राजेश रपरिया :
कांग्रेस ने अब निर्णय कर लिया है कि विपक्षी आक्रमणों को निश्तेज करने के लिए खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के फैसले को ही अपनी मुख्य ढाल बनायेगी।
घोटालों डीजल और गैस की कीमत वृद्धि पर रक्षात्मक होने की बजाय वह इन पर आक्रामक रुख अपनायेगी। कांग्रेस ने साफ संदेश दे दिया है कि निवेश, रोजगार, महँगाई और किसानों की समस्याओं के निदान के लिए विदेशी निवेश को रामबाण औषधि के रूप में इस्तेमाल करेगी। इस रणनीति की पहली परीक्षा संसद के शीतकालीन सत्र में होनी है, जो 22 नवंबर को शुरू होने जा रहा है।
इन्ही मुद्दों पर यूपीए गठबंधन और सरकार से अलग होने वाली तृणमूल कांग्रेस खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के मुद्दे पर लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने का निर्णय किया है। वैसे तो इस मुद्दे पर विपक्ष दलों समेत इस सरकार को बाहर से समर्थन देने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी सरकार के विरोध में हैं। इस सरकार के घटक दल द्रविड़ मुनेत्र कडग़म यानी द्रमुक ने खुदरा बाजार में विदेश निवेश के निर्णय का पुरजोर विरोध किया है। यूपीए से तृणमूल कांग्रेस के अलग हो जाने के बाद से समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव अपने संबोधनों में पार्टी कार्यकर्ताओं को आगाह करते रहे हैं कि लोकसभा चुनाव कभी हो सकते हैं। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के भारी समर्थन से ही यूपीए सरकार को लोकसभा में बहुतम का संख्या बल प्राप्त है। सत्ता के गलियारों पर नजदीकी नजर रखने वाले संवाददाताओं का आकलन है कि समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव अब जल्द से जल्द लोकसभा चुनाव चाहते हैं। इस आकलन का आधार यह है कि जैसे-जैसे समय बीतेगा, जन प्रतिरोध उतना ही बढ़ जायेगा। उत्तर प्रदेश में इस साल मई में ही विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी बहुजन समाज पार्टी को भारी शिकस्त देकर सत्ता पर काबिज हुई है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और भाजपा को उम्मीद से काफी कम सीटों पर सफलता मिली है। समाजवादी पार्टी के अधिसंख्य लोग मानते हैं कि समय से पहले लोकसभा चुनाव होने पर उसके सांसदों की संख्या 60 तक हो जा सकती है, जो अभी 23 है। लेकिन समाजवादी पार्टी यह भी अच्छी तरह जानती है कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के मुद्दे पर उसके विरोध में मत डालने से यूपीए सरकार के गिरने का कोई खतरा नहीं है। यदि यूपीए गठबंधन का नाराज घटक द्रमुक भी इस मुद्दे पर विरोध में खड़ा होता है, तब जरूर इस सरकार के गिरने का संकट खड़ा हो जायेगा। इस समय लोकसभा में द्रमुक के 18 सांसद हैं। लेकिन इस समय द्रमुक यह जोखिम नहीं लेगी। तमिलनाड़ु के विधानसभा चुनावों में जयललिता के हाथों द्रमुक को करारी का शिकस्त का सामना करना पड़ा है। याद हो जयललिता को भी भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते द्रमुक के हाथों सत्ता से अपदस्त होना पड़ा था। इस समय द्रमुक पर भी भ्रष्टाचार के संगीन आरोप हैं। 2जी घोटाले में उसके एक मंत्री और एक सांसद को जेल की लंबी हवा खानी पड़ी है। जाहिर है कि ऐसे माहौल में जल्द लोकसभा चुनाव होने से उसे कोई फायदा नहीं होगा। ऐसे में 18 लोकसभा सांसदों की संख्या घटने का जोखिम द्रमुक नहीं लेगी। मोलभाव की राजनीति में मौजूदा राजनीतिक समीकरणों और अन्य बातों के कारण इस सरकार के गिरने का खतरा फिलहाल न के बराबर है। इसलिए इतना निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस के अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार बहुमत का संख्या बल जुटा लेगी।
