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रिलायंस गैस विवाद : कुछ छिपाना नहीं तो जाँच से परेशानी क्या?

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Category: नवंबर 2012

नरेंद्र तनेजा, ऊर्जा विशेषज्ञ :

अरविंद केजरीवाल ने रिलायंस के केजी डी6 ब्लॉक के बारे में जो बातें कही हैं, उनमें उनकी ओर से सामने रखा गया कोई नया तथ्य नहीं है।

उन्होंने वही सवाल सामने रखे हैं, जो पहले सीएजी ने, संसद के कुछ सदस्यों ने और सीपीएम ने उठाये थे। उनका कोई भी सवाल या कोई भी आँकड़ा नया नहीं है। अगर इन सवालों पर पहले स्पष्टीकरण दे दिया गया होता तो आज यह प्रश्न नहीं उठता। मेरा मानना है कि जब भी ऐसे सवाल उठते हैं तो सरकार और कंपनी को उन पर स्थिति साफ करनी चाहिए।
केजरीवाल ने एक बात यह कही कि मणिशंकर अय्यर को हटा कर मुरली देवड़ा को लाया गया था, जिसके बाद केजी डी6 का पूँजीगत खर्च (कैपेक्स) 2.39 अरब डॉलर से बढ़ा कर 8.8 अरब डॉलर कर दिया गया। साथ ही उस समय गैस की कीमत 2.34 डॉलर प्रति यूनिट से बढ़ा कर 4.2 डॉलर प्रति यूनिट कर दी गयी। अगर हम तेल-गैस के वैश्विक उद्योग के पैमाने से इस बात को परखें तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस तरह की परियोजनाओं के विकास की लागत काफी ज्यादा होती है। गहरे समुद्र की जितनी भी परियोजनाएँ हैं, उनको विकसित करने की लागत काफी आती है। पर यह जरूर है कि अंतरराष्ट्रीय कीमत कम हो या ज्यादा, चूँकि सरकार के लाइसेंस से इतनी बड़ी परियोजना चल रही है, इसलिए पूरी पारदर्शिता होनी चाहिए। अगर कोई यह कहे कि इन सबमें पारदर्शिता की कमी रही, तो उससे भी असहमत नहीं हुआ जा सकता।
ऐसे फैसले सरकार की संस्था डायरेक्टर जनरल ऑफ हाइड्रोकार्बन्स (डीजीएच) के माध्यम से किये जाते हैं। मतलब सरकार सहमत थी कि पूँजीगत खर्च बढऩा चाहिए। लेकिन जो प्रश्न उठाये गये हैं, उसके बाद इस मसले में सरकार को स्पष्टीकरण देना चाहिए। आप यह भी जानते हैं कि डीजीएच के खिलाफ सीबीआई की जाँच चल रही है। जनता के बीच शक पैदा होता है, इसलिए चाहे पूँजीगत खर्च का मसला हो या गैस की कीमत का, सरकार को दोबारा इसकी तहकीकात करा कर इस पर स्थिति साफ करनी चाहिए।
अगर हम दुनिया के अन्य देशों में ऐसी परियोजनाओं के विकास से तुलना करें तो लागत में ज्यादा अंतर नजर नहीं आता, बल्कि विदेशों में ज्यादा ही लागत आती है। कोई कह सकता है कि भारत के संदर्भ में इतनी कीमत नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन ऐसी तमाम परियोजनाओं में काम करने वाली कंपनियाँ विदेशी ही हैं, क्योंकि बहुत कम कंपनियों के पास इसकी तकनीक और विशेषज्ञता है। फिर भी, मेरा मानना है कि लोकतंत्र में अगर कोई प्रश्न उठा है और आपके पास कुछ छिपाने के लिए नहीं है तो परेशान होने की जरूरत क्या है, सरकार को स्पष्टीकरण दे देना चाहिए। पारदर्शिता तो आवश्यक है।
सीएजी की जाँच (ऑडिट) की बात भी उठी है। सीएजी का काम बही-खातों की जाँच करना है। सरकारी कंपनियों के लिए वह जरूर संपूर्ण ऑडिट करता है। सीएजी जाँच के मामले में केवल रिलायंस नहीं, बल्कि निजी क्षेत्र की तमाम कंपनियों ने की है, उसमें उनका कहना है कि कामकाजी प्रदर्शन की जाँच (परफॉर्मेंस ऑडिट) से सभी निजी कंपनियों के बारे में भविष्य के लिए एक उदाहरण बन जायेगा, चाहे वे टेलीकॉम, जहाजरानी (शिपिंग), तेल-गैस या इस्पात किसी भी क्षेत्र की देशी-विदेशी निजी कंपनियाँ हों। इसके बाद सीएजी सब के प्रदर्शन की जाँच करने लगेगा। इसके लिए निजी क्षेत्र तैयार नहीं है। सवाल यह उठता है कि क्या जिस सीएजी का कार्यक्षेत्र अब तक केवल सरकारी कंपनियों की जाँच करना था, उसे बढ़ा कर भारत सरकार निजी क्षेत्र को भी इसके दायरे में लाना चाहती है? क्या उसके लिए संसद ने अनुमति दे दी है और उसके लिए जरूरी संशोधन कर दिया गया है?
