नरेंद्र तनेजा, ऊर्जा विशेषज्ञ :
कोयला घोटाले पर पक्ष-विपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप चल रहे हैं, लेकिन घोटाला तो हुआ है, चाहे उसे आप किसी भी नजर से देखें। इसकी जो नीति बनायी गयी, वह ढह गयी और अमल में भी खामियाँ रहीं। कोयला सचिव ने प्रधानमंत्री कार्यालय को सचेत किया, लेकिन फिर भी कुछ नहीं किया गया। बाद में नीलामी का निर्णय लिया गया, लेकिन उसको भी लागू नहीं किया गया। तमाम ऐसी कंपनियों को भी कोयला ब्लॉक दे दिये गये, जिन्हें इस क्षेत्र का बिल्कुल भी अनुभव नहीं था और बिल्कुल नौसिखिया थीं।
इन सब बातों को ध्यान में रख कर अब ये सोचना पड़ता है कि ऐसा क्यों हुआ और इसके पीछे कौन लोग थे? यह भी कहा गया कि इस्पात और बिजली वगैरह बनाने के लिए ये ब्लॉक दिये गये। सवाल है कि अगर इन बातों के लिए ये ब्लॉक दिये गये तो काम शुरू क्यों नहीं हुआ?
यहाँ नीति भी गलत थी और उसे लागू करने में भी लापरवाही हुई। अगर लापरवाही जान-बूझ कर की गयी थी तो इसमें बड़ा घोटाला है। अगर यह लापरवाही इसलिए थी कि सरकार सक्षम नहीं है तो भी देश का बहुत बड़ा नुकसान है। आम आदमी की भाषा में कहें तो जो हुआ वह ठीक नहीं हुआ। अगर इसे पत्रकारों की भाषा में कहना चाहें तो घोटाले के अलावा कोई दूसरा शब्द समझ में नहीं आता।
एक बात तो स्पष्ट है कि सरकार के भीतर पूरी नीति और उसके क्रियान्वयन को लेकर निर्णय लेने वाले एक से अधिक शक्ति-केंद्र थे और वे शक्ति केंद्र कोयला आवंटन को लेकर अलग-अलग दिशाओं में जा रहे थे। वे इतने ताकतवर थे कि प्रधानमंत्री की इच्छा की भी अवहेलना कर सकते थे और बिना किसी सजा और रुकावट के आगे भी बढ़ सकते थे।
हकीकत तो यही है कि कोयले के ब्लॉक दिये जा चुके हैं। उनका मालिकाना हक अब उन्हीं के पास है। इनमें ऐसे लोग भी है जिन्हें न तो कोयले की कोई समझ है और न ही खुदाई के बारे में कुछ पता है। ये नीति की विफलता है, नीति में ही गड़बड़ी थी और इसका क्रियान्वयन भी पूरी तरीके से विफल हो चुका है। इससे उद्योगों को, बिजली क्षेत्र को, इस्पात क्षेत्र को और पूरे देश को कितना नुकसान हुआ है, इसकी तहकीकात होनी चाहिए। सीएजी ने तो अपनी रिपोर्ट रखी है, लेकिन स्वतंत्र जाँच भी होनी चाहिए।
तमाम राजनीतिक दल, यूपीए 2 से लेकर एनडीए, समाजवादी, बहुजन समाज पार्टी और कुछ हद तक साम्यवादी दल, सभी बड़े राजनीतिक दल इसके लिए बराबर के जिम्मेदार हैं। कोयले की नीति बनने और खास तौर पर क्रियान्वयन के समय राज्य सरकारों से भी सलाह ली जाती है। आज भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री के इस्तीफे की माँग कर रही है। लेकिन जब यह गलत नीति बनी और क्रियान्वयन भी गलत हो रहा था तो भाजपा और एनडीए के दल कहाँ थे? उन्होंने तब विरोध क्यों नहीं किया?