पर इसके बाद क्या इस सरकार की राह आसान हो जायेगी? क्या सरकार संसद में बीमा, पेंशन, भूमि अधिग्रहण और लोकपाल जैसे महत्वपूर्ण विधेयकों को संसद में पारित करा पायेगी? इन विधेयकों के भविष्य में ही आर्थिक संकट से जुझने की यूपीए सरकार की शक्ति निहित है। लोकसभा में जोड़-तोड़ कर सरकार इन विधेयकों को शायद पास भी करा ले। लेकिन राज्यसभा में इन्हें पारित कराना सरकार के लिए टेढ़ी खीर है, क्योंकि राज्यसभा में सरकार अल्पमत में है। भारतीय जनता पार्टी के समर्थन के बिना इनका राज्यसभा में पारित होना असंभव है।
बीमा विधेयक में विदेशी निवेश की सीमा को 26% से बढ़ा कर 49% करने पर भाजपा को कोई सैद्धांतिक आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इसी तरह पेंशन विधेयक में 26% विदेशी निवेश के प्रावधान पर भी भाजपा को कोई एतराज नहीं होना चाहिए। इन दोनों क्षेत्रों में सुधारों की शुरुआत एनडीए सरकार के कार्यकाल में ही हुई थी। तब पेंशन क्षेत्र को पहली बार निजी क्षेत्र के लिए खोला गया था और बीमा क्षेत्र में 26% विदेशी पूँजी निवेश को मंजूरी दी गयी थी। इन दोनों विधेयकों के लिए संसद की स्थायी समिति की लगभग सभी सिफारिशों को यूपीए सरकार ने मान लिया है।
इस समिति के अध्यक्ष भाजपा के प्रमुख नेता यशवंत सिन्हा हैं, जिनके वित्त मंत्री के कार्यकाल में बीमा और पेंशन क्षेत्रों में सुधारों की शुरुआत हुई थी। लिहाजा ये माना जा सकता है कि इन दोनों पर भाजपा और कांग्रेस में कोई वैचारिक मतभेद नहीं है।
पर क्या मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में पेंशन और बीमा विधेयकों पर राज्यसभा में सरकार को भाजपा का समर्थन मिल सकता है। कांग्रेस की तरह अचानक भाजपा पर भी साख का संकट गहरा रहा है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन यानी आईएसी के नेता अरविंद केजरीवाल बार-बार यह आरोप दोहरा रहे हैं कि कांग्रेस और भाजपा में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। रिलायंस पर लगाये गये आरोपों में केजरीवाल ने इन दोनों दलों को आड़े हाथ लिया है। इसके अलावा, भाजपा को भी यही लगता है लोकसभा के चुनाव जल्द होने पर उसे ज्यादा फायदा होगा। इसलिए हो सकता है कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार की दिक्कतें बढ़ाने के लिए भाजपा राज्यसभा में पेंशन और बीमा विधेयकों का समर्थन न करे।
वैसे तो इनके पारित न होने की दशा में भी बाजार में प्रतिकूल प्रतिक्रिया होने की आशंका कम है। जिस दिन मंत्रिमंडल ने इन विधेयकों के मसौदों को मंजूरी दी थी, उस दिन शेयर बाजार ने कोई उत्साह भी नहीं दिखाया था। उल्टे बाजार उस दिन गिर कर बंद हुआ था। पिछले दो महीनों में यूपीए सरकार ने जो बड़े आर्थिक फैसले लिये हैं उनसे कारोबारी विश्वास में सुधार हुआ है। लेकिन अर्थव्यवस्था की विकास दर के पटरी पर लौटने का भरोसा अभी निवेशकों और अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को नहीं हो रहा है। असल में यही यूपीए सरकार के सबसे बड़ी दिक्कत है। इसलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी चिंदबरम का दम फूला हुआ है।
