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मरीजों को मिलती रहेंगी सस्ती दवाएँ

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Category: अप्रैल 2013

सुशांत शेखर :

एक अप्रैल को दुनिया भर की निगाहें भारत के सर्वोच्च न्यायालय पर टिकी थीं।

न्यायालय उस दिन नोवार्तिस की रक्त कैंसर की दवा ग्लिवेक के पेटेंट पर फैसला सुनाने वाला था। इस फैसले से तय होना था कि मरीजों को सस्ती दवाएँ मिलती रहेंगी या नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में मरीजों के हक में फैसला दिया। अब दुनिया के कई देश इसी फैसले के आधार पर अपने पेटेंट कानून में बदलाव की सोच रहे हैं।
नोवार्तिस चाहती थी कि रक्त कैंसर की उसकी दवा ग्लिवेक के कथित उन्नत संस्करण का उसे पेटेंट दे दिया जाये। लेकिन न्यायालय ने इस मामले में इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी अपीलैंट बोर्ड यानी आईपीएबी के फैसले को सही ठहराते हुए कंपनी की याचिका खारिज कर दी। न्यायालय ने माना कि ग्लिवेक के नये संस्करण में ऐसा कोई नयापन नहीं है कि इसे फिर पेटेंट दे दिया जाये। न्यायालय ने कहा कि ग्लिवेक का नया संस्करण कोई ‘नया उत्पाद’ नहीं है। दरअसल भारतीय पेटेंट कानून की धारा 3डी के तहत किसी दवा में मामूली फेरबदल होने से उसे दोबारा पेटेंट नहीं दिया जा सकता।
नोवार्तिस की दवा ग्लिवेक का पेटेंट 2010 में खत्म हो गया था। इससे पहले 2005 में ही नोवार्तिस ने ग्लिवेक के नये संस्करण का पेटेंट लेने की अर्जी दे दी थी। पेटेंट विभाग ने 2006 में कंपनी की अर्जी खारिज कर दी। नोवार्तिस ने इस फैसले को आईपीएबी में चुनौती दी थी, जिसने 2009 में पेटेंट विभाग का फैसला बरकरार रखा।
भारत ही नहीं, दुनिया के तमाम देशों में पेटेंट सामान्य तौर पर 20 साल के लिए दिये जाते थे। पेटेंट की अवधि खत्म होने के बाद कोई भी दूसरी कंपनी उस दवा का जेनरिक रूप, यानी वही अपने तरीके से विकसित करके बना सकती है।
मरीजों को कितना फायदा
नोवार्तिस पेटेंट विवाद ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने बड़ा अहम सवाल रखा था। सवाल यह था कि पेटेंट की रक्षा की जाये या मरीजों की। न्यायालय ने मरीजों के पक्ष में फैसला दिया। कैंसर, एड्स, किडनी की खराबी, ब्रेन ट्यूमर जैसी बीमारियों का इलाज बहुत महँगा है। आम मरीजों के लिए इन बीमारियों का इलाज करा पाना बहुत मुश्किल हो जाता है, क्योंकि इनकी दवाइयाँ बहुत महँगी होती हैं।
कैंसर, एड्स जैसी बीमारियों के इलाज में जेनरिक दवाएँ एक नयी उम्मीद लेकर आती हैं। पेटेंट वाली और जेनरिक दवाओं की कीमतों में कई गुना फर्क है। मसलन जर्मनी की कंपनी बेयर कैंसर की अपनी दवा नक्सावर की एक महीने की खुराक करीब 2.80 लाख रुपये में बेचती है। हैदराबाद की नैटको फार्मा इसी दवा का जेनेरिक रूप 8,800 रुपये में बेचती है।
