रवि बुले :
यह ऐसी बात है जिसे हम फिल्मों में देखते हैं। कहानियों में सुनते हैं। पुराणों में पाते हैं। नायक अभावों में पैदा होता है, पलता है, बढ़ता है। वह सत्य के लिए, समृद्धि के लिए संघर्ष करता है, जबकि खलनायक तमाम बुराइयों के बाद भी ऐश्वर्य के शिखर पर रहता है।
उसे किसी प्रकार का अभाव नहीं रहता। अपने दुर्गुणों के बावजूद जीवन के सारे सुख वह भोगता है। तब क्या वाकई यह सत्य है कि अच्छे लोगों के पास लक्ष्मी नहीं आती? यदि किस्मत से मिलती भी है, तो दूर हो जाती है? राम राजमहल में जन्मे लेकिन वनवास भोगना पड़ा, जबकि लंकेश रावण के घर में संसार का समस्त वैभव था। पांडव सज्जन होकर भी दुष्ट, दंभी और कपटी दुर्योधन के कारण वन-वन भटकते रहे। रावण और दुर्योधन, दोनों अपनी अंतिम सांस तक राजसी सुख भोगते रहे। वहीं राज्य पाने के बाद भी राम परीक्षाओं से गुजरते रहे। लोकलाज के मारे पत्नी को दूर करना पड़ा। पांडव महासमर को जीतने के बाद भी अपने बंधु-बांधवों के संहार के संताप में जलते रहे।
क्या वाकई अच्छाई और सुख-समृद्धि की स्वामिनी लक्ष्मी में वैर है? हिंदू धर्मग्रंथों में लक्ष्मी को आदि देवी कहा गया है। 1500 ईसा पूर्व में लिखे गये ऋ ग्वेद में ‘श्री’ के रूप में लक्ष्मी का वर्णन है। वह संपत्ति, सौभाग्य, सौंदर्य और सत्ता की देवी हैं। वह दात्री हैं, देने वाली हैं। अन्न, स्वर्ण, पशु और अश्व देती हैं। उनके विभिन्न रूप हैं : राजलक्ष्मी, जयलक्ष्मी, यशोलक्ष्मी, भाग्यलक्ष्मी और गृहलक्ष्मी। हिंदू मानस स्त्री में किसी और देवी के नहीं, बल्कि लक्ष्मी के गुणों की ही अपेक्षा करता है। इसलिए जब पुत्री जन्म लेती है, तब कहा जाता है लक्ष्मी आयी है। विवाह करके बहू घर आती है तो कहते हैं लक्ष्मी आयी। लक्ष्मी जन के मन पर अंकित हैं। वह विचारों में हैं। व्यक्ति के कर्म का उद्देश्य भी लक्ष्मी की प्राप्ति है। व्यक्ति अपने परिश्रम से लक्ष्मी की ही साधना करता है। उसे ही प्रसन्न करता है।
इसके बाद भी लक्ष्मी समान रूप से सब पर प्रसन्न नहीं दिखतीं। आम धारणा है कि लक्ष्मी चंचल होती है। एक जगह पर नहीं टिकती। जब उस पर ज्यादा चिंतन किया जाता है तो यह भी दिखता है कि वह अच्छे लोगों के पास नहीं रहती या अपने वैभवशाली रूप में नहीं विराजती। आम मानस जिन लोगों को अनैतिक मानता है, बुरा मानता है, जो अपराधी हैं, उनके पास ही अक्सर लक्ष्मी का विराट वैभव नजर आता है, तो मन सहज चौंकता है। आखिर ऐसी कौन सी बात है, जिसके कारण लक्ष्मी ऐसे लोगों के पास ज्यादा होती है? जबकि होना उल्टा चाहिए। अनैतिक लोगों और अपराधियों को तो उसे दंडित करना चाहिए। ऐसे लोगों से उसे दूर रहना चाहिए।
