राजीव रंजन झा :
माननीय मुलायम सिंह यादव सरकार के हजार हाथों और सीबीआई से डरते हैं, जबकि बाजार और उद्योग जगत राजनीतिक अस्थिरता से डरता है।
यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इस समय केंद्र में राजनीतिक स्थिरता की चाबी समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह के हाथों में दिख रही है, क्योंकि एक-एक करके यूपीए सरकार को सहारा देने वाले कई बड़े सहयोगी दलों ने उसका दामन छोड़ दिया है। बाजार इस समय उलझन में है कि अगले लोकसभा चुनाव कब होंगे। शायद सच तो यह है कि खुद राजनीतिक दल भी इस बारे में उलझन में ही हैं और केवल अटकलबाजियों का बाजार गर्म है। मुलायम कई बार कह चुके हैं कि वे सरकार नहीं गिरायेंगे, लेकिन कांग्रेस खुद ही अक्टूबर-नवंबर के आसपास चुनाव करा सकती है। हाल में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी कहा कि लोकसभा चुनाव साल 2013 के अंदर ही हो जाने की काफी संभावना है।
राजनीतिक उलटफेर की आशंकाएँ बाजार को पहले भी परेशान करती रही हैं। लेकिन हाल में बाजार कुछ आश्वस्त हो चला था कि कांग्रेस वाकई मई 2014 तक के समूचे कार्यकाल तक सरकार चलाना चाहती है और वह इसमें सफल भी रहेगी। इस आधार पर बाजार ने उम्मीद लगायी कि सरकार आर्थिक सुधारों की गाड़ी को बीच के समय में और आगे बढ़ा पायेगी। लेकिन मार्च के अंत और अप्रैल की शुरुआत में दिखी राजनीतिक पैंतरेबाजी ने बाजार के इस आकलन को जोखिम में डाल दिया है।
द्रमुक को अरसे से यूपीए से पल्ला झाडऩे का एक बहाना चाहिए था। भ्रष्टाचार के मामलों में लगी चोटों से घायल हो कर यूपीए से बाहर जाना राजनीतिक रूप से उसके लिए उपयुक्त नहीं था। इसलिए द्रमुक ने श्रीलंका जैसा भावनात्मक मुद्दा मिलने का इंतजार किया और इस मौके का इस्तेमाल कर लिया।
द्रमुक के हट जाने के बाद ऐसी स्थिति बन चुकी है, जिसमें मुलायम सिंह यादव या मायावती दोनों में से किसी के भी हाथ खींचने पर केंद्र सरकार तकनीकी रूप से अल्पमत में आ जायेगी। बाजार को मायावती से ज्यादा डर मुलायम की पैंतरेबाजी से है। मुलायम बार-बार भले ही कहते रहे हैं कि वे सरकार को गिराना नहीं चाहते और समर्थन वापस नहीं लेंगे, लेकिन उनकी बातों पर भरोसा शायद ही किसी को हो।
इसलिए यह माना जा सकता है कि भारतीय शेयर बाजार अब राजनीतिक अस्थिरता के जोखिम का पहलू देखते हुए ही आगे की चाल तय करेगा। इसके भावों में राजनीतिक अस्थिरता की छूट (डिस्काउंट) जुड़ जायेगी। लेकिन क्या यह राजनीतिक अस्थिरता अगले लोकसभा चुनावों से खत्म हो जायेगी? बाजार को आने वाले दिनों में ज्यादा बड़ा डर इस बात का सतायेगा कि कहीं चुनावों के बाद की स्थिति ज्यादा अस्थिर न हो जाये। अगर कांग्रेस या भाजपा, दोनों में से किसी के नेतृत्व वाली सरकार नहीं बन सकी तो किसी ‘तीसरी सरकार’ की सूरत बाजार को पसंद नहीं आयेगी।
लेकिन पहले जरा यह देखें कि लोकसभा चुनाव समय से पहले होने की संभावनाएँ कितनी बन रही हैं। यह सवाल सीधे-सीधे इस बात पर टिका है कि मुलायम कब तक यूपीए सरकार को समर्थन देना जारी रखेंगे, या दूसरे शब्दों में, कब अपना समर्थन वापस लेंगे?