इसी तरह बिस्टल मेयर की कैंसर की दवा की एक महीने की खुराक 1 लाख 65 हजार रुपये की है। यही दवा नैटको फार्मा 9,000 रुपये में बेचती है। बीडीआर फार्मा ने इसी दवा को 8,100 रुपये में बेचने की पेशकश की है। फाइजर की कैंसर की दवा सूटेंट की 45 दिनों की खुराक 1.96 लाख रुपये में मिलती है। लेकिन सिप्ला इसका जेनरिक रूप 50,000 रुपये में बेचती है। इसी तरह रोश की दवा टार्सेवा की एक टैबलेट 4800 रुपये की है। इसी दवा का जेनरिक रूप सिप्ला 1600 रुपये में बेचती है।
क्या है अनिवार्य लाइसेंस नियम
सामान्य तौर पर अगर किसी कंपनी के पास किसी उत्पाद का पेटेंट है तो कोई दूसरी कंपनी उसे बना या बेच नहीं सकती। अगर पेटेंटधारी कंपनी चाहे तो वह एक शुल्क लेकर किसी दूसरी कंपनी को उत्पाद बनाने या बेचने की अनुमति दे सकती है। लेकिन कुछ स्थितियों में सरकार पेटेंटधारी कंपनी की मर्जी के बिना किसी अन्य कंपनी को वह उत्पाद बनाने और बेचने की इजाजत दे सकती है। इसे अनिवार्य लाइसेंस का नियम कहा जाता है। इसी नियम के आधार पर पिछले साल मार्च में पेटेंट विभाग ने हैदराबाद की नैटको फार्मा को जर्मनी की दवा कंपनी बेयर की पेटेंट वाली कैंसर की दवा नक्सावर के उत्पादन की इजाजत दी थी।
अनिवार्य लाइसेंस का नियम विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) के बौद्धिक संपदा अधिकार के कारोबार संबंधित पहलुओं यानी ट्रिप्स समझौते का हिस्सा है। अनिवार्य लाइसेंस नियम 1995 से ही अस्तित्व में है। साल 2001 में दोहा घोषणापत्र के जरिये इसे स्पष्ट भी किया गया था। अमेरिका के अलावा ज्यादातर देशों में अनिवार्य लाइसेंस का नियम है। आम मरीजों के हितों की रक्षा के लिए विकासशील देशों के दबाव के बाद ट्रिप्स समझौते में अनिवार्य लाइसेंस का नियम शामिल किया गया था।
किन हालात में लागू होता है अनिवार्य लाइसेंस नियम
ट्रिप्स ने हर देश को अनिवार्य लाइसेंस के बारे में अपनी शर्तें तय करने की आजादी दी है। भारतीय पेटेंट अधिनियम के तहत सरकार ने अनिवार्य लाइसेंस नियम लागू होने के लिए तीन शर्तें रखी हैं।
1. जब उत्पाद के संबंध में लोगों की वाजिब जरूरतें पूरी ना हो रही हों।
2. जब देश में पेंटट वाला उत्पाद वाजिब कीमत पर उपलब्ध न हो।
3. जब उत्पाद का पूरी तरह व्यावसायिक इस्तेमाल न किया गया हो।
सरकार जनहित में अनिवार्य पेटेंट का नियम लागू कर सकती है। साथ ही इसके लिए आपातकालीन स्थिति का होना जरूरी नहीं है। हालाँकि अनिवार्य लाइसेंस का नियम लागू होने की स्थिति में भी पेंटेटधारी कंपनी को वाजिब दर पर रॉयल्टी मिलेगी और देश के बाहर उसका पेटेंट बरकरार रहेगा। साथ ही यह नियम पेटेंट मिलने के कम-से-कम तीन साल बाद ही लागू हो सकता है।
क्या आगे सस्ती होंगी दवाएँ
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का देश के दवा उद्योग पर दूरगामी असर पडऩे की उम्मीद है। यह फैसला भारत में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर कर सकता है। दरअसल अगले दो सालों में ही कई मशहूर दवाओं के पेटेंट खत्म होने जा रहे हैं। इनमें नोवार्तिस की ही कैंसर की दवा जोमेटा, फाइजर की एड्स की दवा रेसक्रिप्टॉर, रोश की कैंसर की दवा जेलोडा, नोवार्तिस की थाइराइड की दवा हेक्टोरल, फाइजर की ऑर्थराइटिस की दवा सेलब्रेक्स जैसे नाम महत्वपूर्ण हैं।
