शिवानी भास्कर
ईएमआई बढऩे से घर-घर की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। पर ब्याज दरों का बढऩा जारी है...
राकेश मेहता आजकल अपनी किस्मत को कोस रहे हैं। केवल साल भर पहले जब उन्होंने राजधानी दिल्ली की सीमा से 10 किलोमीटर दूर अपना एक आशियाना बुक कराया, तो खुशी से उन्हें ऐसा लगा कि अब कोई और ख्वाब पूरा करना बाकी न बचा हो। केवल 3 साल का इंतजार और फिर अपनी छत का सुख।
उन्होंने फरवरी 2010 में 25 लाख रुपये का मकान खरीदने के लिए 20 लाख रुपये का कर्ज लिया। यह कर्ज उन्हें 20 साल में वापस करना था। बैंक ने कर्ज देने के समय फ्लोटिंग आधार पर 8% की ब्याज दर तय की थी। उस समय मेहता साहब को हर महीने 16,729 रुपये की मासिक किस्त चुकानी थी। लेकिन केवल साल भर में आठ बार चौथाई फीसदी और नौवीं बार आधी फीसदी की बढ़ोतरी के बाद अब उनके कर्ज की ब्याज दर 10.5% हो चुकी है। अब हर महीने की एक निश्चित तारीख को उन्हें यह सुनिश्चित करना होता है कि उनके बैंक खाते में 19,968 रुपये पड़े हों।
साल भर में मासिक किस्त में हुई करीब 3,200 रुपये की यह बढ़त मामूली नहीं है। यह मेहता जी के दो बच्चों के स्कूल की मासिक फीस के बराबर है। जाहिर है कि मेहता जी की घरेलू अर्थव्यवस्था चरमराने लगी है। उस पर तुर्रा यह कि ब्याज दरों के बढऩे का सिलसिला फिलहाल रुकने की उम्मीद भी नहीं। अगर अगले 6-9 महीने में एक फीसदी की और बढ़त हुई, तो उनकी मासिक किस्त का बोझ हो जाएगा 21,329 रुपये, यानी करीब 1,400 रुपये और। इस तरह केवल साल भर में घर कर्ज की किस्त पर 4,600 रुपये का अतिरिक्त बोझ। और यह वैसी हालत में, जब अभी अपनी छत का सुख उन्हें नसीब नहीं हुआ है। वे एक साथ ईएमआई और किराया, दोनों भर रहे हैं।
यह कहानी केवल राकेश मेहता की नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में अपना घर खरीदने वाले किसी भी आम आदमी की कमर टूट रही है। जब 20 साल के लिए लिए गए घर कर्ज (होम लोन) पर ब्याज की दर में 1% की बढ़ोतरी होती है, तो हर एक लाख रुपये पर करीब 65-70 रुपये की देनदारी बढ़ जाती है।
अब मेहता साहब तो फंस चुके हैं, लेकिन उनके पड़ोसी राजेंद्र सोढ़ी ने उनसे सीख ले ली है। सोढ़ी भी अपना घर खरीदने को बेताब थे, लेकिन फिलहाल उन्होंने अपने सपनों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। और घर ही क्यों, कार या कोई अन्य कीमती उपभोक्ता वस्तु खरीदने की योजनाएँ भी बढ़ती ब्याज दरों के डर से टलने लगी हैं। यह एक चक्र के पूरा होने जैसा है।
करीब दो दशक पहले देश में उदारीकरण का दौर शुरू होने से पहले भी कर्ज की दरें 16-17 फीसदी तक हुआ करती थीं। तब कर्ज लेकर घर या गाड़ी खरीदने के बारे में कोई सोचता तक नहीं था। लेकिन जब बैंकिंग सुधार शुरू हुए और निजी बैंकों के आने से प्रतिस्पर्धा बढ़ी तो ब्याज दरें भी नीचे की ओर सरकते-सरकते 10% के पास पहुँच गयीं।
