राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
तमाम देशी-विदेशी विषम परिस्थितियों के बावजूद बीते वर्ष में सभी परिसंपत्तियों में शेयर अपनी ख्याति के अनुरूप सर्वाधिक प्रतिफल देने में सफल रहे।
नाउम्मीदियों के रहते हुए भी सेंसेक्स में 26% प्रतिफल दिया है। इस दरम्यान महँगाई से सभी पस्त थे। रिजर्व बैंक ने महँगाई पर काबू पाने के लिए ब्याज दरों को आसमानी ऊँचाई पर बनाये रखा। सरकार की मानें तो इससे विकास दर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और वह ऐतिहासिक रूप से पिछले सालों के न्यूनतम पर आ गयी।
भ्रष्टाचार और घोटालों से यूपीए सरकार की साख न्यूनतम पर पहुँच गयी। इस सरकार की नीतिगत पंगुता को लेकर चौतरफा मुखर आलोचना हुई। बीते साल सरकार लंबे समय तक फैसले लेने और नीतियों के क्रियान्वयन में बुरी तरह विफल रही। कारोबारी जगत का भरोसा चरमरा गया। निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक दिग्गज कंपनियों के पास हजारों-हजार करोड़ रुपये की नकदी फालतू पड़ी रही, लेकिन उन्होंने फूटी कौड़ी का निवेश करना उचित नहीं समझा। घटती माँग का असर औद्योगिक उत्पादन पर पड़ा, निर्यात घटे, पर आयात बिल बेकाबू रहा। रुपया काँपा और उसकी कीमत में ऐतिहासिक गिरावट दर्ज हुई। लोगों के दिलो-दिमाग में 1991 का डर समाने लगा, जब देश के पास महज 21 दिनों के आयात के लायक विदेशी मुद्रा ही बाकी रह गयी थी। रातों-रात हवाई-जहाज से सोना लंदन भेजा गया और देश उसे गिरवी रख कर विदेशी मुद्रा का प्रबंधन कर पाया था। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने भी देश के आर्थिक परिदृश्य को लेकर निरंतर रेटिंग संबंधी चेतावनी दी।
फिर भी अंतरराष्ट्रीय निवेशकों के लिए भारत पसंदीदा स्थल बना रहा। विदेशी संस्थागत निवेशकों ने विभिन्न तरीकों से 2012 के दरम्यान शुद्ध 123,540 करोड़ रुपये का निवेश भारतीय शेयर बाजार में किया। इससे न केवल सेंसेक्स 26% प्रतिफल देने में सफल हुआ, बल्कि रुपये को सँभालने में भी इस विदेशी मुद्रा प्रवाह की अहम भूमिका रही। मालूम हो कि इस अवधि में अप्रवासी भारतीयों से भारत आने वाले धन में ऐतिहासिक गिरावट आयी है। साल 2011 में विदेशी संस्थागत निवेशकों ने शुद्ध रूप से 3,642 करोड़ रुपये भारतीय बाजार से निकाले थे और सेंसेक्स तकरीबन 25% लुढ़क गया था।
पर विदेशी संस्थागत निवेश से आयी शेयर बाजार की 2012 की तेजी छोटे निवेशकों को ज्यादा भरोसा नहीं दे पायी और न ही नये निवेशकों को खींचने में सफल रही। अपने डिगे हुए विश्वास के चलते म्यूचुअल फंडों से निवेशकों ने भारी मात्रा में पूँजी निकाली। नतीजतन इन म्यूचुअल फंडों को 21-22,000 करोड़ रुपये के शेयर बेचने पड़े। इस अविश्वास के कारण ही साल 2013 में भारतीय शेयर बाजार की चाल को लेकर दिग्गज जानकार स्पष्ट रूप से दो खेमों में बँट गये हैं। एक वर्ग को साल के अंत तक तेजी-ही-तेजी दिखाई दे रही है, तो दूसरा वर्ग मई 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर आगामी दिसंबर तक शेयर बाजार के डूबने के भय से बुरी तरह आक्रांत है।
दिसंबर जाते-जाते देश के वित्त मंत्री आगामी वित्त-वर्ष की तैयारियों में लीन हो जाते हैं। पर मौजूदा वित्त मंत्री पी चिदंबरम की ज्यादा शक्ति अगले बजट से ज्यादा चालू वित्त-वर्ष के घाटे को काबू में करने पर लगी हुई है। वित्त मंत्री की पूरी कोशिश है कि किसी भी तरह से सरकारी घाटा जीडीपी के 5.3% से ज्यादा नहीं बढ़े। बढ़ते व्यापार घाटे से भी भरी सर्दी में वित्त मंत्री के पसीने छूट रहे हैं।
अमेरिका और यूरोप में कुछ अप्रत्याशित नहीं घटा तो अंतरराष्ट्रीय कारक भारतीय अर्थव्यवस्था को बीते साल से ज्यादा मजबूती प्रदान करेंगे। यानी इस साल देश की अर्थव्यवस्था, विकास और शेयर बाजार की चाल पर बाहरी कारणों की बजाय घरेलू आर्थिक हालात का ज्यादा प्रभाव होगा। नये साल में शेयर बाजार और अर्थव्यवस्था की पटकथा अंतरराष्ट्रीय कारकों से ज्यादा वित्त मंत्री पी चिंदबरम पर केंद्रित रहेगी। सरकारी घाटे को काबू करने में अगर उन्हें सफलता मिल जाती है तो अन्य कारकों, जैसे महँगाई और ब्याज दरों को अपेक्षित धरातल पर लाने का रास्ता खुद-ब-खुद खुल जायेगा। नतीजतन विकास दर में आशा के अनुरूप सुधार होगा।
कड़े निर्णयों से ही वित्त मंत्री अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का विश्वास जीत पायेंगे। डीजल के विलासी उपभोग को निरुत्साहित करने का बंदोबस्त उन्हें करना ही होगा। राजस्व बढ़ाने के लिए उन्हें बड़े कदम उठाने ही होंगे। सरकारी बही-खातों के चुस्त-दुरुस्त होने से डॉलर का प्रवाह बना रहेगा, जो उदारीकरण की नीतियों के चलते पिछले 20 सालों से भारतीय शेयर बाजार और आर्थिक विकास की चमक का स्रोत है। लोकसभा चुनावों के नतीजों को लेकर ज्यादा भयग्रस्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि सुधारवादियों की पीठ पर ही आगामी सरकार का गठन होना तय है।
(निवेश मंथन, जनवरी 2013)