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समावेशी विकास का नारा

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Category: अप्रैल 2013

उद्योग संगठन सीआईआई की सालाना आम बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भाषण से भी कहीं ज्यादा उत्सुकता से लोगों ने राहुल गांधी के भाषण को सुना।

लोगों को उम्मीद थी कि वे देश के अहम आर्थिक मुद्दों पर अपनी सोच को सामने रखेंगे। राहुल ने ऐसा किया तो जरूर, लेकिन अपनी सोच को संकेतों और प्रतीकों की चादर में लपेट कर सामने रखा। उनका जोर रहा संवाद और समावेश पर, सबकी बातें सुनने की व्यवस्था बनाने और विकास में सबको साझेदार बनाने पर। लेकिन इस लक्ष्य की ओर बढऩे के रास्ते क्या होंगे, इस पर उन्होंने सबको अनुमानों के बीच गोते लगाने के लिए छोड़ दिया। देश की धीमी पड़ती विकास दर, महँगाई और भ्रष्टाचार जैसी चुनौतियों से निपटने का राहुल दर्शन क्या है, यह जानने की इच्छा रखने वाले भी निराश ही हुए। मगर उनके इस भाषण की चर्चा काफी अरसे तक होती रहेगी। पेश हैं इसके कुछ चुनिंदा अंश।
अपनी टीम के साथ कुछ सालों पहले एक रात मैं गोरखपुर लोकमान्य तिलक एक्सप्रेस पर सवार हुआ और भारत के हृदय-स्थलों की यात्रा की। हम यह समझना चाहते थे कि भारत के युवा किस तरह अपने भविष्य को सँवार रहे हैं। उस ट्रेन में जिस बात ने मुझे छुआ, वह था आशावाद। ये गरीब लोग थे, कमजोर लोग थे, लेकिन उनमें से कोई भी निराशावादी नहीं था। वे कह रहे थे - हाँ भैया काम हो जायेगा, नौकरी मिल जायेगी। वे सभी संघर्ष कर रहे थे। लाखों लाख युवा आशावाद के साथ हर रोज संघर्ष कर रहे हैं। इस समय एक अरब लोग बाधाओं को तोड़ रहे हैं, वे बाहर निकल रहे हैं और ऊँची जगहों पर दावे पेश कर रहे हैं। इस आंदोलन से जो ताकत पैदा हो रही है, उसे सबके सशक्तिकरण के लिए इस्तेमाल करने की जरूरत है। किसी एक के लिए नहीं, तकरीबन सभी के लिए नहीं, सबके लिए।
हमारा कर्तव्य है कि हम भारत को भौतिक रूप से एक बुनियादी ढाँचा दें, ताकि लोगों और विचारों का यह अभूतपूर्व आंदोलन सक्षम बन सके। इस बुनियादी ढाँचे के जरिये भारत को जोडऩे की जरूरत है। इसके जरिये भारतीय गाँवों और शहरों को जोडऩे की जरूरत है। इसके जरिये भारत को बाकी विश्व से जोडऩे की जरूरत है। हमें वे सड़कें उपलब्ध करानी हैं, जिन पर आगे बढ़ कर सपने सच हो सकें। इन सड़कों में गड्ढे नहीं होने चाहिए, ये सड़कें ऐसी नहीं होनी चाहिए कि वे हर छह महीने में टूट जायें। हमें अपने बच्चों के लिए बिजली मुहैया करानी है, जो उनके भविष्य को प्रकाश से भर सके।
सरकार इस बुनियादी ढाँचे का विकास अकेले नहीं कर सकती। हम अकेले इसे करने में सक्षम नहीं हैं। साथ मिल कर हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि हमारा ज्ञान, हमारी शिक्षा और कौशल वैश्विक मानकों को परिभाषित करें। यह कहना काफी नहीं है कि हम उनके जैसा बनना चाहते हैं। इसके बदले वे ऐसा कहें कि हम भारत जैसा बनना चाहते हैं।
हमारी समस्या रोजगार की कमी नहीं, प्रशिक्षण और कौशल की कमी है। क्यों एक माँ को रातों की नींद इस चिंता में गँवानी चाहिए कि उसके मेधावी बच्चे को स्कूल जाने का अवसर मिलेगा या नहीं? क्यों हार्वर्ड से डिग्री पाने पर जितना खर्च होता है, उतना ही पैसा लखनऊ में किसी मेडिकल कॉलेज की कैपिटेशन फी में लग जाता है? क्यों हमारे छात्र पुरानी पड़ गयी चीजें पढऩे के लिए मजबूर हैं? छात्र आगे क्या करेंगे, इससे उन किताबों का कोई लेना-देना नहीं है।