मेरा मानना है कि निजी कंपनियों के भी कामकाजी प्रदर्शन की जाँच सीएजी से कराना एक बड़ा फैसला है और बिना राष्ट्रीय बहस के यह फैसला नहीं लिया जा सकता। पहले इस मुद्दे पर देश में और संसद में बहस होनी चाहिए। अगर देश और संसद की ऐसी इच्छा हो तो जरूर ऐसा नियम बना दिया जाये। सीएजी का जब से गठन हुआ है, तब से वह बही-खातों की ही जाँच करता है, कामकाजी प्रदर्शन की जाँच नहीं करता। कामकाजी प्रदर्शन की जाँच का मतलब यह है कि आपने काम ठीक तरह से किया या नहीं। इस प्रदर्शन को देखने का तो सबका अपना अलग नजरिया हो सकता है। किसी व्यक्ति से यह पूछा जाये कि आपकी क्षमता तो 20 किलोमीटर दौडऩे की थी, आप केवल 10 किलोमीटर क्यों दौड़े, या फिर 30 किलोमीटर तक क्यों दौड़ते चले गये? क्या हर बात में प्रदर्शन की ऐसी जाँच होने लगेगी? तेल-गैस क्षेत्र निजी कंपनियों ने यह बात उठायी थी कि प्रदर्शन की जाँच से एक गलत मिसाल कायम हो जायेगी। क्या इन्फोसिस के प्रदर्शन की जाँच सीएजी करेगा? या फिर यह बात केवल रिलायंस के संदर्भ में कही जा रही है? इसलिए मेरा मानना है कि इस प्रश्न पर थोड़ी स्पष्टता होनी चाहिए। जहाँ तक रिलायंस के तेल-गैस ब्लॉक की वित्तीय जाँच सीएजी से कराने की बात है, वह तो तय हो चुकी है, लेकिन कामकाजी प्रदर्शन की जाँच अभी तक एक खुला प्रश्न है।
जयपाल रेड्डी के बारे में मेरी व्यक्तिगत राय है कि जयपाल रेड्डी बहुत सक्षम और ईमानदार मंत्री हैं, पर उनकी विचारधारा जरूर समाजवादी है। समाजवादी विचारों के व्यक्ति तेल-गैस जैसे क्षेत्र में निजी क्षेत्र के फलने-फूलने पर सहमति नहीं रखते हैं। इसलिए शायद यह एक वैचारिक मसला था और जयपाल रेड्डी को अर्थव्यवस्था के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में निजी क्षेत्र की बढ़ती भूमिका पसंद नहीं थी।
रिलायंस पर उनके कार्यकाल में जुर्माना भी लगाया गया। अगर कोई कंपनी ठीक तरह से काम नहीं करती तो उस पर जुर्माना जरूर लगना चाहिए, लेकिन यह केवल निजी नहीं बल्कि सरकारी कंपनियों पर भी लगना चाहिए। जो सरकारी तेल-गैस कंपनियाँ हैं, उनका प्रदर्शन भी अच्छा नहीं रहा है। सरकार को पीएसयू और निजी कंपनियों में भेदभाव नहीं करना चाहिए। काम ठीक नहीं रहने पर जुर्माना सब पर बराबर लगना चाहिए। जयपाल रेड्डी के समय यह दिखा कि केवल निजी कंपनियों को निशाना बनाया जाता रहा, उनकी कमियों पर उन्हें सजा दी जाती रही या टोका जाता रहा, जबकि सरकारी कंपनियों के साथ ऐसा होता नहीं दिखा।
लागत बढ़ाने का जो मुद्दा है, वह परियोजना के विकास का एकमुश्त खर्च है। वह खर्च एक बार हो चुका है, बार-बार का खर्च नहीं है। रिलायंस ने दावा किया कि 8.8 अरब डॉलर का पूँजीगत खर्च हुआ, जबकि इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आईएसी) का आरोप है कि इतना खर्च नहीं हुआ है। अगर आईएसी की बात मानें तो रिलायंस ने गलत दावा किया। जिसके पास भी ऐसी बात बताने वाले दस्तावेज हों, उन्हें सामने रखना चाहिए। यह तो एक गंभीर आरोप है। इसलिए जिसके पास भी इस बारे में जानकारी है, वह उसे देश के सामने रखे। लेकिन दुनिया में इस तरह की जो अन्य परियोजनाएँ विकसित होती हैं, उनके साथ तुलना करने पर रिलायंस की ओर से बताया गया खर्च असामान्य नहीं लगता। आरोप यह है कि रिलायंस ने खर्च बढ़ा कर दिखाया क्योंकि शर्तों के तहत कंपनी अपनी खर्च की वसूली पहले कर सकती है। हालाँकि आम तौर पर गहरे समुद्र की परियोजनाओं पर पूँजीगत खर्च काफी ज्यादा होता ही है।