आम तौर पर जैसे ही किसी दवा की पेटेंट अवधि खत्म होती है, उस दवा के जेनरिक रूपों की बाढ़ सी आ जाती है। पेटेंट खत्म होने के कुछ ही महीने में उस दवा के बाजार पर 90-95% बाजार पर जेनरिक दवा कंपनियों का कब्जा हो जाता है। इस स्थिति से बचने के लिए विदेशों में ये कंपनियाँ मूल दवा में थोड़ा-बहुत फेरबदल करके दोबारा पेटेंट हासिल करने की रणनीति अपना रही थीं। लेकिन अब साफ हो गया है कि भारत में ऐसा नहीं चल सकता। अब विदेशी कंपनियाँ भारत में रणनीति बदल सकती हैं।
माना जा रहा है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ स्थानीय कंपनियों के साथ लाइसेंसिंग समझौते कर सकती हैं। साथ ही वे अपनी दवाओं के दाम भी कम कर सकती हैं, ताकि जेनरिक और पेटेंट वाली दवाओं की कीमतों में काफी बड़ा फर्क ना रहे। दवाओं का पेटेंट खत्म होने के बाद पेटेंट वाली कंपनियाँ अपनी बाजार हिस्सेदारी कायम करने के लिए दवाओं के दाम में भारी कटौती कर सकती हैं। ऐसा होने भी लगा है। मसलन फाइजर ने कोलेस्ट्रॉल घटाने वाली मशहूर दवा लिपिटॉर की कीमत जेनरिक दवा बनाने वाली कंपनियों से भी कम कर दी हैं। दूसरी दवा कंपनियां भी ऐसा कर सकती हैं। दूसरी ओर पेटेंट की अवधि खत्म होने के बाद जेनरिक कंपनियों के बीच ही उस दवा को सस्ते से सस्ता बनाने की होड़ लग जायेगी। इससे भी आगे चलकर दवाओं के दाम कम हो सकते हैं।
कई जानकार मानते हैं कि बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियाँ इतनी आसानी से हार नहीं मानेंगी। मसलन नोवार्तिस की ही तरह भारतीय पेटेंट विभाग ने पिछले साल फाइजर की कैंसर की दवा सुटेंट, रोश होल्डिंग की दवा पेजासिस और मर्क की अस्थमा की दवा एरोसोल को दोबारा पेटेंट देने से इन्कार कर दिया है। लेकिन इन कंपनियों ने इन फैसलों को अदालतों में चुनौती दे दी है। बेयर ने नक्सावर के खिलाफ पेटेंट विभाग के फैसले को भी चुनौती दी है। इस तरह के मामले अदालतों में लंबे खिंचने की आशंका भी बनी रहती है। लेकिन नोवार्तिस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद कंपनियाँ दोबारा पेटेंट के मामलों को ऊपरी अदालतों में चुनौती देने से हिचकेंगी।
बात निकली है तो दूर तलक जायेगी
नोवार्तिस पेटेंट विवाद पर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का असर दूसरे देशों में भी होने की उम्मीद है। ऑस्ट्रेलिया, यूरोपीय संघ और कनाडा भी छोटे-मोटे बदलाव करके दोबारा पेटेंट हासिल करने की कंपनियों की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की तैयारी में हैं। ऑस्ट्रेलिया की एक सरकारी संस्था ने इसके लिए सरकार से पेटेंट कानूनों में बदलाव करने की माँग की है।
कनाडा के वकील और स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से संकेत लेते हुए पेटेंट के सख्त मानक लागू करने पर विचार कर रहे हैं। इंडोनेशिया भी अपने पेटेंट कानूनों में बदलाव करने की तैयारी में हैं। साफ है कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने जो मिसाल कायम की है, उसका असर देर-सबेर दूसरे देशों में भी दिखेगा।

