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धीमी पड़ी, पर बुरी नहीं यह विकास दर

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Category: अगस्त 2011

धर्मकीर्ति जोशी, निदेशक और मुख्य अर्थशास्त्री, क्रिसिल

भारतीय अर्थव्यवस्था धीमी पड़ रही है, इस बात में कोई दो राय नहीं है। हमारा मानना है कि 2011-12 में भारतीय अर्थव्यवस्था के बढऩे की रफ्तार कुछ और कम हो जायेगी। क्रिसिल ने साल 2011-12 में 7.7%-8% विकास दर (जीडीपी वृद्धि) का अनुमान लगाया है।

भारत बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में दूसरी सबसे तेज बढऩे वाली अर्थव्यवस्था है। सबसे तेज रफ्तार चीन की है, उसके बाद भारत की रफ्तार सबसे तेज है। लेकिन हम 9% विकास दर की उम्मीदें करने लग गये हैं। अगर उससे तुलना करने लगें तो यह विकास दर कुछ कम लगती है। पर वैसे देखें तो अपने-आप में यह बढ़त काफी अच्छी है।
अगर हम दूसरी वैश्विक अर्थव्यस्थाओं से तुलना करके देखें तो फैक्टर कॉस्ट पर भारत की ग्रोथ रेट बाकी देशों से काफी अच्छी है। लेकिन हमें जो ग्रोथ है रियल जीडीपी ही देखनी चाहिए। सामान्य विकास दर (नॉमिनल ग्रोथ) में हम चीन से आगे हो सकते हैं, लेकिन वास्तविक विकास दर (महँगाई का असर हटा कर) कितनी है, वही ज्यादा मायने रखती है।
हाल में (पूँजीगत) निवेश की गतिविधियों में काफी धीमापन आया है। निजी खपत (प्राइवेट कंजंप्शन) अब भी मजबूती से बढ़ रही है, पर निवेश में बड़ा स्पष्ट गिरावट देख रही है। जहाँ तक कृषि क्षेत्र की बात है, अगर मानसून सामान्य भी रहे है तो इस क्षेत्र में ज्यादा बढ़त नहीं होगी, क्योकि पिछले साल इसके बढऩे की दर बहुत मजबूत थी। हमारा अनुमान है कि इस साल कृषि क्षेत्र की विकास दर 2.7%-2.8% के करीब रहेगी।
उद्योग (इंडस्ट्री) में अभी बिल्कुल धीमापन दिख रहा है। इस स्थिति में तो थोड़ा सुधार होगा। हमारे मानना है कि उद्योग की विकास दर 7.25%-7.3% होगी। सेवा क्षेत्र (सर्विसेज) में एक तेज चाल कायम है। इस क्षेत्र के बढऩे की दर 9% से ऊपर ही रहती है। इस क्षेत्र के बारे में हमारा इस साल अनुमान 9.4% का है।
जहाँ तक निवेश गतिविधियों का सवाल है, यह 2011-12 की पहली छमाही में थोड़ी कमजोर ही रहेगी। लेकिन दूसरी छमाही में इसके बढऩे की उम्मीद है। दरअसल अभी महँगाई दर ऊँची होने के कारण भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) अभी ब्याज दरें कुछ और बढ़ायेगा। अभी जो स्थितियाँ हैं, उन्हें देखते हुए अपने-आप में 7.7%-8% विकास दर कुछ बुरी नहीं है। लेकिन बात यह है कि कहीं महँगाई और ज्यादा बढऩे से आरबीआई को तेजी से और ज्यादा ब्याज दरें न बढ़ानी पड़े। ऐसा होने पर विकास दर और नीचे आ सकती है। लेकिन सामान्य स्थितियों में अभी यही अनुमान है कि विकास दर में एक हल्की-सी कमी ही आयेगी।
घरेलू अर्थव्यवस्था में खपत तो मजबूती से बढ़ रही है। साल 2010-11 में यह 8.6% रही है। अगले साल यह थोड़ा नीचे करीब 8% पर आ जायेगी। निवेश में सालाना वृद्धि लगभग 8-9% है। दूसरी छमाही में इसकी वृद्धि दर बहुत नीचे आ गयी थी। अगले साल में निवेश गतिविधियाँ पिछले साल के मुकाबले धीमी रहेंगी, पर बहुत ज्यादा धीमापन नहीं दिखायी देगा। पहली छमाही कमजोर रहेगी, लेकिन दूसरी छमाही में इसमें तेजी दिखेगी। खपत में मजबूत बढ़त रहने पर निवेश में भी तेजी आयेगी ही। ऐसा नहीं होने पर आपूर्ति में कमी आ जाती है। इसलिए ब्याज दरें ज्यादा होने के बावजूद निवेश बढ़ेगा, क्योंकि अर्थव्यवस्था में माँग अभी बरकरार है।
खपत दर अच्छी रहने के बाद भी हाल में निवेश में धीमापन आने के पीछे 2-3 कारण रहे हैं। निवेश का एक चक्र होता है। यह कभी बढ़ता है, फिर कभी धीमा होता है और उसके बाद फिर से बढ़ता है। इस बार इस चक्र में थोड़ी ज्यादा गिरावट आ गयी
