध्यान नहीं रखा गया है। एक बड़ी शिकायत यह है कि विभिन्न सरकारी विभागों और प्राधिकरणों से अनुमतियाँ और स्वीकृतियाँ हासिल करने की जटिल प्रक्रिया से उन्हें कोई राहत नहीं दी गयी है। इस विधेयक में इन स्वीकृतियों को शीघ्र और समयबद्ध ढंग से दिलाने का कोई प्रावधान नहीं है। किसी परियोजना को स्वीकृति देने वाले विभागों और प्राधिकरणों वगैरह को इस विधेयक के दायरे से बाहर रखा गया है।
रहेजा कहते हैं कि परियोजनाओं को मंजूरी देने वाली सरकारी एजेंसियों समेत उन सभी भागीदारों को इस विधेयक के दायरे में लाना चाहिए था, जो रियल एस्टेट के विकास से जुड़े हैं। साथ ही उनका कहना है कि %नियामक को स्वीकृति प्रक्रिया सरल बनाते हुए इसका मानक तैयार करना चाहिए, जिससे इस क्षेत्र के विकास में मदद मिले। उपभोक्ताओं की सारी शिकायतें नियामक के पास जानी चाहिए। अन्य प्राधिकरणों, न्यायिक व्यवस्था और सभी प्रवर्तन एजेंसियों को नियामक के निर्देशों के आधार पर काम करना चाहिए।’
पुरी कहते हैं, ‘डेवलपर लगातार यह शिकायत करते रहे हैं कि निर्माण के लिए सरकार की विभिन्न एजेंसियों से मंजूरी पाने में उन्हें असामान्य ढंग से काफी देरी का सामना करना पड़ता है। ये अनुमतियाँ पाने में उन्हें काफी मुश्किलें पेश आती हैं। वे इस बात पर जोर देते रहे हैं कि इस लालफीताशाही से पार पाने के लिए सिंगल विंडो क्लीयरेंस की व्यवस्था बनाने की जरूरत है। लेकिन विधेयक में इस मसले का कोई जिक्र नहीं किया गया है।’
शर्मा बताते हैं, ‘अभी परियोजनाओं को मंजूरी मिलने में दो-ढाई साल तक समय लग जाता है। इसलिए स्वीकृति देने वाले प्राधिकरणों को भी इस विधेयक के दायरे में लाना चाहिए था, जिससे किसी डेवलपर का आवेदन एक समय-सीमा के अंदर स्वीकृत हो जाये। ऐसा होने पर परियोजना की लागत नहीं बढ़ेगी।’ सरकार की ओर से संकेत दिये जा रहे हैं कि इस समस्या का समाधान अन्य तरीकों से किया जायेगा। लेकिन शर्मा कहते हैं कि ‘अगर यह बात विधेयक में शामिल हो जाती तो जिस तरह हमारे लिए उपभोक्ता या सरकार को जवाब देना अनिवार्य बनेगा, उसी तरह से उनके लिए भी होता। अगर किसी क्षेत्र का विकास करना है तो केवल लगाम कसने और सख्ती करने से ही काम नहीं चलेगा, आपको उसे सहारा भी देना होगा।’
हालाँकि एक पहलू यह भी है कि इन परियोजनाओं के लिए बहुत सारी स्वीकृतियाँ राज्य स्तर पर लेनी होती हैं। लिहाजा ऐसे मसलों पर केंद्र सरकार के कानून की अपनी सीमाएँ हैं। इस विधेयक में राज्य सरकारों को राज्य स्तर पर नियामक प्राधिकरण बनाने के लिए कहा गया है। लेकिन डेवलपर यह सवाल भी पूछ रहे हैं कि अगर कोई राज्य अपने यहाँ नियामक प्राधिकरण न बनाये तो वहाँ क्या होगा? क्या वहाँ निर्माण कार्य बंद हो जायेंगे?
केवल निर्माता पर अंकुश?