प्राचीन काल से मुनियों ने लक्ष्मी के स्वभाव की चंचलता पर मनन किया है। उसकी चंचलता के बावजूद उन्होंने उसे मानव जीवन के चार परम लक्ष्यों में जगह दी : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। अर्थ यानी धन ही लक्ष्मी है। मुनियों ने अनुसार लक्ष्मी पौरुष से आती है। पौरुष यानी प्रयास। लक्ष्मी को प्रयास से प्राप्त करना होता है। उसके लिए उद्यम करने होते हैं। पुराण कथाओं पर गौर करें तो पृथ्वी पर लक्ष्मी का आविर्भाव कड़े उद्यम के बाद हुआ। पृथ्वी की संपन्नता के लिए जब देवताओं और दानवों ने मिल कर समुद्र मंथन किया, तो उससे निकले चौदह रत्नों में से एक लक्ष्मी भी थी। अत: सहज है कि परिश्रम ही लक्ष्मी को पाने का साधन है। कथाओं के अनुसार, लक्ष्मी असुरकन्या है। वह पाताल से पृथ्वी पर आयी थी। असुरराज पुलोमन उसके पिता और असुरों के गुरु शुक्राचार्य की बेटी भार्गवी उसकी माँ है। पृथ्वी पर आने के बाद लक्ष्मी ने विष्णु का वरण किया था। ऐसे में यह भी माना जाता है कि जहाँ विष्णु का निवास होगा, वहाँ लक्ष्मी सहज ही मौजूद रहेंगी। वे पति की छाया हैं। वास्तव में विष्णु का अर्थ यहाँ धर्म से है, नीति से है, बुद्धि से है। लक्ष्मी भले ही स्वभाव से चंचल हों, लेकिन साफ है कि जहाँ धर्म, नीति और बुद्धि होगी, वहाँ वे अपने वास्तविक रूप में रहेंगी ही।
ऐसे में यह विचार मन से निकाल देना चाहिए कि लक्ष्मी अच्छे लोगों के पास नहीं जाती। समृद्ध होने का यह अर्थ कतई नहीं कि खूब सारे धन को आप कहीं किसी तिजोरी में, किसी कोठार में बंद करके रख लें। धन का मालिक होना और बात है, और उसका चौकीदार होना दूसरी बात। आध्यात्मिक विचारक तेजगुरु सरश्री ने अपनी पुस्तक ‘पैसा रास्ता है मंजिल नहीं’ में लिखा है कि जब पैसे के साथ सत्य जुड़ता है तब पैसा ईश्वरीय उपहार बनता है। आध्यात्मिक मार्ग में लक्ष्मी (पैसे) के बारे में जो भी बताया जा रहा है, उसका अर्थ सिर्फ पैसा नहीं है। बल्कि कुल-मूल उद्देश्य (आत्मसाक्षात्कार) का मार्ग है।
संसारी व्यक्ति जीवन में संतुलन चाहता है। वह चाहता है कि उसके पास इतना धन हो कि वह जीवन में अभावों को महसूस न करे। प्रकृति की विशेषता उसकी विविधता है। इंसान-इंसान में मौलिक भेद हैं और धन को कमाने की उनकी क्षमता में भी। इस बात को हर व्यक्ति को समझना होगा। असंतोष तब पैदा होता है, जब व्यक्ति अपने से बाहर दूसरे को देखता है और उससे तुलना करता है। सच यह है कि धन कितना ही हो, कभी संपूर्ण संतोष नहीं दे सकता। दुनिया में बहुत सारी चीजें हैं, जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकतीं। पैसे से आप लॉटरी का टिकट तो खरीद सकते हैं, लेकिन क्या धन की शक्ति आपकी लॉटरी खुलने की गारंटी दे सकती है? प्रेम, मित्रता, ज्ञान, स्वास्थ्य, समय... यह भी धन हैं। लक्ष्मी के ही रूप। जिनके पास ये नहीं हैं, वे अभागे हैं। स्पष्ट है कि सिक्कों और नोटों के रूप में लक्ष्मी अपने-आप में लक्ष्य नहीं हो सकती। उसके साथ अच्छाई और नीति का बोध आवश्यक है। जो लोग न्याय, विवेक, बुद्धि को दरकिनार सिर्फ धन कमाने में लग जाते हैं, वे उसका सुख नहीं भोग नहीं पाते। अक्सर देखने में आता है कि अनैतिक और अपराध के मार्ग से धन कमाने वाले लोगों का सुख बहुत दिनों