आम लोगों ने बैंकों से कर्ज लेकर गाडिय़ाँ खरीदनी शुरू कीं तो देश के वाहन क्षेत्र (ऑटो सेक्टर) में भी बहार आ गयी। घरों के लिए कर्ज लेने का चलन ऐसा बढ़ा कि जहाँ पहले लोग सेवानिवृत्ति के बाद अपने आशियाने की नींव रखना शुरू करते थे, वहीं अब युवा पीढ़ी नौकरी की शुरुआत करते ही अपना घर खरीदने का सपना साकार करने लगी।
करीब 10-12 सालों तक अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार बदस्तूर जारी रही। सब कुछ गुलाबी सा नजर आने लगा। साल 2003 से 2008 के बीच शेयर बाजार ने जो स्वर्णिम उड़ान भरी, उससे शेयर बाजार का प्रतिनिधि सूचकांक सेंसेक्स 3000 से चढ़ कर 21000 के ऊपर पहुँच गया।
लेकिन फिर दुनिया में आयी सदी की सबसे बड़ी आर्थिक मंदी। अमेरिका में पूरे बैंकिंग क्षेत्र के ढह जाने का खतरा मंडराने लगा और यूरोप में तो कई देशों की सरकारें दीवालिया होने के कगार पर आ गयीं। तब हालात सँभालने के लिए पूरी दुनिया के केंद्रीय बैंकों ने अपने खजाने खोल दिये। दुनिया भर के वित्तीय तंत्र नकदी से लबालब हो गये। जो शेयर बाजार और कमोडिटी बाजार अमेरिका में लेहमान ब्रदर्स के ढहने के बाद जमीन चाट रहे थे, वे फिर एकदम तेजी से ऊपर चढ़े।
लोगों के हाथों में ज्यादा पैसे आये तो पता चला कि बाजारों में उपभोक्ता वस्तुओं की कमी पड़ गयी। भारतीय अर्थव्यवस्था तो पहले से ही विकास के दरवाजे पर खड़ी थी। सरकार की ओर से दिये गये राहत पैकेजों और वेतन आयोगों के दिलदार तोहफों ने लोगों की जेब कुछ मोटी कर दी। फिर क्या था, रिजर्व बैंक ने जिस महँगाई दर के लिए अपना सुविधाजनक स्तर (कंफर्ट लेवल) 5% मान रखा था, वह बढ़ कर दो अंकों में चली गयी।
महँगाई दर और ब्याज दरों के बीच सीधा रिश्ता होता है। यह समझ लें कि महँगाई दर जितनी है, ब्याज दर उससे कुछ ज्यादा ही होगी। दरअसल ब्याज दर से महँगाई दर घटाने के बाद जो बचे, वही सही मायने में ब्याज से शुद्ध कमाई कही जा सकती है। ऐसे में भारत के केंद्रीय बैंक को एक बार फिर से ब्याज दरें बढ़ाने की राह पर चलना पड़ा है। कुछ वर्षों पहले तक 7-8% के दायरे में चल रही ब्याज दरें वापस 10-12% की जद में लौट चुकी हैं। आरबीआई ने 16 जून को फिर से अपनी ब्याज दरें बढ़ा दी हैं।
इन सबका असर भी दिखने लगा है। गाडिय़ों की बिक्री पिछले दो वर्षों में पहली बार सुस्त होती दिख रही है। अगर घर कर्ज ले चुके लोग लगातार बढ़ती मासिक किस्तों के चलते अपने बजट की नैया सँभालने में जुटे हैं, तो नया घर लेने की सोच रहे लोग फिलहाल अपने सपनों को ठंडे बस्ते में डालने पर मजबूर हैं।
जानकारों का कहना है कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी का यह सिलसिला अगले वित्त वर्ष की पहली तिमाही तक जारी रह सकता है। अभी कम-से-कम तीन-चौथाई से एक फीसदी तक की बढ़ोतरी और हो सकती है।
यानी साफ है कि घर कर्ज के मौजूदा ग्राहकों के लिए मुश्किलें अभी और बढऩे वाली हैं। गाड़ी या घर खरीदने का मन बना चुके कई लोगों को अभी कुछ महीने और मन मसोसना पड़ सकता है। लेकिन अब ऐसा भी लगता है कि हम ब्याज दरें बढऩे के दौर के आखिरी चरण में प्रवेश कर रहे हैं। अगर ऐसा है तो आने वाले साल एक बार फिर विकास की नयी रफ्तार का गवाह बन सकते हैं।
(निवेश मंथन, अगस्त 2011)