मार्च 2012 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के बाद से ही ये अटकलें लगती रही हैं कि राज्य में अनुकूल स्थिति का फायदा उठाने के लिए मुलायम जल्दी चुनाव हो जाने की स्थितियाँ बनाने का प्रयास करेंगे। लेकिन इसके विपरीत बीते साल भर में वे यूपीए सरकार के रक्षक की भूमिका में ही नजर आये हैं। चुनाव विश्लेषक यशवंत देशमुख कहते हैं, ‘स्पष्ट रूप से सीबीआई के मामले को अगर छोड़ दें, तो किसी को नहीं पता कि मुलायम सिंह यादव क्या जोड़-घटाव कर रहे हैं और मोलभाव में यूपीए से क्या हासिल कर रहे हैं।’
यह बात मुलायम सिंह को भी पता है कि विधानसभा चुनाव के समय उन्हें जो जन-समर्थन मिला था, वह समय बीतने के साथ-साथ हल्का पड़ता जा रहा है। लेकिन हाल तक यूपीए को द्रमुक का समर्थन जारी रहने के चलते उन्हें यह भरोसा नहीं था कि उनकी समर्थन वापसी से सरकार गिर जायेगी। उल्टे ऐसी स्थिति पैदा हो सकती थी कि यूपीए सरकार उनकी घोर प्रतिद्वंद्वी मायावती के समर्थन पर एकदम निर्भर हो जाये और इसके चलते मायावती राजनीतिक रूप से मजबूत हो जायें।
‘आज तक’ के पूर्व समाचार निदेशक क़मर वहीद नक़वी कहते हैं, ‘मुलायम तब तक साथ देंगे, जब तक उन्हें यह भरोसा न हो जाये कि उनकी समर्थन वापसी से सरकार गिर जायेगी। उन्हें ऐसी स्थिति चाहिए कि जब वे समर्थन वापस लें तो सरकार बची न रह सके। वे ऐसा जोखिम नहीं ले सकते कि वे समर्थन भी वापस ले लें और सरकार भी बची रह जाये। ये बात मुलायम सिंह खुद पहले भी कह चुके हैं। जब एफडीआई के मुद्दे पर अटकलें लग रही थीं कि मुलायम क्या करेंगे, उस समय भी मुलायम ने यह बात खुद ही कही थी।’ अपने इस आकलन के बावजूद नकवी मानते हैं कि यूपीए सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी और लोकसभा चुनाव 2014 में ही होंगे।
यशवंत भी मानते हैं कि मुलायम सिंह यादव को जब भी उनका यूरेका पल मिल जायेगा, वे सरकार से समर्थन वापस ले लेंगे। चुनाव में वे जितनी देरी करायेंगे, उत्तर प्रदेश में उन्हें उतनी ही कम सीटें मिलेंगी क्योंकि राज्य में सपा की सरकार एकदम विफल हो रही है। अगर संख्या के लिहाज से देखें तो इस समय मुलायम के हाथ खींचते ही यूपीए सरकार बहुमत के लिए जरूरी आँकड़े से पीछे रह जाती है। फिर मुलायम आखिर किस बात के चलते हिचक रहे हैं? और उनके समर्थन वापस लेने के बाद भी सरकार कैसे कार्यकाल पूरा कर सकेगी? नक़वी कहते हैं, ‘कोई जरूरी नहीं है कि ममता बनर्जी हमेशा कांग्रेस के खिलाफ ही रहें। अभी नीतीश कुमार भी हैं। इसलिए सरकार गिरेगी नहीं।’
लेकिन इससे कुछ अलग विचार जनसत्ता के पूर्व समाचार संपादक और प्रथम प्रवक्ता के संपादकीय सलाहकार रामबहादुर राय के हैं। वे कहते हैं, ‘मेरा अनुमान है कि इस बजट सत्र के अंत में दो-तीन दिन बाकी रह जाने पर, यानी मई के तीसरे हफ्ते के आसपास मुलायम सिंह समर्थन वापस ले लेंगे और यह सरकार अल्पमत में आ जायेगी। तब चुनाव में जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रह जायेगा। अगर सोचें कि ममता बनर्जी और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) इस सरकार को बचा लें, तो ऐसा होने वाला नहीं लगता है। ममता जी क्यों बचायेंगी? इसी तरह जदयू भी एनडीए तोडऩे का दुस्साहस नहीं करेगा।‘
आज तक के ऐंकर और कार्यकारी संपादक पुण्य प्रसून बाजपेयी कहते हैं कि ‘सरकार को ही तय करना है कि चुनाव कब होंगे। भाजपा अविश्वास प्रस्ताव लायेगी नहीं, क्योंकि उसे पता है कि वह अविश्वास प्रस्ताव लायेगी तो सब उसके खिलाफ एकजुट हो जायेंगे। इसका मतलब यह है कि संसद में अल्पमत में भी रहने पर भी सरकार नहीं गिरेगी।'
राजनीति और अर्थतंत्र दोनों पर पैनी नजर रखने वाले विश्लेषक और पत्रकार नरेंद्र तनेजा कहते हैं कि ‘भले ही कांग्रेस के पास पूरी संख्या रहे, फिर भी कांग्रेस खुद सितंबर के आसपास चुनाव कराने की बात कहेगी। ऐसा इसलिए होगा कि कांग्रेस के लिए समाजवादी पार्टी जैसे समर्थकों को ढोना असंभव हो जायेगा।’ इस आधार पर तनेजा मानते हैं कि चुनाव दशहरा-दीवाली के आसपास होने चाहिए।
तीसरा मोर्चा : हकीकत या फसाना?