किसको यह मालूम है कि वे आगे क्या करेंगे? यह आपको पता है, क्योंकि आप उनको रोजगार देने वाले हैं। क्या हमारी शिक्षा का पाठ्यक्रम तय करने में आपकी कोई भूमिका है? हमारे विश्वविद्यालयों की संरचनाएँ बंद हैं। बड़े प्रतिभाशाली लोग हैं। लेकिन आज का विश्वविद्यालय एक नेटवर्क है, बंद ढाँचा नहीं। इस नेटवर्क को उद्योग जगत से जोडऩा होगा।
एक युवा के लिए आकांक्षा और सशक्तिकरण में फर्क दरअसल रोजगार का है। मैं ग्रामीण इलाकों में जाता हूँ। मूल बात है रोजगार। शिक्षा रोजगार के लिए है और वहीं आप लोगों की भूमिका बनती है। आप ही वे लोग हैं, जो रोजगार पैदा करने में अगुवाई करेंगे।
लेकिन मेरी नजर में सबसे बड़ा खतरा आम लोगों, गरीबों, मध्य वर्ग, आदिवासियों और दलितों को अलग कर दिये जाने का है। जब भी हमने हाशिये पर मौजूद महिलाओं, अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों को अपने-से नहीं जोड़ा है तो हम पिछड़ गये हैं।
देश की उन्नति के लिए वंचितों को गले लगाना जरूरी है। अगर हम उन्हें गले नहीं लगायेंगे तो हम सभी की मुश्किलें बढ़ेंगी। हमें गरीबों, कमजोरों को साथ लेकर बढऩा है। भारत समावेशी विकास के जरिये ही आगे बढ़ सकता है। ऐसे विकास के साथ, जो सभी को अपने साथ जोड़े, फिर चाहे वे इस हॉल में बैठे लोग हों या बहुत दूर कहीं हों।
तालमेल और विकास में बहुत गहरा संबंध है। गुस्से, नफरत और पक्षपात से विकास नहीं होता। तालमेल की ताकत को कम करके न आँकें। जब आप समुदायों में अलगाव की राजनीति करते हैं तो आप लोगों के विकास का रास्ता रोकते हैं। लोगों को पीछे छोड़ देना खतरनाक है। समावेशी विकास से सभी को फायदा है।
भारत को अभी एक बड़ी सोच वाली साझेदारी की जबरदस्त जरूरत है। एक ऐसी साझेदारी की, जो गरीबों और मध्य वर्ग के करोड़ों लोगों को फायदा पहुँचाने के लिए आपको प्रेरित करे। एक बार ऐसी साझेदारी बन जाने के बाद ही हम देश में बदलाव के लिए माहौल तैयार कर सकेंगे।
हम छोटे-बड़े सभी उद्यमियों के लिए एक भेदभाव रहित, नियम आधारित और स्थिर माहौल सुनिश्चित करेंगे। एक ऐसा माहौल जहाँ कारोबारियों को रायसीना हिल्स के गलियारों में भटकने की जरूरत नहीं होगी, बल्कि वे गाँवों और कस्बों की गलियों में प्रतिस्पर्धा करेंगे। हम एक ऐसा माहौल देंगे, जहाँ कारोबार बेहतर उत्पादों और सेवाओं के बलबूते बढ़ेगा। वंचितों को आर्थिक मुख्यधारा में लाने की होड़ होनी चाहिए। मैं ऐसे माहौल में उद्यमशीलता को बढ़ावा देने और बड़े पैमाने पर रोजगार देने में मदद के लिए कारोबार-जगत को आमंत्रित करता हूँ। इसके लिए कारोबार-जगत नियमों के हिसाब से चलने के लिए प्रतिबद्ध हो, पर्यावरण की रक्षा करे और लोगों के अधिकारों का सम्मान करे।
संविधान में 73वें और 74वें संशोधनों ने सरकार और प्रशासन की एक तीसरी परत तैयार की है। यह एक ऐसा ढाँचा है जो एमएलए और एमपी के नीचे है। भारत में जो कुछ हो रहा है, वह शक्ति या सत्ता में इस तीसरी परत को हिस्सेदारी देने की प्रक्रिया है।
मैं एक सांसद हूँ। मुझे एक साल में पाँच करोड़ रुपये मिलते हैं। मेरे साथ 700 प्रधान हैं जो मेरे साथ काम करते हैं। हर प्रधान दो-दो करोड़ रुपये के काम देखता है। सत्ता में यही अंतर है। मेरे पास नीति बनाने की शक्ति है। स्थानीय स्तर पर इन प्रधानों के पास काफी अधिक शक्ति है।
हमारी राजनीतिक व्यवस्था प्रधान के अनुकूल नहीं बनी है। इसे एमपी और एमएलए के लिए बनाया गया है। यह वास्तव में सत्ता के विकेंद्रीकरण की समस्या है। जब तक हम ऐसी संरचनाओं का निर्माण नहीं करेंगे जिनमें इन प्रधानों को आवाज मिले, तब तक इस तरह का विरोधाभास बना रहेगा। राजनीतिक दलों पर आधारित इस व्यवस्था में प्रधान के पास शक्ति नहीं है। हमारी व्यवस्था की यही खामी है।