लेकिन रिलायंस की इस परियोजना में पूँजीगत खर्च को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने का इशारा पहली बार सीएजी ने किया था। अगर सीएजी जैसी संवैधानिक संस्था किसी बात को उठाती है तो आप उसे एकदम से नकार नहीं सकते। इसलिए मेरा मानना है कि उसकी जाँच (ऑडिट) हो जानी चाहिए। यह तो वित्तीय जाँच है। हर खर्च के बिल होते हैं। अगर खर्च हुआ है तो उसकी रसीदें होंगी। इसलिए ऐसी जाँच में न तो रिलायंस को और न भारत सरकार को कोई परेशानी होनी चाहिए। सवाल यही तो है कि आपने परियोजना पर इतनी रकम खर्च की या नहीं, और की तो किस तरह से की। मेरे ख्याल से सीएजी जब वित्तीय जाँच करेगी तो यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए। अगर गोल्डप्लेटिंग (असली लागत से ज्यादा रकम के बिल देना) होने का शक है, तो इसकी जाँच हो जानी चाहिए। सीएजी जैसी सक्षम संस्था आसानी से इसका पता लगा सकती है।
गैस की कीमत का जो सवाल है, अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतें छह डॉलर से 15 डॉलर प्रति यूनिट तक चलती हैं। भारत में भी इस समय गैस की करीब 15 तरह की अलग-अलग कीमतें लागू हैं। यहाँ 2.6 डॉलर से लेकर 13 डॉलर प्रति यूनिट तक के भाव पर गैस खरीदी-बेची जाती है। खुद भारत सरकार की कंपनियाँ ही विदेशों से 13 डॉलर प्रति यूनिट की दर पर गैस खरीद रही हैं।
अगर सरकार रिलायंस के लिए गैस की कीमत बढ़ा भी दे, तो क्या अगले दिन से गैस का उसका उत्पादन बढ़ सकता है? अभी केजी डी6 की जो स्थिति है, उसमें मेरा आकलन है कि अगर कंपनी गैस उत्पादन बढ़ाने के लिए आज से प्रयास शुरू करे तो उत्पादन बढऩे में 10 से 14 महीने तक का समय लग सकता है। तेल-गैस में अगर एक बार आपका उत्पादन घट जाता है तो आपको उसकी छानबीन करनी पड़ती है कि कमी क्यों हुई और उसके हिसाब से नये कुएँ खोदने पड़ते हैं। गहरे समुद्र की ऐसी परियोजना में इस प्रक्रिया में काफी लंबा समय लगता है। मॉनसून के चार महीनों में तो वहाँ कोई काम हो ही नहीं सकता। अभी तो कंपनी को नये विकास के लिए मंजूरी मिली है। उसके पास अभी हाथ में करीब चार-पाँच महीनों का समय है, जिस दौरान वह इस क्षेत्र में काम कर सकती है। इसका मतलब यह है कि अगले साल के अंत तक गैस का उत्पादन बढ़ पायेगा। और फिर 2014 से कीमतों में बढ़ोतरी की बात तो पहले से ही है।
दरअसल तेल-गैस बड़ा ही जटिल क्षेत्र है। इसे बहुत कम लोग ठीक से समझ पाते हैं। इसलिए संभव है कि कुछ लोग बड़ी ईमानदारी और गंभीरता से आरोप लगाते हों, लेकिन इस क्षेत्र के बारे में जानकारी कम होना या बातों को नहीं समझ पाना बड़ा स्वाभाविक है। फिर भी, अगर कुछ आरोप लगते हैं और कोई शक पैदा होता है तो सरकार और कंपनी को उस पर स्पष्टीकरण देना ही चाहिए। अगर अच्छी तरह जाँच-पड़ताल के साथ स्पष्टीकरण देकर देश को आश्वस्त करना न केवल देश और तेल-गैस क्षेत्र बल्कि इस कंपनी के भी हित में होगा।