लेकिन केंद्र सरकार का यह तर्क भी उचित नहीं है कि आवंटन राज्य सरकारों की सलाह के आधार पर किये गये हैं। राज्य सरकारों से मात्र सलाह ली जाती है। कोयला केंद्रीय विषय है। कोयले का लाइसेंस देते समय उस पर कोयला मंत्री के दस्तख्त होते हैं। जो स्टीयरिंग कमिटी यह तय करती है कि किसको कोयला मिलना चाहिए, उसके अध्यक्ष कोयला सचिव होते हैं। इस समिति में राज्य सरकार के प्रतिनिधि भी शामिल होते हैं, लेकिन अंतत: फैसला कोयला मंत्री का ही होता है। राज्य सरकार की सलाह बहुत महत्वपूर्ण होती है, लेकिन हमें समझना होगा कि राज्य सरकार की सलाह क्यों ली जाती है। यह इसलिए जरूरी होती है कि जिस इलाके में खनन होना है, वहाँ के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू राज्य सरकार के विषय हैं। लेकिन उम्मीदवार तय करने में राज्य की कोई भूमिका नहीं है।
आज कोयला आवंटन के खिलाफ जिस तरह विरोध हो रहा है और जो राजनीतिक माहौल बना है, उसमें ऐसे सभी लाइसेंस तुरंत रद्द कर देने चाहिए जिन पर काम शुरू नहीं हुआ है। सरकार को उनकी नीलामी करनी चाहिए। जो सबसे अच्छी बोली लगाये, उसे लाइसेंस दिये जाने चाहिए। दूसरी तरफ जिन लाइसेंसों के आधार पर कामकाज शुरू हो चुका है, लेकिन धीमी गति से हुआ है, उनके बारे में सरकार को कहना होगा कि समयबद्ध तरीके से आपको पूरी क्षमता से कामकाज शुरू करना पड़ेगा।
तेल और गैस क्षेत्र के लिए हमारी एक नीति बनी हुई है। सरकार 1999 में यह नीति लायी थी, जिसे न्यू एक्सप्लोरेशन लाइसेंसिंग पॉलिसी (एनईएलपी) कहते हैं। इसमें सबसे अच्छी बोली लगाने वाले को लाइसेंस दिया जाता है। कोयला आवंटन के लिए भी ऐसी नीति लागू करनी होगी। सभी बोलियाँ पारदर्शी होनी चाहिए। इस नीलामी में देश-परदेश की सभी कंपनियों को भागीदारी करने की अनुमति मिलनी चाहिए। जो सबसे अच्छी बोली लगाये, उसे लाइसेंस मिले। फिर चाहे वह कंपनी अमेरिका की हो या भारत की, बिहार की हो या कर्नाटक की हो।
सरकार ने लोकहित में कोई भी प्राकृतिक संसाधन सस्ती कीमत पर देना अपने अधिकार क्षेत्र में होने की बात उठायी है। लेकिन यह सन् पचास के दशक की सोच है। इसे वहीं लागू किया जा सकता है, जहाँ रामराज्य हो, जहाँ सरकार पर पूरा भरोसा किया जा सके। लेकिन एक के बाद एक जो घोटाले सामने आये हैं, उन्हें देखते हुए विश्वास करना मुश्किल है। दुनिया बदल चुकी है। जनता और मीडिया सभी होशियार हो चुके हैं। जब आप नीलामी करते हैं तो सबसे अच्छी बोली लगाने वाले को लाइसेंस मिलता है और यह अर्थशास्त्र के सिद्धातों पर आधारित है। जब तेल-गैस क्षेत्र में यह नीति लागू हो सकती है तो कोयला क्षेत्र में क्यों नहीं हो सकती। आखिर तेल-गैस भी तो महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संसाधन है।