ऐसा नहीं है कि इस विधेयक के जरिये केवल निर्माताओं की नकेल कसी जा रही है। इसमें आवंटी की ओर से भुगतान में चूक पर भी जुर्माना रखा गया है। पुरी कहते हैं कि ऐसा करके इस विधेयक में किसी भी ओर से चूक की संभावना को न्यूनतम करने का प्रयास किया गया है। रियल एस्टेट ब्रोकरों को भी इस विधेयक के दायरे में लाकर उनके पंजीकरण को भी अनिवार्य किया गया है।
लेकिन शर्मा इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि भवन-निर्माताओं के साथ 350 तरह की सहायक गतिविधियाँ चलाने वाले जुड़े होते हैं, जबकि विधेयक के दायरे में केवल निर्माताओं को रखा गया है। उनका कहना है कि अगर विधेयक के दायरे में बाकी भागीदारों को नहीं लाया जायेगा तो बात नहीं बनेगी। उनका कहना है कि बेशक प्रॉपर्टी डीलरों का पंजीकरण भी जरूरी बनाया गया है, लेकिन इस पंजीकरण के पैमानों को साफ करने की जरूरत महसूस की जा रही है। उनका सुझाव है कि प्रॉपर्टी डीलरों की वित्तीय मजबूती और विश्वसनीयता जैसे पहलुओं को भी शामिल करना चाहिए।
शर्मा कहते हैं कि उपभोक्ता भी एक भागीदार है और सभी खरीदार वास्तविक उपभोक्ता नहीं होते, बल्कि कुछ कारोबारी या निवेशक भी होते हैं। उनके नियंत्रण की भी व्यवस्था होनी चाहिए। अगर किसी ने एक से ज्यादा घर खरीदे हों तो यह नियंत्रण लगाया जाना चाहिए कि वह उनका कारोबार तो नहीं कर रहा है। बैंकों के लिए नियम होना चाहिए कि अगर कोई व्यक्ति एक घर के लिए कर्ज ले चुका है तो उसे दूसरे घर के लिए कर्ज न मिले। कुछ-न-कुछ तो सीमा होनी चाहिए। उनके मुताबिक जब वास्तविक खरीदार आते हैं तो निर्माता उनकी तुलना में निवेशकों-कारोबारियों को बेचना पसंद नहीं करते हैं। कोई व्यक्ति बुकिंग के तीन महीने बाद आ जाये कि मुझे बेचना है तो इन सब पर निर्माता कोई नियंत्रण नहीं लगा सकता है।
घटेगी आपूर्ति, बढ़ेंगे दाम
जमीन की रजिस्ट्री के बाद ही परियोजना शुरू करने, सारी स्वीकृतियाँ हासिल करने और नियामक के पास पंजीकरण कराने के बाद ही बिक्री शुरू करने और उसके बाद ग्राहकों से मिली रकम का 70% हिस्सा उसी परियोजना पर खर्च करने की अनिवार्यता के चलते बहुत से निर्माताओं के लिए नकदी का संकट पैदा होने की संभावना जतायी जा रही है। ऐसी रियल एस्टेट कंपनियों को लेकर बाजार अब ज्यादा चौकन्ना हो जायेगा, जिनके पास नकदी की कमी है या कर्ज का बोझ कुछ ज्यादा है।
शर्मा मानते हैं कि इन प्रावधानों के लागू होने पर बहुत से डेवलपरों को नयी परियोजनाएँ लाने में काफी समय लग जायेगा। इसके चलते मकानों की आपूर्ति घट जायेगी। उनके मुताबिक इसका असर 4-5 साल बाद शुरू होगा, क्योंकि मौजूदा स्वीकृत परियोजनाएँ ही अगले 4-5 सालों तक बाजार में रहेंगी। शर्मा कहते हैं कि इस विधेयक के लागू होने पर अगर किसी डेवलपर को नुकसान होगा तो यही कि उसकी परियोजनाओं की संख्या घट जायेगी। ऐसे में वह जो मुनाफा पाँच परियोजनाओं से कमाता था, उतना वह दो परियोजनाओं से निकालने की कोशिश करेगा। लोग मार्जिन बढ़ाना चाहेंगे।
एक तरफ आपूर्ति घटने और कम परियोजनाओं से ही ज्यादा मार्जिन पाने की कोशिश के चलते मकानों की कीमतें बढऩे लगेंगी। इसके चलते कीमतों पर काफी ज्यादा असर भी हो सकता है। कुछ जानकार कयास लगा रहे हैं कि यह असर 40-50% तक हो सकता है। किसी भी इलाके में आपूर्ति घट जाये तो संपत्ति की कीमतें आसमान छूने लगती हैं।
शर्मा कहते हैं कि ‘इसका भुक्तभोगी मध्य-वर्ग ही होता है। उपभोक्ता का फायदा केवल इस बात से सुनिश्चित नहीं होता है कि डेवलपर का नियमन हो जाये। उपभोक्ता को अच्छी कीमत चाहिए, अच्छी परियोजना चाहिए और वह समय पर पूरी होनी चाहिए। उसके हित में यही है कि बाजार में अच्छी आपूर्ति बनी रहे।’
अभी इस विधेयक पर केंद्रीय कैबिनेट ने मुहर लगायी है। आगे इसे संसद में पेश किया जायेगा और यह विधेयक दोनों सदनों में चर्चा और मतदान के बाद कानून बन पायेगा। इसलिए अभी इस विधेयक को कानून की शक्ल लेने में कुछ समय लग सकता है।
- साथ में बृजेश श्रीवास्तव
नियामक को स्वीकृति प्रक्रिया सरल बनाते हुए इसका मानक तैयार करना चाहिए, जिससे इस क्षेत्र के विकास में मदद मिले। सभी एजेंसियों को नियामक के निर्देशों के आधार पर काम करना चाहिए।
- नवीन एम. रहेजा, एमडी, रहेजा डेवलपर्स
यह सुनिश्चित करेगा कि न केवल परियोजना का निर्माण समयबद्ध ढंग से पूरा हो, बल्कि अंत में ग्राहक को मिलने वाली संपत्ति वैसी ही हो जिसका वादा किया गया था। इससे सामान्य ग्राहकों और निवेशकों को काफी राहत मिलेगी।
- अनुज पुरी, चेयरमैन और कंट्री हेड, जेएलएल इंडिया
अभी परियोजनाओं को मंजूरी मिलने में दो-ढाई साल तक समय लग जाता है। इसलिए स्वीकृति देने वाले प्राधिकरणों को भी इस विधेयक के दायरे में लाना चाहिए था, जिससे आवेदन एक समय-सीमा के अंदर स्वीकृत हो जाये।
- डॉ. अनिल कुमार शर्मा, सीएमडी, आम्रपाली समूह
(निवेश मंथन, जून 2013)