इसी विकल्पहीनता के बीच बाजार को किसी तीसरी शक्ति के सामने आ जाने का डर सताता है। यह तीसरी शक्ति अभी अमूर्त है। कौन-से दल, कौन मुखिया, कैसी नीतियाँ - अभी कुछ भी पता नहीं। इसलिए एक अनजान शक्ति का भय स्वाभाविक है। हालाँकि राजनीतिक अटकलबाजियों में तीसरे मोर्चे के संभावित मुखिया के तौर पर मुलायम का नाम लिया जाता रहा है। नकवी कहते हैं, ‘पूरा गणित यह है कि अभी चुनाव होने पर ऐसी स्थिति बन जाये कि मुलायम सिंह तीसरे मोर्चे के मुखिया के तौर पर उभर सकें।' लेकिन यह गणित इतना आसान भी नहीं। नकवी के ही शब्दों में नीतीश कुमार बहुत तगड़े दावेदार के तौर पर उभरे हैं और इससे भी मुलायम सिंह की चिंता बढ़ी है।
मुलायम सिंह बेशक तीसरे मोर्चे की चर्चा गाहे-बगाहे छेड़ते रहते हैं, लेकिन विश्लेषकों को संदेह है कि अगर तीसरा मोर्चा बना भी तो बाकी दलों को मुलायम का नेतृत्व मंजूर होगा। तनेजा कहते हैं कि ‘मुलायम पर लोग भरोसा नहीं करते हैं। वे जिस हिसाब से पत्ते खेल रहे हैं, उसके चलते विश्वसनीयता का संकट आने लगा है।’ यही राय नकवी की भी है, जिनका मानना है कि ‘मुलायम सिंह के कद को लेकर जो भी कहें, लेकिन ममता बनर्जी तो जली-भुनी बैठी हैं। आपको याद होगा कि मुलायम सिंह ने कैसे ममता बनर्जी की हेठी करायी थी।’
इशारों में कुछ जानकार कहते हैं कि मुलायम सिंह ने हाल में जो भी बयानबाजी की है, वह सब इसलिए है कि वे सरकार से कुछ ऐसा चाहते हैं जो सरकार दे नहीं रही है। सरकार दे दे तो ये चुप हो जायेंगे। उनके मुताबिक असली बात यह है कि एक बड़ा समूह संकट में है और उसी को उबारने के लिए यह सब हो रहा है।
जहाँ तक तीसरे मोर्चे की चुनावी संभावनाओं की बात है, यशवंत कहते हैं कि तीसरा मोर्चा एक संभावना तो है, लेकिन यह चल पाने वाली संभावना नहीं है। उनकी राय में ‘ऐसी कोई सरकार कांग्रेस या भाजपा से बाहरी समर्थन पर ही चलेगी और वे कभी इसे साल भर से ज्यादा टिकने नहीं देंगे। अभी कांग्रेस दूसरों के खिलाफ सीबीआई का इस्तेमाल कर रही है। तीसरा मोर्चा अगर सत्ता में आया तो वे इसे कांग्रेस के खिलाफ इस्तेमाल करेंगे, लेकिन उससे बात बनेगी नहीं।’
रामबहादुर मानते हैं कि जो भी तीसरा मोर्चा बनेगा, वह वामदलों को मिला कर ही बनेगा। लेकिन उनकी नजर में ‘तीसरा मोर्चा अभी तो हवा में है। सीपीएम और सीपीआई वाले यह देख रहे है कि क्या मुलायम सिंह जो कह रहे हैं वही करेंगे? उनका पहले का रिकॉर्ड है कि कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। इसलिए मुलायम सिंह के रुख को ये लोग दूर से खड़े होकर देख रहे हैं। अभी उनका मजाक भी उड़ा रहे हैं। मान लीजिए मुलायम सिंह ने सचमुच समर्थन वापस ले लिया और तीसरे मोर्चे की बातचीत चला दी तो यह बन भी सकता है। लेकिन अब यह पहले जैसा आसान तो नहीं है।’ वे यह भी मानते हैं कि तीसरा मोर्चा चुनाव से पहले बन पाने की संभावना कम होगी। अगर यह बनेगा भी तो चुनाव के बाद। उनके मुताबिक चुनाव से पहले के गठबंधन तो केवल वही रहेंगे, जो आज हैं।