मेरा मानना है कि कोयला क्षेत्र का निजीकरण करना चाहिए। कोल इंडिया 90% हिस्सा कोयला उपलब्ध कराती है, लेकिन सबसे ज्यादा अक्षम संस्था तो वही है। कोल इंडिया का विनिवेश होना चाहिए। सरकार उसकी 50% हिस्सेदारी अपने पास रखे, बाकी शेयरों का विनिवेश करे और उसे पेशेवर तरीके से चलाया जाये।
खैर, आगे क्या होगा, इस बारे में सोचें तो मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी का भी दामन साफ नहीं है। आप इसे राष्ट्रीय मुद्दा बना सकते हैं, सरकार को गिरा सकते हैं, लेकिन उसके लिए जरूरी है कि आपका भी दामन साफ हो। पर मुझे ऐसा कोई दल नजर नहीं आता, कम-से-कम कोयले के मामले में तो नहीं है।
यह मामला भी सर्वोच्च न्यायालय में जाने की पूरी संभावना है, क्योंकि सरकार ने लाइसेंसिंग नीति पर धीमे चलने की बात कह दी है। अब कोई भी कंपनी, जिसे पहले ही लाइसेंस मिल चुका है, वह न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकती है। सब लोग मिल कर भी ऐसा कर सकते हैं। एक तरफ सरकार पर दबाव रहेगा कि लाइसेंस रद्द करें क्योंकि उन पर काम शुरू ही नहीं हुआ है। लेकिन ऐसा कदम उठाने पर कंपनियाँ सर्वोच्च न्यायालय तक जा सकती हैं। मुझे लगता है कि सरकार भी यह चाहेगी कि सारा मसला सर्वोच्च न्यायालय में चला जाये, क्योंकि इससे सरकार के ऊपर दबाव कम हो जायेगा। इस समय सरकार की प्राथमिकता यह है कि जो शोर मच रहा है, वह किसी तरह से कम हो जाये। अगर यह मसला सर्वोच्च न्यायालय में गया तो एक-डेढ़ साल के लिए वैसे ही ठंडा पड़ जायेगा। उसके बाद चुनाव का माहौल बन चुका होगा, या हो सकता है कि चुनाव भी पार हो जाये। अगर एक भी लाइसेंस-धारक कोर्ट में चला जाये, जिसकी संभावना दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है, तो साफ है कि मामला सर्वोच्च न्यायालय तक जायेगा ही। जहाँ तक सीबीआई जाँच का प्रश्न है, उसकी साख पर तो पहले से ही प्रश्नचिह्न लगे हैं।
इसका पहला समाधान राजनीतिक स्तर पर यही है कि सभी आपस में मिल कर रास्ता निकालें। दूसरे, अगर समझौता नहीं हो पाता है तो यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में जायेगा। इससे सरकार तो राहत की साँस लेगी, लेकिन कोयला क्षेत्र और बिजली क्षेत्र के लिए यह दुखद खबर होगी क्योंकि उनका काम रुक जायेगा।
जिस तरह और जिस कीमत पर इन लाइसेंसों को दिया गया, उससे साफ है कि जाँच होने पर कई लोग घेरे में आयेंगे। जिस कंपनी की जरूरत केवल दो यूनिट की है, आपने उसे 20 यूनिट का लाइसेंस क्यों दे दिया? इसकी जब तहकीकात होगी तो बहुत सारी चीजें निकल सामने आयेंगी। इन सब मुद्दों को जिस एजेंसी (सीएजी) ने उछाला है, वह सरकार की संवैधानिक संस्था है। आप उसे हल्के में नहीं ले सकते।
सरकार के खिलाफ साजिश का एक बयान कोयला मंत्री की ओर से दिया गया। मैं समझता हूँ कि यह एक राजनीतिक बयान है। सरकार के खिलाफ क्या उसकी अपनी संवैधानिक संस्था साजिश करेगी? इस संस्था को संसद ने बनाया है और संसद का चुनाव देश की जनता ने किया है। इस बयान में बहुत ही हल्कापन है।
