राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
देश से काला धन भ्रष्टाचार, नकली करेंसी, आतंकवाद और आपराधिक धंधों को जड़-मूल से समाप्त करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने विमुद्रीकरण का युगांतकारी निर्णय लिया। प्रधानमंत्री का यह फैसला साहसिक भी है और जोखिम भरा भी। मोदी देश के दूसरे प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने देश के बड़े नोटों के विमुद्रीकरण का फैसला किया है।
इससे पहले 16 जनवरी 1978 में जनता पार्टी के शासन में तत्कालीन पीएम मोरारजी देसाई ने काले धन की समाप्ति के लिए 1,000, 5,000 और 10,000 रुपये के नोटों के विमुद्रीकरण का फैसला किया था। पर तब कुल 145.42 करोड़ रुपये के करीब 14 लाख ऐसे नोट ही चलन में थे, जो कुल प्रचलित मुद्रा का मात्र 0.6% हिस्सा था। इनमें 10,000 का नोट महज 346 थैलीशाहों के पास था। इसलिए तब कोई बड़ा भूचाल न अर्थव्यवस्था में आया और न ही सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त हुआ। अलबत्ता इस फैसले के बाद मोरारजी देसाई की पार्टी छह विधानसभा चुनावों में से चार बड़े राज्यों में चारों खाने चित्त हो गयी। गौरतलब है कि इस विमु्द्रीकरण के बाद अर्थव्यवस्था में काले धन का तेज विस्तार हुआ और थैलीशाहों ने काले धन को ठिकाना लगाने के कई नये रास्ते ईजाद कर लिये।
पर आज 2016 के विमुद्रीकरण की तुलना उस समय से करना व्यर्थ है। तब और अब की परिस्थितियों में जमीन-आसमान से भी बड़ा अंतर है। अब कुल मु्द्रा चलन में 500 और 1,000 रुपये के नोट करीब 86% हैं। आज मेहनतकश दिहाड़ी मजदूर के पास भी 500-1000 के नोट हैं। तकरीबन 23 अरब बड़े नोट आज नोट चलन में हैं। बैंकों में इन नोटों को जमा कराने की आखिरी तारीख 30 दिसंबर 2016 है। इसलिए आज बैंकों और एटीएम के आगे लंबी कतारें हैं। नोटबंदी के कारण लगभग 100 लोगों की असमय मौत हो चुकी है। 2,000 रुपये का नया नोट भी खुद में बड़ी मुसीबत बन गया है। पर भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय लगातार उद्घोष कर रहे हैं कि करेंसी की कोई कमी देश में नहीं है, पर बैंकों और एटीएम पर ‘कैश नहीं है’ की सूचना उनके दावों को मुँह चिढ़ा रही है।
शुरुआती सरकारी आकलन था कि विमुद्रीकरण के फैसले से 30 दिसंबर 2016 तक तकरीबन 10 लाख करोड़ रुपये तक बैंकों में जमा होंगे और 3 से 4.5 लाख करोड़ रुपये का एकमुश्त लाभ वाया रिजर्व बैंक केंद्र सरकार को होगा। पर 30 नवंबर तक ही बैंकों में 9.90 लाख करोड़ रुपये 500 और 1000 रुपये के नोटों की शक्ल में जमा हो चुके हैं। अब सरकार का यह गणित भी गड़बड़ा रहा है। अब उसकी सारी उम्मीद 50% की अघोषित आय योजना पर टिकी हुई है।
तमाम बदहाली और विसंगतियों के बाद भी देश के हुकमरान और सरकारी हाकिम अडिग हैं कि दिसंबर मध्य तक सब कुछ सामान्य हो जायेगा। बैंकों की ब्याज दर में गिरावट आने से माँग और निवेश में तेजी से बढ़ोतरी होगी, रोजगार में इजाफा होगा, अर्थव्यवस्था में कच्चे-पक्के के कारोबार के खात्मे से पहले से अधिक पारदर्शिता आने से कर संग्रह में अधिक वृद्धि देखने को मिलेगी। अब जरूर सरकारी हाकिमों मे माना है कि चालू वित्त की तीसरी तिमाही पर अस्थाई मामूली प्रभाव पड़ सकता है।
पर अधिकांश गैर-सरकारी विशेषज्ञ इस आकलन से सहमत नहीं हैं। 1991 से शुरू हुए उदारवाद-बाजारवाद से ही वैश्विक वित्त संगठनों, अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों और बड़ी निवेशक संस्थाओं के आकलनों और उनके सुझावों को सरकारें सर-माथे पर रखती रही हैं। पर इनमें से कोई भी अभी सरकारी धारणा से सहमत नहीं है। इन अधिकांश संस्थानों ने चालू वित्त वर्ष में विकास दर के अनुमानों को संशोधित कर घटा दिया है। कुछ ने कम तो कुछ ने ज्यादा। इस बात पर सब सहमत हैं कि विमुद्रीकरण के फैसले के प्रभावों से पूरे तौर पर उबरने में कम-से-कम एक से डेढ़ साल का समय लगेगा।
विमुद्रीकरण के फैसले का सबसे ज्यादा प्रभाव नकद अर्थव्यवस्था पर पडऩा तय है। देश की कुल जीडीपी का दो तिहाई हिस्सा नकद अर्थव्यवस्था के रूप में है। देश में कुल लेन-देन का 90-92% हिस्सा नकद में होता है। कृषि और गैर-संगठित क्षेत्र लगभग नकद लेन-देन पर ही निर्भर हैं। देश की 50% से अधिक आबादी आय के लिए इन क्षेत्रों पर निर्भर है। यहाँ मंदी की साफ आहट सुनी जा सकती है। इतिहास सिद्ध है कि दुनिया भर में विमुद्रीकरण के फैसले असफल रहे हैं। इसलिए देश की ही नहीं पूरी दुनिया की नजरें प्रधानमंत्री मोदी के इस फैसले पर हैं। पर इतना तय है कि इसका व्यापक असर राजनीति, सामाजिक-आर्थिक बनावट, सामाजिक सद्भाव और संस्कृति पर पड़ेगा। विमुद्रीकरण के राजनीतिक लाभ की खेती काटने के लिए बिसात बिछ चुकी है और पीएम मोदी काले धन की जंग को अमीर बनाम गरीब की जंग में तब्दील करने की लगातार पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2016)