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नफे-नुकसान से देश बड़ा

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Category: दिसंबर 2011

राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक:

हिंदी की एक कहावत है - चौबे गये छब्बे बनने, दुबे बन कर लौट आये।अभी यह कहावत केंद्र में काबिज यूपीए सरकार पर शत प्रतिशत खरी उतरती है। अपनी मृतप्राय छवि को सुधारने के लिए इस सरकार ने देश के खुदरा बाजार में 51% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की मंजूरी देने की घोषणा की। 

इसकी घोषणा होते ही देश में राजनीतिक भूचाल आ गया।संसद से सड़क तक इस फैसले का कड़ा विरोध हुआ। यूपीए सरकार को अपने सहयोगी दलों - तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक के अधिक विरोध के कारण इसको अंतत: दुबे जी ही बनना पड़ा।

यूपीए-2 सरकार का जब से (2009) गठन हुआ है, तब से इस पर शनि की दशा और राहु की वक्र दृष्टि रही है।पहले कॉमनवेल्थ घोटाला, फिर 2-जी घोटाला, बेकाबू महँगाई, और अन्ना हजारे के आंदोलन ने इस सरकार की छवि पर गहरे दाग छोड़ दिये हैं। विपक्षी दलों की आलोचनाओं और आरोपों को छोड़ भी दें तो देश के इतिहास में पहली बार उद्योग जगत ने इस सरकार के कामकाज और नीतिगत फैसलों में विलंब को लेकर खुल कर आलोचना की है।उद्योग जगत ने इस सरकार को नीतिगत फैसलों के मामलों में लकवाग्रस्त तक कह डाला। अब यह साफ है खुदरा (रिटेल) व्यापार में 51% एफडीआई की अनुमति के फैसले को भी ठंडे बस्ते में डाला जा रहा है। इससे उद्योग जगत हतप्रभ है और इसने कहा है कि इससे विदेशी निवेश और आर्थिक विकास पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ेगा।

आर्थिक लाभ-हानि के बहीखाते से ज्यादा लोकतंत्र में जनमत न केवल महत्वपूर्ण होता है, बल्कि सर्वोपरि होता है। नीति-निर्माताओं को यह बात सदैव याद रखनी चाहिए। लेकिन लगता है कि इस सरकार ने अपनी पिछली गलतियों से कोई सबक नहीं लिया है।अब वह होल्ड-बैक (स्थगन) और रोल-बैक (वापसी) के फिजूल के विवाद में अपनी ऊर्जा नष्ट कर रही है।

जब महँगाई बेकाबू रहती है तो कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेता राहुल गाँधी कहते हैं कि गठबंधन सरकार की मजबूरियाँ होती हैं और वह चाह कर भी कुछ फैसले नहीं ले पाती है। पर एफडीआई के इस फैसले पर सरकार यह मजबूरी क्यों भूल गयी? क्यों आनन-फानन में यह फैसला लिया गया? क्यों संसद को विश्वास में नहीं लिया गया? संसद के बाहर क्यों इस फैसले की घोषणा की गयी? अब यूपीए सरकार के वित्त मंत्री कहते हैं कि इस मसले पर जो भी घोषणा की जायेगी, वह संसद के बाहर नहीं हो सकती। असल में संसदीय परंपराओं और गरिमा की अवहेलना ही कांग्रेस को भारी पड़ गयी है। इस सरकार के कार्यकलापों को देख कर साफ लगता है कि यूपीए-2 सरकार के कुएँ में भंग पड़ी हुई है।तृणमूल कांग्रेस के दिनेश त्रिवेदी का वक्तव्य कि संसद कोई लायंस क्लब या रोटरी क्लब नहीं है, न ही संसद कोई कैंटीन है जहाँ सांसद आयें और गपशप करके चले जायें, संसदीय व्यवस्था के अवमूल्यन पर यह बेहद गंभीर टिप्पणी है। यदि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सरकार ने राजनीतिक सहमति बनाने की कोशिश की होती, तो आज उसकी यह फजीहत नहीं होती।

हाल में पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने के मुद्दे पर भी सरकार ने कुछइसी तरह की अदूरदर्शिता दिखायी थी। पेट्रोलियम क्षेत्र में एक सोची-समझी रणनीति के तहत संपूर्ण सुधार के बदले इसने केवल पेट्रोल के दाम बढ़ाने का फौरी कदम उठाया, लेकिन जब राजनीतिक विरोध भारी पडऩे लगा तो दो बार कीमतें घटाने का फैसला किया गया। दोनों बार इन फैसलों की जिम्मेदारी सरकारी तेल कंपनियों पर डाली गयी, लेकिन लोग बखूबी समझते हैं कि ये फैसले कहाँ होते हैं।

अब यूपीए सरकार के संकटमोचक कहलाने वाले वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि देश को विश्वास में लेकर ही इस मुद्दे पर फैसला किया जायेगा।यह स्वागत योग्य वक्तव्य है और उम्मीद भी जगाता है।भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वोच्च है, संविधान भी इस बात की ताकीद करता है। यह किसी सरकार के हारने या झुकने का मसला नहीं है, बल्कि लोकतंत्र में लोगों की भावनाओं का सम्मान है।यूपीए सरकार लोगों की भावनाओं से छल नहीं करेगी, ऐसा विश्वास करना चाहिए।यही देशहित में है।

(निवेश मंथन, दिसंबर 2011)

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