नकवी तीसरे मोर्चे के संभावित मुखिया के तौर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को मुलायम से कहीं ज्यादा भरोसेमंद नाम के तौर पर देखते हैं। वे कहते हैं, ‘नीतीश कुमार की कम-से-कम एक विश्वसनीयता है। वे भाजपा के साथ चल रहे हैं तो इतने साल से चल ही रहे हैं। जिस मुद्दे पर उन्होंने अलग रुख अपनाया है, वो मुद्दा भी आज से नहीं बहुत दिनों से है कि मोदी बिहार में आ कर प्रचार नहीं करें। नीतीश सहयोगियों और मुद्दों को लेकर एक नियमितता बरत रहे हैं। इसके चलते उनकी विश्वसनीयता और स्वीकार्यता कहीं ज्यादा है। अगर नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और नवीन पटनायक साथ आते हैं तो यह अपने-आप में एक बड़ा गुट बन जाता है। अगर वे तीसरे मोर्चे के मुखिया के तौर पर नहीं आ सकें, तो भी उनके हाथ में एक बड़ी मोलभाव की शक्ति तो होगी ही।’
वाजपेयी तीसरे मोर्चे से भी अलग कोई सूरत बन सकने की संभावना का इशारा करते हैं। वे कहते हैं, ‘पहली बार हर राजनीतिक दल संकट में है। किसी राजनीतिक दल के पास जनता को लेकर कोई एजेंडा नहीं है। पहली बार कोई राजनीतिक दल दूसरे राजनीतिक दल के बदले अगर सत्ता में आये तो उसके पास वैकल्पिक नीति नहीं है। मनमोहन सिंह की आर्थिक नीति के बदले में किसी के पास अलग आर्थिक नीति हो तो बताये। किसी ने नहीं बताया है। और, अगर भाजपा सांप्रदायिक है तो कोई बता दे कि क्या बाकी दल सांप्रदायिक और जातिवादी नहीं? वो भी सारे वैसे ही हैं। अगर इस देश में कोई भी विकल्प खड़ा हो जाये तो वह विकल्प जीत जायेगा और ये सारी पार्टियाँ हार जायेंगी। बीजेपी भी हार जायेगी, कांग्रेस भी हार जायेगी, तीसरा मोर्च भी नहीं आयेगा। अगर विकल्प बन जाये तो कोई नया आ जायेगा।
कांग्रेस के लिए उल्टी हवा
फिलहाल ऐसे किसी विकल्प का अस्तित्व तो नहीं दिखता, लेकिन कांग्रेस के विरुद्ध एक वातावरण बन चुका है। वाजपेयी कहते हैं, ‘उस वातावरण का मतलब यह है कि कांग्रेस का सत्ता में लौटना तो मुश्किल है। विकल्प और खराब भी हो सकता है। संभव है कि इस देश को लूटने वाले लोग (सत्ता में) आ जायें।’
केंद्र सरकार के खिलाफ बने माहौल के बारे में रामबहादुर राय कहते हैं, ‘किसी भी सूरत में कांग्रेस या उसके नेतृत्व वाला गठबंधन 2014 में या 2013 में होने वाले चुनाव में जीत कर वापस नहीं आ रहा है। इसके खिलाफ इतने बड़े आंदोलन हुए हैं और हो रहे हैं। कोई सरकार इतने आक्रोश का सामना करके अगर दोबारा सत्ता में आ जाये तो यह एक नया इतिहास हो जायेगा।’
अगर आँकड़ों की बात करें तो यशवंत देशमुख का आकलन है कि कांग्रेस अगले चुनाव में 125 सीटों (10 सीटें कम-ज्यादा) के आसपास तक सिमट सकती है। उनके हिसाब से इसी कारण कांग्रेस अपनी यह सरकार 2014 तक चलाना चाहेगी। इसी तरह तनेजा मानते हैं कि आज के हालात में अगर कांग्रेस 140 सीटें भी जीत ले तो वह उसके लिए बड़ी अच्छी खबर होगी।
यशवंत की भविष्यवाणी है कि अगर अगले कुछ महीनों में चुनाव हो जायें तो यूपीए 175 सीटों पर सिमट सकता है, जबकि एनडीए को 200 के आसपास सीटें मिलेंगी। अन्य दलों के खाते में 165 सीटें आ सकती हैं। इन सबके अनुमानित आँकड़ों में 25 सीटों का उलटफेर हो सकता है।