तक नहीं टिकता। जिस रास्ते से धन कमाया गया होता है, उस रास्ते के प्रभाव भी धन के साथ आते हैं... और फिर उनके दुष्परिणाम भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सामने आते हैं। यही कारण है कि लक्ष्मी की अकेले पूजा नहीं होती। उनके साथ बुद्धि के देवता गणेश और विद्या की देवी सरस्वती की आराधना की जाती है। लक्ष्मी जहाँ घर में समृद्धि लाती हैं, वहीं सरस्वती शांति। गणेश दोनों के बीच का संतुलन हैं, धर्म हैं। बंगाल की धार्मिक मान्यताओं में तीनों को मां दुर्गा की संतानें बताया गया है, जबकि अन्य धर्म ग्रंथों में लक्ष्मी-सरस्वती को ऋद्धि-सिद्धि का रूप माना गया है।
इस प्रकृति में हर चीज अपने विशिष्ट स्वभाव के साथ है। शिव अगर नीलकंठी हैं, कालिका का रूप अगर रौद्र है और हनुमान का भाव सदैव राम के सेवक का है, तो यह भी स्वीकार करना चाहिए कि लक्ष्मी स्वभाव से अस्थिर है। असल में लक्ष्मी बहुत सरल है। तरलता उसका गुण है। वह अच्छे-बुरे में भेद नहीं करती। उसके लिए सब बराबर हैं। वह एक नजर से सबको देखती है। रोचक बात यह है कि कई ग्रामीण कथाओं में लक्ष्मी को भैंगी बताया गया है, जो नहीं देख पाती कि आखिर वह किस दिशा में जा रही है! वह बेचैन है। वह एक जगह ठहर नहीं सकती। ऐसे में स्वाभाविक है कि लक्ष्मी को एक जगह बांधे रखने का प्रयास करना बेकार है। लक्ष्मी के इस स्वभाव के कारण ही यह मान्यता पैदा हुई कि खड़ी लक्ष्मी की पूजा नहीं करनी चाहिए। लक्ष्मी की तस्वीर या प्रतिमा ऐसी हो, जिसमें वह कमल पर प्रसन्न मुद्रा में बैठी हुई हों।
पुराण कथाओं में है कि लक्ष्मी की जुड़वाँ बहन भी है, अलक्ष्मी। वह लक्ष्मी के ठीक विपरीत है। वह अपने साथ दरिद्रता, भूख और दुर्भाग्य लाती है। एक दिन भगवान विष्णु की गैर मौजूदगी में अलक्ष्मी उनके घर, क्षीरसागर पहुँच गयी। लक्ष्मी ने अपनी बहन का खूब स्वागत किया। दोनों बहनें बहुत दिनों बाद मिली थीं, तो खूब बातें हुईं। होते-होते बात यहाँ तक पहुँची कि दोनों में कौन ज्यादा सुंदर है? कोई फैसला करने वाला था नहीं। कुछ देर बार विष्णु आये तो उन्हें निर्णायक बनाया गया। वे जानते थे कि दोनों में किसी को भी नाराज नहीं किया जा सकता। बहुत सोच-समझ कर उन्होंने कहा, लक्ष्मी, तुम आती हुई सुंदर दिखती हो, और अलक्ष्मी, तुम जाती हुई सुंदर दिखती हो।‘ दोनों प्रसन्न हुईं और अलक्ष्मी खुशी-खुशी क्षीरसागर से विदा हुई।
बंगाल के गांवों में लक्ष्मी पूजन से पहले तिनकों से अलक्ष्मी की आकृति बना कर उसे नष्ट किया जाता है। इसके बाद उसी जगह पर लक्ष्मी की प्रतिमा की स्थापना की जाती है। इस प्रकार वहाँ दीवाली को लक्ष्मी की अलक्ष्मी पर विजय के रूप मे मनाया जाता है। सच है कि अलक्ष्मी को कोई नहीं चाहता। अलक्ष्मी असल में अपना ही आलस्य, अपनी ही दीनता, अपना ही दौर्बल्य, अपना ही अविवेक और अपनी ही मूर्खता है। इस दीवाली पर इन्हें विदा करें। लक्ष्मी अपने आप आयेंगी।
(निवेश मंथन, अक्तूबर 2011)