क्या आपको पता है कि अमेरिका में जब राष्ट्रपति ओबामा ने चुनाव लड़ा तो वहाँ क्या हुआ और कैसे हुआ? सारे सदस्य प्राइमरी (प्राथमिक) के लिए आते हैं। वह लोगों की इच्छाओं की अभिव्यक्ति है।
भारत में 5,000 लोग सब कुछ तय करते हैं। इन 5,000 लोगों को कितने लोग चुनते हैं? मेरी पार्टी में कितने लोग इन्हें चुनते होंगे? करीब 4,000 विधायक हैं, और 600-700 सांसद हैं। यही लोग देश को चला रहे हैं। अगर आप सभी दलों को साथ जोड़ दें तो भी कितने लोग आपकी समझ से इन विधि-निर्माताओं को चुनते हैं? ज्यादा-से-ज्यादा कहें तो 200-300 लोग होंगे। केवल 200 लोग इन विधानसभाओं और लोकसभा का स्वरूप तय करते हैं। यही दरअसल आपकी समस्या है।
हमें इसकी एक भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। उस कीमत को हम भ्रष्टाचार के नाम से जानते हैं। लोग बात करते हैं राहुल गांधी की, अन्य व्यक्तियों की। कोई यह बात नहीं करता कि सुनो, हमें इस वैल्यू-चेन को खोलना चाहिए। आप इसे खोल दें तो आपकी बहुत-सारी समस्याएँ काफी दूर ही निचले स्तर पर लोग सुलझा लेंगे।
महत्वपूर्ण यह है कि एक अरब लोग क्या सोचते हैं। इसकी कोई कार्यप्रणाली नहीं है। इसके बदले आपके पास एक ऐसा मॉडल होता है, जिसमें एक व्यक्ति आ कर सारी समस्याओं को दूर कर दे। वह एक घोड़े पर आयेगा। यही भारतीय मॉडल है। एक अरब लोग इंतजार कर रहे हैं कि वह आने वाला है और उसके बाद सारी चीजें ठीक हो जायेंगी। नहीं, अब चीजें ऐसे नहीं चलती हैं। सुनिए, मैं आपसे सच्ची बात कहना चाहता हूँ। किसी एक व्यक्ति को आप जितनी चाहें उतनी सारी शक्तियाँ दे दें। उसे सब कुछ दे दें। वह एक अरब लोगों की समस्याओं को नहीं सुलझा सकता। एक अरब लोगों को उनकी समस्याएँ सुलझाने की शक्तियाँ दे दें। तुरंत काम हो जायेगा।
आखिर ऐसा क्यों है कि हर छोटी से छोटी बात का फैसला सबसे ऊपर के व्यक्ति को लेना होता है? मैं एक सांसद हूँ, और मैं काम कर रहा हूँ एक प्रधान का। कोई मुझे कहता है, भैया सड़क चाहिए। यह मेरा काम नहीं है, लेकिन प्रणाली इतनी बंद है कि प्रधान के पास यह काम कराने की क्षमता नहीं है। फिर आप क्या करते हैं? सड़क बनानी है? चलो, लखनऊ चलो। यही आपकी समस्या है।
चीन एक केंद्रीकृत प्रणाली है। लोग उसे ड्रैगन कहते हैं। आप इसे बहुत साफ देख सकते हैं। वह बड़ा है, शक्तिशाली है। हमें लोग हाथी कहते हैं। नहीं, हम हाथी नहीं हैं। हम मधुमक्खियाँ हैं। यह जरा मजाकिया है, लेकिन इस बारे में सोचें।
हम लोग वास्तव में उससे कहीं ज्यादा शक्तिशाली हैं, जितना हम समझते हैं। बस हम केंद्रीकृत ढंग से शक्ति का प्रयोग नहीं करते। यह भारतीय शक्ति है। यह शक्ति है मधुमक्खी की। कोई इसे देख नहीं पाता।
मैं लोगों को बाहर रखने की यह राजनीति पसंद नहीं करता। बिहारियों को मुंबई से बाहर कर दो, जब वे आयें तो उनकी पिटाई करो। एक बड़ा समुदाय है, 20 करोड़ मुसलमान हैं। आप कहते हैं कि उनका कोई अस्तित्व नहीं है, इसलिए हम उन्हें व्यवस्था से बाहर करने जा रहे हैं। यह टिकाऊ नहीं है। यह हमारी ऊर्जा की एकदम बर्बादी है।
कुछ लोग कहते हैं कि नहीं, आप प्रधानमंत्री नहीं बनने जा रहे हैं। कुछ लोग पूछते हैं कि क्या आप प्रधानमंत्री बन सकते हैं? ये सब हवाहवाई बाते हैं। देश के लिए सिर्फ यही सवाल प्रासंगिक है कि हम अपने लोगों को किस तरह एक आवाज दे सकते हैं।
(निवेश मंथन, अप्रैल 2013)

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