राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
केजरीवाल ने रिलायंस इंडस्ट्रीज पर जो आरोप लगाये हैं, उन पर कॉर्पोरेट जगत की चुप्पी असाधारण है। राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया भी रस्म-अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं रही।
कीमत निर्धारण में पेट्रोलियम मंत्रालय और रिलायंस इंडस्ट्रीज के बीच पिछले दिनों चली रस्साकशी का नतीजा यह रहा है कि देश में प्राकृतिक गैस उत्पादन बढऩे की दर नकारात्मक हो गयी है। यह उत्पादन लक्ष्य से बहुत कम हुआ है और देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है।
जयपाल रेड्डी को जिस तरह पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाया गया, उससे सरकारी निर्णयों में रिलायंस के प्रभाव का मसला तूल पकड़ गया है। अरविंद केजरीवाल के रिलायंस पर लगाये आरोपों से पहली बार ऐसा हुआ है कि यह मामला जन-जन तक पहुँच गया। रिलायंस पर लगे आरोपों के बचाव में मुख्य तर्क यही दिया जा रहा है कि ये आरोप नये नहीं हैं और संसद में वामपंथी सांसदों ने ये सवाल पहले भी उठाये थे। पर केजरीवाल ने इन सवालों को अधिक धारदार बना दिया। उनका मुख्य आरोप है कि यूपीए (कांग्रेस) और एनडीए (भाजपा) दोनों ने ही रिलायंस के व्यापारिक हितों का संरक्षण किया है। उनके मुताबिक केजी बेसिन में गैस खोजने का ठेका देने में रिलायंस को फायदा पहुँचाया गया। केजरीवाल का कहना है कि जब गैस पर सब्सिडी देने की बात होती है तो सरकार कहती है कि उसके पास 35,000 करोड़ रुपये नहीं हैं, जबकि रिलायंस को एक ही झटके में एक लाख करोड़ रुपये का फायदा दे दिया जाता है। वे मुरली देवड़ा के कार्यकाल में रिलायंस को पूँजीगत खर्च (कैपेक्स) 2.39 अरब डॉलर से बढ़ा कर 8.80 अरब डॉलर करने की मंजूरी देने पर भी सवाल उठा रहे हैं। देवड़ा ने रिलायंस की गैस की कीमत भी 2.34 डॉलर से बढ़ा कर 4.20 डॉलर प्रति यूनिट कर दी थी। साल 2006 में मणिशंकर अय्यर को हटा कर मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मंत्री बनाया गया था।
केजरीवाल का आरोप है कि अब जयपाल रेड्डी को हटा कर वीरप्पा मोइली को पेट्रोलियम मंत्रालय में लाया गया है, जिससे गैस की कीमत 4.20 डॉलर से बढ़ा कर 14.25 डॉलर की जा सके। जयपाल रेड्डी ने इस माँग का विरोध किया तो उन्हें हटा दिया गया। केजरीवाल का कहना है कि रिलायंस ने जान-बूझ कर गैस का उत्पादन कम किया है, ताकि समय से पहले गैस की कीमत में वृद्धि के लिए दबाव बनाया जा सके। पूँजीगत खर्च को चौगुना करने के बाद भी केजी बेसिन में रिलायंस के 31 में से 13 कुओं में ही उत्पादन हो रहा है। रिलायंस को 2009 तक आठ करोड़ यूनिट गैस का उत्पादन करना था, लेकिन वह लक्ष्य से काफी कम उत्पादन कर रही है।
अनेक विशेषज्ञों ने कहा है कि केजरीवाल ने जो सवाल उठाये हैं, वे सीएजी की रिपोर्ट में पहले ही उजागर हो चुके हैं। इनमें कोई नयी बात नहीं है। दूसरी ओर रिलायंस इंडस्ट्रीज का कहना है कि इस परियोजना की जटिलता को समझे बिना इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने आधारहीन आरोप लगाये हैं।
सीएजी वित्तीय जाँच के (फाइनेंशियल ऑडिट) के साथ-साथ कामकाजी प्रदर्शन की जाँच (परफॉर्मेंस ऑडिट) की जरूरत पर जोर दे रही है। लेकिन आर्थिक सुधारों के समर्थक वर्ग का कहना है कि कामकाजी प्रदर्शन की जाँच सीएजी की वैधानिक सीमाओं में नहीं आता है। यदि रिलायंस की ऐसी जाँच सीएजी करता है तो यह बाकी निजी कंपनियों के मामले में भी एक उदाहरण बन जायेगा।
मगर प्राकृतिक संसाधनों को निजी क्षेत्र को आवंटित करने का रास्ता 90-91 के बाद खोला गया। ऐसा इसलिए किया गया था कि प्राकृतिक संसाधनों का ज्यादा दोहन हो सके और जनता को उसका अधिकाधिक लाभ मिले। प्राकृतिक संसाधन निजी कंपनियों के लिए मोटा मुनाफा बनाने का औजार नहीं हो सकते हैं। पहले प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की जिम्मेदारी मूलत: सरकारी क्षेत्र की थी। इसलिए सीएजी को कभी निजी कंपनियों के कामकाजी प्रदर्शन की जाँच की जरूरत नहीं पड़ी।
पिछले 20 सालों से ही प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ी है। निजी क्षेत्र के अपने ऑडिट कितने प्रामाणिक होते हैं, यह एनरॉन, सब-प्राइम और सत्यम घोटालों से जगजाहिर हो चुका है। इसलिए प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन की निगरानी आज समय की अनिवार्यता है। तर्क यह है कि सीएजी को गहरे समुद्र में गैस खनन की जटिलताओं और तकनीक के बारे में दक्षता हासिल नहीं है। लेकिन क्या रिलायंस को केजी बेसिन के आवंटन से पहले गैस खनन में दक्षता हासिल थी?
खैर, रिलायंस ने कहा है कि वह सीएजी के जरिये वित्तीय जाँच (फाइनेंशियल ऑडिट) के लिए तैयार है। अगर कम-से-कम यह जाँच शीघ्रता से हो तो केजरीवाल के कई आरोपों पर स्थिति स्पष्ट हो सकेगी, जो हमारे तेल-गैस क्षेत्र और देश के लिए शुभ होगा।
(निवेश मंथन, नवंबर 2012)