अगर चुनाव तय समय पर हों, तब भी यशवंत की राय में यूपीए, एनडीए और अन्य के आँकड़े ऐसे ही रहेंगे। वे कहते हैं, दरअसल कुल संख्या तकरीबन एक जैसी इसलिए रह जायेगी कि अलग-अलग राज्यों में समीकरण बदलेंगे, लेकिन सीटों का लेनदेन गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा दलों के बीच ही होगा। उत्तर प्रदेश में आज अगर चुनाव हों तो सपा को फायदा होगा, लेकिन अगले साल चुनाव होने पर बसपा फायदे में रहेगी। इसी तरह प. बंगाल में सीटों की खींचतान तृणमूल कांग्रेस और वाम दलों के बीच होगी। तमिलनाडु में एडीएमके और डीएमके के बीच सीटें आयेंगी जायेंगी। दोनों ही स्थितियों में ये सीटें गैर-कांग्रेस गैर-भाजपा खेमों के बीच रहेंगी, उसे चाहे आप तीसरा, चौथा या पाँचवाँ मोर्चा जो भी नाम दें।
राज्यवार स्थिति देखें तो यशवंत के मुताबिक कांग्रेस/यूपीए को कर्नाटक में फायदा होने वाला है, जबकि बाकी तमाम जगहों पर उसे सीटें गँवानी पड़ेंगी। भाजपा कुछ राज्यों में सीटें कमायेगी, लेकिन कर्नाटक और झारखंड में होने वाले नुकसान के चलते हिसाब बराबर हो जायेगा। कांग्रेस और भाजपा के बीच सीटों का लेनदेन वास्तव में कर्नाटक में ही होगा। लेकिन राजस्थान और दिल्ली में कांग्रेस की सीटें भाजपा के पास जायेंगी, जिससे कर्नाटक का फायदा मिट जायेगा। इसीलिए चुनाव चाहे जब भी हों, सीटों की संख्या अंत में वैसी ही दिखेगी।
रामबहादुर राय कहते हैं, ‘जो पार्टी 150 या उससे अधिक सीटें पाने में समर्थ हो जायेगी, उसी के नेतृत्व वाले गठबंधन की सरकार बनेगी। कांग्रेस की सीटें कितनी कम होती है और भाजपा की कितनी बढ़ती हैं, इसी से भविष्य का गठबंधन निर्धारित होगा। अभी कोई नहीं कह सकता कि भाजपा को कितनी सीटें मिलेंगी। अगर वे नरेंद्र मोदी को आगे करके चुनाव लड़ें तो हो सकता है कि भाजपा की सीटें 200 के आसपास पहुँच जायें।’
लेकिन नकवी देश में अभी कोई कांग्रेस विरोधी लहर होने की बात नहीं मानते। वे कहते हैं, ‘अभी मीडिया में ही ज्यादा लगता है कि कांग्रेस-विरोधी माहौल बना है। हाल में जो चुनावी नतीजे आये हैं, उसमें तो कोई कांग्रेस-विरोधी लहर नहीं दिखी है। अगर ऐसी कांग्रेस-विरोधी लहर होती तो गुजरात में उसे शून्य हो जाना चाहिए था। हिमाचल में वे सरकार में ही लौट कर आ गये।’
उनका मानना है कि कांग्रेस की जितनी बुरी स्थिति राजनीतिक समीक्षकों के बीच दिखती है, उतनी मैदान में और जनता के बीच नहीं दिखती। चुनाव से पहले तक वे इस बारे में काफी कुछ कर लेंगे। उनके शब्दों में, ‘अभी जो स्थिति है, उसे देख कर यही कहेंगे कि कांग्रेस की आज की स्थिति काफी खराब है और इसमें आगे चल कर सुधार ही हो सकता है, क्योंकि यह पहले से ही काफी निचले पायदान पर है।’
नकवी कहते हैं, ‘ऐसा अभी लग रहा है कि कांग्रेस कमजोर हो जायेगी। अभी तो लगभग साल भर पड़ा है। कांग्रेस जिन योजनाओं पर जोर दे रही है, उनसे वह अपने वोट बैंक को मजबूत कर रही है। गाँव के मतदाताओं और गरीबी-रेखा के नीचे के मतदाताओं के लिए कांग्रेस जो कर रही है, उसका फायदा तो उसे मिलेगा। यह फायदा शायद सतह पर दिखता नहीं है, लेकिन चुनाव के समय नतीजों के तौर पर सामने आता है। खाद्य सुरक्षा विधेयक और आधार कार्ड के जरिये नकद सब्सिडी देने की योजना का असर दूरगामी होगा।’