क्या है पेटेंट का चक्कर
पेटेंट एक तरह का अधिकार होता है, जिससे किसी उत्पाद का निर्माण वही कंपनी कर सकती है, जिसने उसे खोजा हो। आम तौर पर पेटेंट 20 सालों के लिए दिये जाते हैं। मतलब इस दौरान कोई दूसरी कंपनी उस उत्पाद को नहीं बना सकती। पेटेंट देने के पीछे तर्क यह है कि अगर खोज होने के तुरंत बाद सभी कंपनियाँ वह उत्पाद बनाने लगेंगी तो नयी खोज या तकनीक की तलाश में कोई फायदा नहीं रहेगा।
भारत में पेटेंट कानून
वर्ष 1972 से 2003 तक भारत में केवल प्रक्रिया (प्रोसेस) आधारित पेटेंट को मान्यता दी जाती थी। प्रक्रिया पेटेंट का मतलब है कि अगर किसी पेटेंट वाले उत्पाद को कोई दूसरी कंपनी अपने अलग तरीके से बनाती है तो दूसरी कंपनी को भी उस नयी प्रक्रिया से वह दवा बनाने पेटेंट मिल जायेगा। लेकिन दुनिया के ज्यादातर देशों में उत्पाद (प्रोडक्ट) पेटेंट कानून लागू था। इसका मतलब यह होता है कि वह उत्पाद कोई और कंपनी अपने खोजे हुए किसी और तरीके से भी नहीं बना सकती।
विश्व व्यापार संगठन के ट्रेड रिलेटेड ऐस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स यानी ट्रिप्स समझौते के तहत भारत को भी 2005 में प्रोडक्ट पेटेंट का कानून लागू करना पड़ा। सरकार ने पेटेंट कानून में रेट्रोस्पेक्टिवली यानी पुरानी तारीख से बदलाव लागू कर दिया।
भारत में पेटेंट कानून में बदलाव वर्ष 2005 से लागू हुआ। इसके पहले ही भारत ने ट्रिप्स समझौते के तहत प्रोडक्ट पेटेंट के लिए अर्जियाँ मंगाई थी। ये अर्जियाँ वर्ष 2005 में कानून में बदलाव के बाद ही खोली गयीं। नोवार्तिस ने ब्लड कैंसर की दवा ग्लिवेक के लिए पेटेंट की अर्जी भी इसमें शामिल की थी।
पेटेंट कानून में इस बदलाव ने भारतीय घरेलू दवा उद्योग पर दूरगामी प्रभाव डाला। भारतीय कंपनियाँ इससे पहले दूसरी प्रक्रिया से पेटेंट वाली दवाओं का जेनेरिक रूप बना कर सस्ते दामों में बेचती थीं। इसके चलते भारत ही नहीं, तमाम विकासशील और अविकसित देशों के मरीज भारतीय कंपनियों की सस्ती दवाओं पर निर्भर थे।
हालाँकि भारतीय पेटेंट कानून में मरीजों की हितों की रक्षा के लिए दो अहम प्रावधान किये गये थे -पेटेंट कानून की धारा 3 (डी) और अनिवार्य लाइसेंसिंग नियम।
पेटेंट कानून की धारा 3 (डी) के तहत भारत सिर्फ %नये’ उत्पादों को ही पेटेंट देता है। भारत में यह प्रावधान पेटेंट को अपने पास अनंत समय तक बरकरार रखने की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की प्रवृति को रोकने के लिए किया गया। कंपनियाँ पेटेंट की अवधि खत्म होने का समय करीब आने पर उसमें मामूली फेरबदल करने के नये उत्पाद के तौर पर उसका दोबारा पेटेंट लेने के लिए पहुँच जाती हैं। पर नियम 3(डी) के आधार पर भारतीय पेटेंट विभाग ने नोवार्तिस को ग्लिवेक के कथित उन्नत संस्करण को पेटेंट देने से इन्कार कर दिया था। नोवार्तिस यह साबित करने में नाकाम रही कि ग्लिवेक का उन्नत संस्करण पहले से बिल्कुल नया है।
(निवेश मंथन, अप्रैल 2013)

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