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हवाई-सेवा : विजय माल्या का दरक रहा साम्राज्य

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Category: दिसंबर 2011

सुशांत शेखर :

भारतीय उद्योग जगत के ग्लैमर किंग कहे जाने वाले विजय माल्या के सितारे इन दिनों गर्दिश में चल रहे हैं। माल्या की कर्ज में डूबी किंगफिशर एयरलाइंस की हालात इतनी खराब हो गयी है कि उन्हें सरकार से मदद की गुहार लगानी पड़ी है।

किंगफिशर एयरलाइंस 2005 में अपनी शुरुआत से ही घाटे में रही है। लेकिन पिछले कुछ सालों से हालात बेहद खराब हो चुके हैं। कंपनी पर करीब 7,000 करोड़ रुपये का कर्ज है। जुलाई-सितंबर तिमाही में कंपनी का घाटा दोगुने से ज्यादा बढ़ कर 469 करोड़ रुपये हो गया। वित्त वर्ष 2010-11 में कंपनी को 1027 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था। वहीं किंगफिशर एयरलाइंस अपनी सस्ती किराये वाली सेवा किंगफिशर रेड को सिंतबर में ही बंद करने का ऐलान कर चुकी है।

तेल कंपनियों ने भारी बकाये को देखते हुए किंगफिशर एयरलाइंस को कई महीनों से उधार तेल देना बंद कर दिया है। भारी घाटे और कर्ज की वजह से पिछले दिनों किंगफिशर एयरलाइंस की हालत इतनी खराब हो गयी कि उसके पास तेल कंपनियों को हवाई ईंधन के भुगतान के लिए पैसे ही नहीं बचे। ऐसी भी खबरें आयीं कि अक्टूबर में वेतन नहीं मिलने से किंगफिशर एयरलाइंस के 100 से ज्यादा पायलटों ने इस्तीफा दे दिया। नतीजा यह रहा कि एक ही हफ्ते में कंपनी को 200 से ज्यादा उड़ानें रद्द करनी पड़ीं। विमानन उद्योग के नियामक, डीजीसीए ने उड़ानें रद्द करने के मसले पर किंगफिशर एयरलाइंस को नोटिस भी दी।

विजय माल्या ने किंगफिशर एयरलाइंस की हालत सुधारने के लिए प्रधानमंत्री से राहत देने की मांग की है। माल्या चाहते हैं कि सरकार कंपनी को निजी तौर पर एटीएफ यानी हवाई ईंधन के आयात की मंजूरी दे। साथ ही उन्होंने कर्ज के पुनर्गठन में मदद के साथ विमानन कंपनियों में विदेशी निवेश की मंजूरी दिये जाने की भी मांग की। सरकार की ओर से विजय माल्या को मदद के संकेत भी मिले। लेकिन निजी क्षेत्र की किसी कंपनी को राहत पैकेज दिये जाने की सुगबुगाहट पर उद्योग जगत और मीडिया में तीखी प्रतिक्रिया हुई। बजाज ऑटो के चेयरमैन राहुल बजाज सहित उद्योगपतियों ने जनता के टैक्स के पैसे से किसी कंपनी को राहत पैकेज देने का कड़ा विरोध किया। हालाँकि अगले ही दिन विजय माल्या ने कहा कि उन्होंने सरकार से किसी राहत (बेलआउट) पैकेज की माँग नहीं की है और वह बस कुछ रियायतें मांग रहे हैं। उन्होंने दावा किया कि कंपनी फिर से अपने पांव पर खड़ी होने में सक्षम है।

किंगफिशर को कम से कम 3,000-4,000 करोड़ रुपये की जरूरत है। वह राइट्स इश्यू और अपनी कुछ संपत्तियाँ बेच कर अपनी माली हालत दुरुस्त करना चाहती है। हालाँकि बैंकों ने कर्ज पुनर्गठन के मसले पर किंगफिशर को अब तक कोई राहत नहीं दी है। बैंक पहले ही किंगफिशर के कुछ कर्ज को कंपनी में हिस्सेदारी के तौर पर पुनगर्ठित कर चुके हैं। इस बार बैंकों ने कड़ा रुख अपना लिया है।