कांग्रेस के तरकश में खाद्य सुरक्षा और नकद सब्सिडी के अलावा कुछ और तीर भी हैं। देश भर के भूमिहीनों को मुफ्त जमीन देने का नारा उछलेगा, इसके स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। साथ ही मध्यम वर्ग को लुभाने के लिए आयकर में भारी राहत देना भी वित्त मंत्री के एजेंडे में हो सकता है। प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) के रूप में इसकी भूमिका तो साल भर से तैयार है, मगर सरकार शायद समझती है कि जनता की स्मरण शक्ति कमजोर होती है। लिहाजा शायद मध्यम वर्ग को यह लड्डू चुनावों के ठीक पहले ही मिले, या फिर लड्डू के बदले केवल उसका वादा मिले।
हालाँकि सरकार के ये तीर क्या वैसा ही असर दिखा सकेंगे, जैसा 2009 के चुनाव में मनरेगा ने दिखाया था? नरेंद्र तनेजा इस पर शक जताते हैं। उनका कहना है, ‘खाद्य सुरक्षा विधेयक और नकद सब्सिडी पर चुनाव तक अमल नहीं हो पायेगा। मतदाता इस पर नहीं जाता कि आपने कौन-सा विधेयक पारित कराया है। वह देखता है कि उसके पास आया क्या है? पिछले चुनाव में इनको फायदा इस बात का मिला था कि लोगों के पास मनरेगा का पैसा पहुँचा था। लेकिन खाद्य सुरक्षा और नकद सब्सिडी के लिए जिस तरह के तंत्र की आवश्यकता है, वह चुनाव तक बन नहीं पायेगा। उनके लिए एक बुनियादी ढाँचा चाहिए, जिसे बनाने में कम-से-कम तीन साल लगेंगे। इन योजनाओं के राजनीतिक लाभ इतनी जल्दी मिलने वाले नहीं हैं।’
भाजपा कितनी तैयार?
कांग्रेस बनाम भाजपा की स्थिति को यशवंत बड़े सरल रूप में बताते हैं। कहते हैं, 'कांग्रेस तो हार रही है, लेकिन भाजपा जीत नहीं रही है। कारण सीधा-सा है। जब तक भाजपा मोदी को पूरी तरह और साफ तौर पर कमान नहीं सौंपे, और उसके बाद भी जब तक मोदी उत्तर प्रदेश से लडऩे का फैसला न करें, तब तक भाजपा को यूपीए सरकार के पराभव का फायदा नहीं मिलने वाला।’
कुछ इसी तरह की बात तनेजा इस रूप में कहते हैं, ‘कांग्रेस का अगले चुनाव में जीत पाना मुश्किल है। लेकिन मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि भाजपा की सरकार बन जायेगी, क्योंकि वे भी उतने ही धीमे रहे हैं। कांग्रेस अपने हाथ से सत्ता को जाने दे रही है, जबकि भाजपा के सामने जो अवसर है उसे वह पकड़ नहीं पा रही है। भाजपा की तैयारी ही नहीं है।’
उनका मानना है कि भाजपा अगर अब भी सचेत हो जाती है और अपने बूते पर 180 सीटें ले आये तो वह सरकार बनाने की तरफ बढ़ जायेगी। वहीं अगर भाजपा 180 से कुछ पीछे भी रह जाये तो उसके सहयोग से दूसरी सरकार बन सकती है। मगर भाजपा अपने नेतृत्व को लेकर जबरदस्त दुविधा में है। नेतृत्व को लेकर पार्टी में शीर्ष पर खींचतान और होड़ के कुछ नये संकेत हर दिन मिलते हैं। अगर भाजपा अपने नेतृत्व को लेकर स्पष्टता नहीं ला सकी, तो तनेजा की राय में यह उसके लिए आत्मघाती होगा। वे कहते हैं, ‘भाजपा चाहे कोई एक चेहरा ले कर आये या नहीं, लेकिन उसे अपने-आप को एकजुट पार्टी के तौर पर पेश करना होगा।’