यह निवेश में सरकारी प्रक्रिया से जुड़ी बाधाओं के चलते भी हो रहा है, खासकर बिजली के क्षेत्र में जहाँ में ईंधन आपूर्ति (फ्यूल लिंकेज) और अनुमति (क्लीयरेंस) वगैरह के मुद्दे असर डाल रहे हैं। बुनियादी ढाँचा (इन्फ्रास्ट्रक्चर) क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा धीमापन इसलिए है, क्योंकि सरकारी अनुमति की प्रक्रिया में काफी सुधार की जरूरत है अभी। यही बात निवेश के रास्ते आड़े आ रही है।
दूसरा कारण यह है कि इस्पात (स्टील), सीमेंट, कारोबारी जमीन-जायदाद (कमर्शियल रियल एस्टेट) जैसे क्षेत्रों में पहले ही काफी निवेश हो गया था। अभी इनमें अतिरिक्त क्षमता बाकी है। लिहाजा इनमें पहले जैसी तेजी से निवेश नहीं बढ़ रहा है।
इन दोनों की वजह से हमने निवेश में काफी तीखे ढंग से धीमापन आते देखा है। जहाँ तक वाहन (ऑटोमोबिल), टिकाऊ उपभोक्ता सामान (कंज्यूमर ड्यूरेबल गुड्स) वगैरह में निवेश का सवाल है, उनमें धीमापन कुछ हद तक चक्रीय (साइक्लिकल) था। पहले ही इन कंपनियों ने काफी निवेश किया था साल 2010 तक। अब उनके निवेश में थोड़ा ठहराव आया है। पर आगे चल कर उन्हें जल्दी ही दोबारा निवेश की तरफ बढऩा होगा, क्योंकि मांग में मजबूती बनी हुई है।
इसीलिए मुझे लगता है कि दूसरी छमाही में निवेश में तेजी आयेगी, क्योंकि उसमें मांग का असर फिर से दिखायी देगा। दूसरे, थोड़ी ये उम्मीद है कि सरकार बुनियादी ढाँचा क्षेत्र के लिए कुछ करेगी। यह बाजार में ज्यादातर लोगों की उम्मीद है। ऐसा होने से बुनियादी ढाँचा में निवेश भी तेजी पकड़ेगा। जहाँ तक सीमेंट और रियल एस्टेट जैसे क्षेत्रों का सवाल है, उनमें तो अभी कमजोरी बनी रहेगी। दूसरी छमाही में निवेश तेज होने की उम्मीद मोटे तौर पर दो बातों पर निर्भर करती है। पहली बात यह कि खपत से जुड़ी मांग कितनी मजबूत बनी रहती है। दूसरी बात यह है कि सरकार कितनी निवेश के फैसलों पर कितनी जल्दी कदम उठाती है।
बीते कारोबारी साल की चौथी तिमाही में जीडीपी बढऩे की दर घट कर 7.8% रह जाने पर चिंता तो हुई है। लेकिन यह बात भी सही है कि इसके पिछले साल की चौथी तिमाही 9.4% की बढ़ोतरी हुई थी, मतलब पिछला आधार (बेस) ऊँचा था। पूरे साल 2010-11 को देखें तो 8.5% की बहुत ही अच्छी बढ़त है। अगले साल अगर थोड़ा धीमापन भी आ जाता है तो यह अपेक्षित है। खुद आरबीआई ऐसा चाह रहा है और अर्थव्यवस्था को थोड़ा धीमा करने की कोशिश कर रहा है। वह ब्याज दरें इसीलिए बढ़ा रहा है कि महँगाई को काबू में लाने के लिए विकास दर को कुछ कम करे।
महँगाई घटाने के लिए आरबीआई ने अब तक जो महत्वपूर्ण निर्णय अभी तक लिये हैं, उनका कोई खास असर अब तक नहीं दिखने का मुख्य कारण यही है कि आरबीआई की नीतियों का असर होने में थोड़ा समय लगता है। एक-डेढ़ साल के बाद ही उसका असर दिखायी देता है। ब्याज दरें बढऩे की शुरुआत मार्च 2010 में हुई थी, इसलिए उसका असर अब इस साल दिखेगा। 
लेकिन इससे ये कहना ठीक नहीं है कि आरबीआई ने समय से कदम नहीं उठाये। बिहाइंड दी कर्व (समय से पीछे) रह जाने की बातें सब बाद में करते हैं क्योंकि कर्व तो किसी ने पहले से देखा ही नहीं है। अभी तो पूरे एशिया में महँगाई का दौर है।
कुछ हद तक इतनी महँगाई बढऩे का किसी को अंदाजा भी नहीं था। इसलिए यह नतीजा निकालना ठीक नहीं है कि आरबीआई के कदम समय से पीछे रह गये। इस मामले में आरबीआई सिर्फ ब्याज दरें ही बढ़ा सकता है, और कुछ नहीं कर सकता। मेरा अनुमान है कि आरबीआई ब्याज दरों में इस साल और 0.25%-0.5% अंक की बढ़ोतरी कर सकता है।
हालाँकि उस जगह ब्याज दरों में बढ़ोतरी रुक जायेगी या उसके बाद और भी बढ़ेगी, यह इस बात निर्भर है कि महँगाई दर कितनी तेजी से नीचे आती है। अगर यह नीचे नहीं आती है तो ब्याज दरों में और भी बढ़ोतरी संभव है। रेपो दर अभी 7.25% पर है, लेकिन पिछले सालों में यह 9% भी रह चुकी है। (रेपो दर पर ही एसबीआई जैसे व्यावसायिक बैंक आरबीआई से बेहद छोटी अवधि के कर्ज लेते हैं।)
इसके अलावा, महँगाई दर पर असर डालने वाली कुछ बातों पर आरबीआई की नीतियों का असर नहीं हो सकता। जैसे पेट्रोल-डीजल के दाम या खाने-पीने की चीजों के दाम पर ब्याज दरें बढऩे से कुछ फर्क नहीं पडऩे वाला।
(निवेश मंथन, अगस्त 2011)

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