कभी-कभी बात उठती है कि क्या यह सब कॉर्पोरेट युद्ध का हिस्सा है। इसका जवाब देने के बदले मैं कुछ प्रश्न रखूँगा। एक के बाद एक इतने बड़े-बड़े घोटाले निकल कर क्यों आ रहे हैं? यह समझना होगा कि कॉर्पोरेट जगत सरकार से काफी नाराज है, लेकिन वह सरकार के खिलाफ अपनी नाराजगी खुल कर प्रकट नहीं कर रहा है। उनका मूल्यांकन कम हो रहा है, उन्हें अवसर नहीं मिल रहे हैं, उनके रास्ते में रोड़े आ रहे हैं, उनके सामने एकाएक नौकरशाही काफी मजबूत हो गयी है और बड़ी-बड़ी कंपनियों को सरकार की व्यवस्था ने घुटनों पर टिका दिया है। क्या हम जो कुछ देख रहे हैं, उसके पीछे कॉर्पोरेट जगत का रणनीतिक सहारा भी है? क्या कॉर्पोरेट जगत यह सोच रहा है कि इस सरकार ने बहुत कर लिया और वह चाहता है कि अब चुनाव हो जाने चाहिए? क्या कॉर्पोरेट जगत एकदम हताश हो गया है, लेकिन उसमें इतना साहस नहीं है कि वह कुछ खुल कर बोल सके?
इतना तो तय है कि देश की जनता का धैर्य खत्म हो रहा है महँगाई, घोटालों, भ्रष्टाचार वगैरह को लेकर। कॉर्पोरेट जगत भी देश के बाहर तो नहीं है। यह देखना होगा कि क्या कॉर्पोरेट जगत की मानसिकता इस समय आम जनमानस की मानसिकता से मेल खा रही है?
यह बात ठीक है कि कॉर्पोरेट जगत में आपसी लड़ाई भी चलती है। लेकिन अभी तो भारत के जितने भी बड़े कॉर्पोरेट घराने हैं और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, उन सबके सरकार से मतभेद हैं और तनाव चल रहा है।
जहाँ तक इस कोयला आवंटन की बात है, ज्यादातर बड़ी बिजली उत्पादक कंपनियों को इससे लाभ तो मिला है। बड़े कॉर्पोरेट घरानों के लोग यह नहीं चाहते कि कोई गंदगी उछले और उसमें उनका नाम आये। वैसे ही मौके घटने और अर्थव्यवस्था में धीमापन आने से उन पर असर पड़ा है, अब वे नहीं चाहते कि एक और मुसीबत उनके सामने खड़ी हो जाये।
एडीएजी समूह का नाम पहले 2जी में आया और अब कोयला मामले में भी आया है। जब अंबानी भाइयों का बँटवारा हुआ था तो अनिल अंबानी उन क्षेत्रों में ज्यादा सक्रिय हुए जहाँ सरकार की भूमिका बड़ी थी, जैसे कि बिजली या फिर एयरपोर्ट एक्सप्रेस ट्रेन वगैरह। उस समय तो सरकार के साथ इनके संबंध अच्छे थे, लेकिन आज परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। हमें उसका असर दिख रहा है।
आप लाइसेंस की सूची उठा कर देखें तो कुछ लोगों को छोड़ कर ज्यादातर कॉर्पोरेट नाम आ जाते हैं, जैसे जिंदल, टाटा, रिलायंस। इसके अलावा मँझोले आकार के तमाम समूह भी इसमें आ रहे हैं। कई ऐसे भी नाम आ रहे हैं जिन्हें कोयले के बारे में कोई जानकारी नहीं है। अब पता नहीं इन्होंने ये कैसे ले लिया, या कहीं किसी और के बदले तो उन्होंने नहीं लिया। शायद बहुत सारे लाइसेंस प्रॉक्सी में, यानी किसी और के बदले लिये गये हैं। मुझे यह कॉर्पोरेट युद्ध कम और कॉर्पोरेट लालच ज्यादा लगता है।
(निवेश मंथन, सितंबर 2012)