राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
देश की आर्थिक स्थिति डाँवाडोल है। पल में लगता है कि आर्थिक हालात सुधर रहे हैं तो दूसरे ही पल लगता है कि आर्थिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आर्थिक तस्वीर कोई उत्साहजनक नहीं है। फ्रांस और ग्रीस के चुनावी नतीजों से यूरोपीय संकट को लेकर चिंता की लकीरें और गहरी हो गयी हैं।
लगता है कि वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने भारतीय आर्थिक परिदृश्य को लेकर जो आकलन पेश किया है। उसका असर सरकारी आकलनों और वक्तव्यों से ज्यादा है। इस एजेंसी ने लंबी अवधि के भारतीय आर्थिक परिदृश्य की रेटिंग पर अपना नजरिया %स्थिर% से घटा कर %नकारात्मक% कर दिया है और आगाह किया है कि अगर भारत के वित्तीय और राजनीतिक हालात नहीं सुधरे तो आगामी दो साल में भारत की रेटिंग में गिरावट का खतरा पैदा हो सकता है। एजेंसी का मानना है कि भारी सरकारी घाटा और कर्ज का बढ़ता बोझ सबसे अहम आर्थिक चुनौतियाँ हैं। मुख्य सहयोगी दलों के विरोधपूर्ण रवैये के चलते यूपीए सरकार नीतिगत आर्थिक सुधारों के निर्णयों को लेने में असमर्थ साबित हो रही है।
स्टैंडर्ड और पुअर्स के इस आकलन से देश की उभरती हुई आर्थिक ताकत की छवि को धक्का लगा है। इससे सरकार पर खर्चों में कटौती यानी सरकारी घाटा कम करने और अधिक विदेशी निवेश को आकर्षित करने का दबाव बढ़ गया है। गार (जरनल एंटी एवॉयडेंस रूल्स) पर वित्त मंत्री ने अपने पाँव पीछे खींच लिये हैं और इसका क्रियान्वयन अगले वित्त वर्ष तक टाल दिया है। यह कदम वित्त मंत्री ने गठबंधन की मजबूरियों के कारण नहीं, बल्कि विदेशी निवेश कम हो जाने के डर से किया है। यह यूपीए सरकार की अदूरदर्शिता का प्रमाण है। असल में यूपीए सरकार का असली संकट गठबंधन की मजबूरियाँ नहीं बल्कि कुशासन, अपरिपक्वता और अदूरदर्शिता है। मगर यूपीए सरकार अपनी हर विफलता पर गठबंधन की मजबूरियों का पर्दा डाल कर आत्मघाती काम कर रही है।
घोटालों, महँगाई, बढ़ते सरकारी घाटे, नीतिगत अनिर्णय, विकास दर में कमी आदि गंभीर मसलों से यूपीए-2 सरकार अपने गठन के समय से ही जूझ रही है। अब चालू खाते की बढ़ती खाई ने 20 साल से चली आ रही उदारीकरण की नीतियों और मुहिम पर सवाल खड़े कर दिये हैं। भारत का व्यापार घाटा पिछले वित्त वर्ष में 56% बढ़ कर 185 अरब डॉलर हो गया है। चालू खाते का घाटा जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के 4% पर आ गया है जो बेहद संगीन स्थिति है। चालू खाते में घाटे का मतलब है कि हमारे आयात ज्यादा हैं, निर्यात कम। यानी देश अपने कुल उत्पादन से ज्यादा उपभोग या खर्च कर रहा है। यदि सरकारी घाटा अधिक होगा तो चालू खाते का घाटा अधिक रहेगा। इससे डॉलर के सापेक्ष रुपये की कीमत पर निरंतर दबाव बना हुआ है। अगस्त 2011 में एक डॉलर की कीमत 44 रुपये थी, जो दिसंबर 2011 में 54.23 रुपये के रिकॉर्ड स्तर को छू गयी। जनवरी-मार्च 2012 के दौरान डॉलर की विनिमय दर 49 रुपये के आसपास थी जो पिछले कुछ दिनों से 53.50 रुपये के इर्द-गिर्द हिचकोले खा रही है। बढ़ी हुई विनिमय दर के प्रभाव का अंदाजा इस तथ्य से आसानी से समझा जा सकता है कि डॉलर की कीमत एक रुपया बढ़ने से पेट्रोल की उत्पादन लागत 23 पैसे बढ़ जाती है।
1991 के आर्थिक संकट (तब सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा का प्रबंधन करना पड़ा था) ने उदारीकरण के पैरोकारों को शक्ति दी। उदारीकरण की नीतियों को लागू करने के पीछे मुख्य मकसद था कि चालू खाते के घाटे का वित्तपोषण पूँजी खाते में आये निजी विदेशी निवेश से होगा। नतीजतन अनेक क्षेत्रों में विदेशी निवेश की इजाजत दे दी गयी। शेयर बाजार में भी निवेश के लिए विदेशी निवेशकों के लिए रास्ते खोल दिये गये। आज इन्हीं निवेशकों के खौफ से वित्त मंत्री भीगी बिल्ली बनने को मजबूर हैं। चालू खाते की स्थिति सँभालने के लिए अरबों डॉलर की जरूरत होगी। लेकिन ये डॉलर आयेंगे कहाँ से?
(निवेश मंथन, मई 2012)