मोदी पर महाभारत
भाजपा के लिए यह उलझन बनी रहेगी कि वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर नरेंद्र मोदी का नाम सामने रखे या नहीं। मोदी स्पष्ट रूप से दिल्ली के तख्त की ओर एक-एक कदम आगे बढ़ाने के प्रयास में दिखते हैं, लेकिन अपने बयानों में गुजरात से आगे की ज्यादा चर्चा नहीं करते। पार्टी के स्थापना दिवस पर अपने भाषण में उन्होंने देश का कर्ज उतारने की बात कही जरूर, लेकिन उसके बाद यह कह कर अपने बयान का असर पतला किया कि देश का कर्ज तो हर किसी पर है।
अब तक पार्टी के प्रमुख नेता मोदी के बारे में गोल-मोल जवाब देते रहे हैं। आडवाणी अब शीर्ष नेतृत्व के बदले मार्गदर्शक बताये जाने लगे हैं। लेकिन रह-रह कर उनके खेमे से ऐसे संकेत आते रहते हैं कि वे नेपथ्य में नहीं गये हैं। पार्टी में मोदी के समकक्ष रहे कुछ अन्य नेता भी मोदी के बढ़ते आभामंडल से परेशान हैं। वे न तो खुल कर मोदी को स्वीकार कर पा रहे हैं, न ही उनके बढ़ते रथ को रोक पा रहे हैं। लेकिन रामबहादुर राय कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी के अलावा कोई दूसरा नाम भाजपा के पास नहीं है। लेकिन किस रूप में वे आगे रहेंगे यह अभी तय नहीं हुआ है।’
दूसरी ओर नकवी मानते हैं कि अपनी अंतर्कलह के कारण ही भाजपा अभी चुनाव के लिए तैयार नहीं हो पायी है। वे कहते हैं, ‘जो लोग चाह रहे हैं कि मोदी का पत्ता कट जाये और मेरा लग जाये, उनको तो समय चाहिए। उन्हें लगता है कि कुछ समय बीतने पर शायद मेरा जुगाड़ लग जाये।’
मोदी अपनी पार्टी के अंदर निर्णायक बढ़त ले भी लें तो अगली चुनौती सहयोगी दलों का समर्थन पाने की होगी। नकवी कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी को लाने से भाजपा के विकल्प सीमित हो जाते हैं। तब नीतीश कुमार भाजपा के साथ नहीं आ सकते। ममता बनर्जी नहीं आ सकतीं उनके साथ। नवीन पटनायक का पता नहीं कि आयेंगे या नहीं आयेंगे।’
लेकिन तनेजा नहीं मानते कि नरेंद्र मोदी को अपना चेहरा बना कर चुनाव लडऩे से चुनाव के बाद भाजपा को सहयोगी दल नहीं मिलेंगे। उनके मुताबिक अगर भाजपा की 180 सीटें आ जायें तो नीतीश कुमार के पास एनडीए में टिके रहने और बिहार में खुद अपनी गड़बड़ाती स्थिति को सुधारने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होगा। वे कहते हैं कि नीतीश को भी अब एंटी-इन्कंबेंसी का नुकसान होना शुरू हो चुका है।
मोदी को आगे बढ़ाने से भाजपा की सीटें बढ़ सकती हैं, इस बात पर ज्यादा मतभेद नहीं हैं। लेकिन उसकी सीटें मोदी प्रभाव से कितनी बढ़ जायेंगी, इसके अनुमान अलग-अलग हैं। नकवी के शब्दों में, ‘भाजपा अगर नरेंद्र मोदी को आगे रख कर चुनाव लड़ती है तो उसकी सीटें बढ़ जायेंगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। उसका मत-प्रतिशत बढ़ जायेगा, बहुत-से ऐसे नये मतदाता भाजपा के साथ जुड़ेंगे जो उसके पारंपरिक मतदाता नहीं हैं।’ मगर साथ में उनका कहना है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी की अपनी सीमाएँ हैं। वे ध्यान दिलाते हैं कि जितने राज्यों में भाजपा का प्रभाव है, उनमें भाजपा ज्यादा-से-ज्यादा 60-70% सीटें ही तो जीत सकती है।