दरअसल रिलायंस का यह जो गैस भंडार है, उसमें काफी रेत है। ऐसे गैस भंडार पर नियंत्रण रख पाना बिगड़े शेर की सवारी जैसा है। जब शुरू में गैस की खोज हुई थी तो इसे लेकर काफी जोश का माहौल बना। लेकिन अब स्पष्ट हो गया है कि यह उतनी बड़ी उपलब्धि नहीं थी। पहले कहा गया कि वहाँ 30 ट्रिलियन क्यूबिक फीट गैस है। यह इतना बड़ा भंडार तो नहीं है। जब इसमें उत्पादन घटने लगा तो समुद्र में 10 किलोमीटर गहराई वाले इस भंडार पर नियंत्रण पाने का काम रिलायंस ठीक से नहीं कर पायी। मेरा मानना है कि रिलायंस शुरुआत में बीपी या किसी अन्य ऐसी कंपनी को साझेदार बनाने की इच्छुक नहीं थी। पर उसे बीपी को साझेदार बनाना पड़ा क्योंकि वह इस भंडार को सँभाल नहीं पा रही थी। बीपी इस क्षेत्र की बड़ी कंपनी है और उसे काफी अनुभव है। यह देखना होगा कि वह इस क्षेत्र में उत्पादन बढ़ा पाती है या नहीं।
अरविंद केजरीवाल ने कहा कि रिलायंस गैस की जमाखोरी कर रही है। बंगाल की खाड़ी में 10 किलोमीटर गहरे समुद्र में जाकर किसी ने देखा तो है नहीं। वहाँ तक पहुँच पाने की सामथ्र्य तो केवल उस कंपनी की और भारत सरकार की है। लिहाजा इस बारे में कोई अंदाजा लगा पाना बड़ा मुश्किल है। लेकिन तेल-गैस क्षेत्र में मैंने कभी ऐसा सुना नहीं कि कोई कंपनी अपनी ही तेल-गैस की खोज को कम करके बताये। ऐसे उदाहरण पहले कभी नहीं देखने-सुनने को मिले। सरकार, डीजीएच और रिलायंस में सैंकड़ों लोग इस परियोजना के बारे में जानकारी रखते हैं। ऐसे में जानबूझ कर उत्पादन घटाना और इस बात को गुप्त रख पाना तो बड़ा अजीब ही कहा जा सकता है।
रिलायंस 2014 के बाद 14.25 डॉलर प्रति यूनिट माँग जरूर रही है, लेकिन उसे कौन यह भाव देने वाला है! यह तो मोलभाव का कारोबारी दाँव-पेंच है। दाम 1-2 डॉलर ही तो बढ़ सकते हैं। कोई कंपनी दो-चार साल बाद एक-डेढ़ डॉलर ज्यादा कीमत पाने के लिए उत्पादन घटा दे और अपनी साख को दाँव पर लगा दे और इसीलिए विदेशी कंपनी को भी साझेदार बना ले, इसमें मुझे कोई व्यावसायिक लाभ नजर नहीं आता। तेल-गैस मिलने पर कोई कंपनी उसे बाजार में लाकर बेचना चाहती है, उससे अपना मूल्यांकन बढ़ाना चाहती है। रिलायंस का मूल्यांकन तो घट गया। अगर शुद्ध व्यावसायिक नजरिये से देखें तो कोई ऐसा क्यों करना चाहेगा?
आपको यह भी देखना होगा कि गैस का सबसे ज्यादा उत्पादन खुद सरकार की कंपनियाँ करती हैं। ये सरकारी कंपनियाँ भी तो कीमत बढ़ाने का दबाव डाल रही हैं। क्या ओएनजीसी और गेल इंडिया गैस की कीमत बढ़ाने की माँग नहीं कर रही है? वे यह माँग इसलिए कर रही हैं कि भारत में गैस की कीमत अंतरराष्ट्रीय कीमतों की तुलना में सस्ती है।
इस पूरे विवाद की जड़ यही है कि गैस की कीमत तय करने का अधिकार सरकार के हाथ में है। सारी दुनिया में गैस की कीमतें सरकारें तय नहीं करती हैं। जब तक यह फैसला सरकार करेगी, तब तक इस पर राजनीति होगी। जिसके पास ज्यादा प्रभाव होगा, वह सरकार पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करेगा। ऐसी व्यवस्था क्यों बनी रहे, जिसमें भ्रष्टाचार हो सके। गैस किसको और किस कीमत पर बेची जाये, इस बारे में बहुत पारदर्शी नीति होनी चाहिए, जिसमें किसी पक्षपात की गुंजाइश ही नहीं रह जाये। इसके लिए एक स्वायत्त नियामक होना चाहिए, जिसको इस क्षेत्र की समझ हो। इस संदर्भ में मैं कहूँगा कि टीआरएआई भी नहीं, रिजर्व बैक जैसा नियामक होना चाहिए जिसने बार-बार अपनी स्वायत्तता का अहसास कराया है।
(निवेश मंथन, नवंबर 2012)

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