यह तो लगभग सभी देख रहे हैं कि जल्दी चुनाव होना समाजवादी पार्टी के लिए फायदेमंद रहेगा।
हालाँकि अब उनके लिए फायदे वाली स्थिति बची रह गयी है, इस पर नकवी शक जताते हैं। वे कहते हैं, ‘अभी चुनाव होने से मुलायम सिंह को फायदा होगा, इसका कुछ पता नहीं। मुलायम सिंह सोच सकते हैं कि जिस तरह से उनकी सरकार चल रही है उत्तर प्रदेश में, वैसे ही और चली तो और भी बुरी स्थिति हो जायेगी। उनके लिए तो अच्छा समय एक साल पहले होता, लेकिन वैसा हुआ नहीं। अब तो खुद मुलायम सिंह ही उत्तर प्रदेश सरकार के कामकाज के बारे में बोल चुके हैं। इसका मतलब यह है कि अगर वे आज भी चुनाव करा लें तो नतीजे सबको मालूम हैं कि पहले से खराब स्थिति में आयेगी समाजवादी पार्टी।’
रामबहादुर राय का भी आकलन है कि उत्तर प्रदेश के चुनावी समीकरण अब पिछले विधानसभा चुनाव जैसे नहीं रह गये हैं। वे कहते हैं, ‘विधानसभा चुनाव के समय मायावती को हटाने की लोगों ने ठान ली थी। आज मुलायम सिंह को (प्रधानमंत्री) बनाने की कोई हवा उत्तर प्रदेश में नहीं है।’ वे इस बात की ओर भी इशारा करते हैं कि खुद मुलायम सिंह के दो बड़े समर्थक गुटों में इस समय वर्चस्व की लड़ाइयाँ चल रही हैं, जिसके दुश्मनी में तब्दील होने का खतरा दिखता है। ऐसा होने पर मुलायम को लेने के देने पड़ सकते हैं। लिहाजा एक ओर राज्य सरकार के कामकाज को लेकर लोगों में निराशा और दूसरे खुद अपने समर्थक समूहों की लड़ाई को देख कर मुलायम मान सकते हैं कि समय हाथ से निकला जा रहा है। रामबहादुर कहते हैं, ‘जितनी देर होगी, समस्या विकराल होती जायेगी। मुलायम सिंह के हक में है जल्दी-से-जल्दी चुनाव में चले जाना।’
दूसरी ओर, जैसा कि यशवंत इशारा करते हैं, मायावती चाहेंगी कि चुनाव एक साल बाद ही हों, क्योंकि उन्हें सपा सरकार की नाकामियों का फायदा मिलेगा। यशवंत कहते हैं कि समय से पहले चुनाव होने का जो भी फायदा होगा, वह कांग्रेस और भाजपा को छोड़ कर बाकी दलों को ही होगा।
चुनाव जल्दी कराने और समय पर कराने के नफा-नुकसान को कांग्रेस के रणनीतिकार भी तौल रहे हैं। एक नजरिया यह बन रहा है कि साल भर का और समय मिल जाने पर वह अपनी खोयी हुई जमीन फिर से वापस पा सकती है। महँगाई, भ्रष्टाचार और विभिन्न कारणों से उसके विरुद्ध जो राजनीतिक वातावरण बना है, वह समय गुजरने के साथ बदल सकता है। साथ ही इस दौरान वह अपने वोटबैंक को मजबूत करने वाली नीतियों और कार्यक्रमों पर जोर दे सकती है।
वाजपेयी भी मानते हैं कि जल्दी चुनाव होना कांग्रेस के लिए फायदेमंद नहीं है। वे कहते हैं, ‘कांग्रेस के वोट बैंक बड़े स्पष्ट हैं। वह खाद्य सुरक्षा विधेयक ला रही है। अन्न को कहाँ पहुँचाना है, यह उसे पता है। वो नकद सब्सिडी दे रही है, जो सीधे लोगों के खाते में पहुँच जाये। उसकी अपनी समझ बड़ी साफ है। वो शहरों के लिए काम नहीं कर रही है।’
लेकिन यह रणनीति कांग्रेस को मनोवांछित लाभ देगी, इस पर वे शक भी जताते हैं। वे कहते हैं, ‘हिंदुस्तान का वोटर इससे बनता-बिगड़ता नहीं है। ऐसा नहीं होगा कि आखिरी क्षण में घूस दे दीजिए तो वोट आपके साथ होगा। ये आम चुनाव ऐसे मौके पर होने वाले हैं, जब इस देश में आंदोलन को लेकर लोग सड़क पर आने लगे हैं। इसका मतलब है कि लोगों के जेहन में कोई विकल्प है। अगर विकल्प नहीं है तो भी मौजूदा सत्ता को तो वे हटा ही देंगे।’
दूसरी ओर तनेजा का कहना है कि कांग्रेस जितनी देर तक सहयोगी दलों का बोझ ढोती रहेगी, उसकी उतनी ही सीटें खराब होंगी। इस लिहाज से कांग्रेस को जल्दी चुनाव करा लेने में ही फायदा दिखेगा। वे कहते हैं, %कांग्रेस को अगस्त तक यह फैसला करना है कि वह स्थिति को और खराब होने दे या इससे पहले कि स्थिति और बिगड़े, वह 140 सीटों की संभावना को ही स्वीकार कर ले और चुनाव करा ले। अगर सरकार और आगे चलती है तो स्थिति और बिगड़ सकती है, हालाँकि यह इस पर निर्भर है कि भाजपा कैसी तैयारी करती है।’
वाजपेयी एक विकल्पहीनता की ओर भी इशारा करते हैं। वे कहते हैं, ‘कांग्रेस के नुकसान फायदा उन्हीं को होगा, जो मौजूद हैं। यह फायदा बिखर जायेगा। किसी को अगर मुलायम से आस नहीं है तो विकल्प कौन है। विकल्प अगर मायावती है तो मायावती से भी आस नहीं है। यानी विकल्प नहीं है। अगर कांग्रेस से आस नहीं है तो उसका विकल्प भाजपा है, लेकिन भाजपा से भी आस नहीं है। सत्ता के खिलाफ हवा जरूर है, लेकिन कौन आयेगा, उसके प्रति रूचि नहीं है क्योंकि विकल्प नहीं है।’
अगर यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करती है तो कांग्रेस को यह कहने का मौका भी मिलेगा कि हमने गठबंधन चला कर दिखाया। साथ ही हाल में राहुल गाँधी की सक्रियता बढ़ी है और उन्हें भी अपनी ओर से प्रयास करने और पार्टी संगठन मजबूत करने के लिए कुछ समय की जरूरत होगी।
इन सब वजहों से कांग्रेस के लिए यह दुविधा की स्थिति रहेगी कि सरकार को पूरे कार्यकाल तक चला कर वह फायदे में रहेगी या लगातार जमीन खोती जायेगी। ऐसे में मुमकिन है कि वह खुद कोई फैसला ही न कर सके। दूसरी ओर मुलायम सिंह यादव के लिए तस्वीर बिल्कुल स्पष्ट है। समय बीतने के साथ वे अपना लाभ गँवाते जायेंगे, या फिर संभव है कि नुकसान की ओर भी बढ़ जायें।
(निवेश मंथन, अप्रैल 2013)