दूसरी ओर रामबहादुर राय जहाँ मोदी की अगुवाई में भाजपा की सीटें 200 तक हो जाने की भी संभावना देखते हैं, वहीं यशवंत भी मोदी के नेतृत्व और उनके उत्तर प्रदेश से चुनाव लडऩे की स्थिति में भाजपा को बड़ा फायदा होने की संभावना जताते हैं। लेकिन इतना साफ है कि भाजपा को काफी अच्छी बढ़त मिलने की सूरत में ही मोदी चुनाव के बाद मजबूत दावा पेश कर पायेंगे। तनेजा कहते हैं, 'अगर भाजपा 150 सीटों से कुछ कम पर अटक गयी तो एनडीए के किसी वरिष्ठ नेता, जैसे प्रकाश सिंह बादल के प्रधानमंत्री बनने की संभावना हो सकती है। अगर भाजपा 150 से अधिक सीटें पा ले, लेकिन 185 से कम रह जाये तो राजनाथ सिंह प्रधानमंत्री बन सकते हैं। अगर भाजपा को 185 से ज्यादा सीटें मिल जायें तो नरेंद्र मोदी की संभावना ज्यादा होगी।’
इतना निश्चित है कि अगर भाजपा ने अपने चुनाव अभियान के केंद्र में मोदी को रखा तो इससे जबरदस्त ध्रुवीकरण होगा। इस ध्रुवीकरण का नफा-नुकसान किसे होगा? यह सवाल सरल नहीं है। वाजपेयी गुजरात के उदाहरण से समझाते हैं कि इसके चलते यह भी संभव है कि गुजरात में मुसलमान एकजुट होकर कांग्रेस के साथ हो जायें और मुस्लिम प्रभाव वाली सीटें उसे मिल जायें। लेकिन ध्रुवीकरण का यह भी असर हो सकता है कि गुजरात का व्यक्ति प्रधानमंत्री पद का दावेदार है, इस नाम पर दूसरे नहीं आ पायें।
इस ध्रुवीकरण से देश के तमाम हिस्सों में जो मुस्लिम मतदाता अभी क्षेत्रीय दलों के साथ हैं, वे कांग्रेस के पाले में जा सकते हैं। वाजपेयी कहते हैं कि तब 'यूपी का मुसलमान मुलायम को वोट क्यों देगा? जिसे कांग्रेस को नहीं देना था, उसे भी देना पड़ जायेगा। नये समीकरण बन गये एक झटके में।’ मतलब यह कि मोदी के नाम पर ध्रुवीकरण होने की स्थिति में देश भर में यह लड़ाई कांग्रेस बनाम भाजपा की हो जायेगी।
तनेजा की भी यही राय है कि नरेंद्र मोदी के सामने आने से मतों का ध्रुवीकरण होने पर कांग्रेस को फायदा होगा, जबकि साम्यवादियों, समाजवादी पार्टी वगैरह को ज्यादा नुकसान होने वाला है। लेकिन साथ में उनका यह भी मानना है कि इससे कांग्रेस मजबूत नहीं होगी, क्योंकि ध्रुवीकरण से भाजपा को मिलने वाले मतों की संख्या कहीं ज्यादा होगी।
निवेशकों का डिगा भरोसा
इतना साफ है कि यूपीए सरकार की दूसरी पारी मई 2014 तक चलेगी या नहीं, इस पर संशय की तलवार लटक गयी है। चुनाव के बाद क्या स्थिति बनेगी, इसकी भी तस्वीर साफ नहीं है। भारत को लेकर देशी-विदेशी निवेशकों के भरोसे पर इस अनिश्चितता का काफी बुरा असर दिख रहा है। तनेजा कहते हैं, ‘निवेशकों का विश्वास हिला हुआ है। खास बात यह है कि विदेशी निवेशकों की तुलना में घरेलू निवेशकों का विश्वास ज्यादा हिल गया है। राजनीतिक अस्थिरता के बारे में देसी-परदेसी सारे निवेशकों को लगता है कि यह स्थिति ठीक नहीं है। ज्यादातर उद्योगपतियों व्यवसायियों ने देखो और इंतजार करो की नीति अपना ली है। निजी बातचीत में वे कहते हैं कि अब सरकार को चुनाव में जाना चाहिए, जिससे देश के सामने स्थिति स्पष्ट हो।’
(निवेश मंथन, अप्रैल 2013)