क्या हैं विमानन उद्योग की दिक्कतें

ऐसा नहीं है कि केवल किंगफिशर एयरलाइंस ही मुश्किलों में फंसी है। सरकारी एयरलाइंस एयर इंडिया से लेकर जेट एयरवेज, स्पाइसजेट और इंडिगो तक सबकी हालत खस्ता है। एयर इंडिया की हालत तो इतनी खस्ता है कि उसके पास अपने कर्मचारियों का वेतन देने तक का पैसा नहीं है। जेट एयरवेज और स्पाइसजेट भी घाटे में चल रही हैं। भारतीय विमानन उद्योग की सबसे बड़ी दिक्कत महँगा हवाई ईंधन है। कच्चे तेल के बढ़ते दाम और राज्यों के ऊँचे करों की वजह से भारतीय विमानसेवाओं को परिचालन में ईंधन का खर्च ही 40-50% तक है। वहीं दुनिया की दूसरी विमानसेवाओं में ईंधन पर खर्च उसके कुल खर्च का 28-30% तक ही रहता है। भारत में हवाई ईंधन की कीमतें पिछले एक साल में 45% बढ़ चुकी हैं।

भारतीय विमानसेवाओं के बीच गलाकाट प्रतियोगिता भी उनकी बर्बादी का कारण है। इंडिगो और स्पाइसजेट तो सस्ते किराये वाली उड़ानें ही चलाती हैं। एयरइंडिया और जेट एयरवेज अलग से सस्ते किराये वाली सेवाएँ चलाती हैं। सस्ते किराये वाली उड़ानों में ईंधन का खर्च तो उतना ही होता है। भारी प्रतियोगिता की वजह से कंपनियाँ अपने हिसाब से किराये में बढ़ोतरी नहीं कर पाती हैं। डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी ने विमानसेवाओं की मुश्किल और बढ़ा दी है। विदेशों में अपने खर्चे और विमानों की लीज की किश्तों का भुगतान उन्हें डॉलर में करना पड़ता है। पिछले एक साल में एक डॉलर का भाव 44 रुपये से बढ़ कर 52 रुपये के पार निकल गया है। जाहिर है कि इससे विमानसेवाओं का बोझ और बढ़ा है।

भारतीय विमानन उद्योग की एक और बड़ी दिक्कत है। विमानसेवाओं ने अपने विस्तार के लिए विमानों की खरीद के बड़े-बड़े ऑर्डर दे रखे हैं। किंगफिशर, एयर इंडिया और जेट एयरवेज ने बोइंग और एयरबस जैसी कंपनियों से विमान खरीदने के ऑर्डर दिये हैं। इन विमानों की आपूर्ति का वक्त आ रहा है, लेकिन इनके पास विमान लेने के लिए पैसे ही नहीं।

भारतीय विमानसेवाओं की एक और दिक्कत अपने हिसाब से उड़ान का रास्ता तय नहीं कर पाना भी है। डीजीसीए के दिशानिर्देशों के मुताबिक कंपनियों को बड़े शहरों में उड़ानों के अनुपात में कुछ उड़ानें छोटे शहरों के लिए भी रखना जरूरी है। जाहिर है कि छोटे शहरों की उड़ानों में कंपनियों की लागत भी नहीं निकल पाती। लेकिन एयरलाइंस के लिए घाटे वाले रास्तों पर भी उड़ानें जारी रखना मजबूरी बन गया है।

खराब प्रबंधन से बढ़ीं दिक्कतें

विमानन उद्योग के जानकार मानते हैं कि किंगफिशर एयरलाइंस की खस्ता हालात के पीछे कंपनी का खराब प्रबंधन भी काफी हद तक जिम्मेदार है। इसने शुरुआत में ही बड़ी संख्या में विदेशी पायलटों की नियुक्ति की थी। विदेशी पायलटों को ज्यादा तनख्वाह तो देनी ही पड़ती है, साथ ही उनके नखरे भी ज्यादा होते हैं।

किंगफिशर ने 2007 में कैप्टन गोपीनाथ की एयर डेक्कन को खरीद लिया। कैप्टन ने भारत में सस्ते हवाई किराये के मामले में क्रांति की थी। लेकिन कुछ सालों में डेक्कन भी घाटे में चली गयी। डेक्कन की खरीद से किंगफिशर को विमानों का बेड़ा और अन्य सुविधाएँ तो मिलीं, लेकिन किंगफिशर दोनों विमानसेवाओं के कर्मचारियों का ठीक प्रबंधन नहीं कर पायी।

हालाँकि विजय माल्या ने अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है। पिछले दिनों खबरें आयीं कि कोई बड़ा औद्योगिक घराना किंगफिशर एयरलाइंस में निवेश के लिए तैयार है। अगर ऐसा हो और कंपनी अपने खर्चें घटाने में कामयाब रहे, तो किंगफिशर एयरलाइंस की हालत में सुधार हो सकता है।    

(निवेश मंथन, दिसंबर 2011)

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