बिडंबना यह है कि इस दिक्कत के लिए खुद यूपीए सरकार, खास कर कांग्रेस जिम्मेवार है। पिछले 10-12 महीनों से भारतीय रिजर्व बैंक, बड़े औद्योगिक संगठन और अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियाँ देश के गिरते आर्थिक हालात के लिए यूपीए सरकार को आगाह करती रही हैं। लेकिन सरकार के लिए चुनावी राजनीति सर्वोपरि रही। यूपीए सरकार ने उन सभी निर्णयों को स्थगित कर दिया, जिनकी बुनियाद फरवरी 2012 में पेश बजट में रख दी गयी थी। मसलन, वर्ष 2012-13 में ईंधन सब्सिडी के लिए किये प्रावधान बजट 2011-12 के संशोधित अनुमानों से बहुत कम थे। यानी यह तय था कि डीजल और रसोई गैस की प्रशासनिक कीमतों में वृद्धि की जायेगी।
इसी प्रकार खाद सब्सिडी के प्रावधान भी अपेक्षा से कम रखे गये। लेकिन मई 2012 में होने वाले विधानसभा चुनावों, खास कर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की खातिर ईंधन सब्सिडी को कम करने के लिए डीजल और रसोई गैस की कीमत बढ़ाना टाल दिया गया। नतीजतन राजकोषीय घाटा बेकाबू हो गया। चालू खाते का घाटा भी बढ़ गया।
राजकोषीय घाटा बढऩे के चलते महँगाई दर को काबू करने के रिजर्व बैंक के प्रयास नाकाम हो गये और देश में ऊँची ब्याज दरें बनी रहीं। इसका सीधा असर निवेश और बचत दर पर आया। नतीजतन विकास दर के आकलन भी दिन-प्रतिदिन नीचे आते गये। इस बार अक्टूबर में मौद्रिक स्थिति की समीक्षा करते समय भी रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों को कम करने से यह कह कर इन्कार कर दिया कि महँगाई का खतरा अभी बना हुआ है। उसका मानना यह है कि सरकार को राजकोषीय घाटा कम करने के लिए कारगर पहल करनी चाहिए। वित्त मंत्री को पूरा भरोसा था कि राजकोषीय घाटे को कम करने का जो खाका उन्होंने पेश किया है, उस पर विश्वास करते हुए रिजर्व बैंक ब्याज दर अवश्य घटायेगा। अब वित्त मंत्री रिजर्व बैंक के रवैये से मुँह फुलाये बैठे हुए हैं।
लेकिन रिजर्व बैंक का आकलन फिर ठीक बैठा कि सरकार राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए गंभीर नहीं है। रसोई गैस के साथ में सिलिंडर के लिए 26 रुपये कीमत वृद्धि की घोषणा की गयी, जिसे हिमाचल और गुजरात के चुनावों के मद्देनजर 24 घंटे के भीतर वापस ले लिया गया। चंद दिनों पहले ही वित्त मंत्री ने मंत्रिमंडल की बैठक में अपने सहयोगी मंत्रियों से खर्च कम करने का पुरजोर आग्रह किया था। वित्त मंत्री ने आगाह किया था कि देश की क्रेडिट रेटिंग पर खतरा मँडरा रहा है। इसलिए राजकोषीय घाटे को अंकुश में रखने की अनिवार्यता है।
इस चेतावनी को 24 घंटे भी नहीं हुए थे कि एक असाधारण कदम उठाते हुए आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने गेहूँ के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि लागत और कीमत आयोग के फैसले को पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया। इस आयोग ने सिफारिश की थी कि गेहूँ के भारी बफर स्टॉक को देखते हूए इस साल का न्यूनतम समर्थन मूल्य पिछले साल के स्तर 1,285 रुपये प्रति कुंतल ही रखनी चाहिए। लेकिन गेहूँ लॉबी के दबाव में कृषि मंत्रालय ने 1,400 रुपये प्रति कुंतल करने की सिफारिश की है। जाहिर है कि ऐसा होने पर खाद सब्सिडी लक्ष्य से काफी बढ़ जायेगी। इससे राजकोषीय घाटा और बढ़ेगा।
असल में यूपीए सरकार की दिक्कत अंदरूनी है, जिससे विकास का पहिया अवरूद्ध हो रहा है। पर्यावरण मंत्रालय व ग्रामीण मंत्रालय के रुख के चलते 4,900 अरब रुपये की परियोजनाओं की फाइलें धूल खा रही हैं। सच यह है कि यूपीए सरकार राजकोष को अपनी राजनीति का औजार बनाये हुए है। ऐसे में वह सहयोग की अपेक्षा कैसे कर सकती है? इस सरकार को असली खतरा अपने ही चाल-चलन से है, ना कि तृणमूल कांग्रेस के प्रस्तावित अविश्वास प्रस्ताव से। अगर घाटे को नियंत्रित करने में यह सरकार विफल रहती है तो बाजार या अर्थव्यवस्था में दम आना मुश्किल ही है।
(निवेश मंथन, नवंबर 2012)