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  • अगले तीन सालों में इक्विटी में ही फायदा
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बिहार : कहाँ खो गयी चीनी की मिठास

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Category: दिसंबर 2013

विश्व के विभिन्न भागों से उठ रही चीनी की माँग को देखते हुए साल 1792 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना एक प्रतिनिधि मंडल भारत भेजा।

यहाँ चीनी उत्पादन की संभावनाओं का पता लगाने के लिए लुटियन जे पीटरसन के नेतृत्व में भारत आये प्रतिनिधि मंडल ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि बंगाल पे्रसिडेंसी के तिरहुत क्षेत्र की जमीन गन्ने की खेती के लिहाज से उपयुक्त है, यहाँ सस्ते मजदूर उपलब्ध हैं और यहाँ परिवहन की सुविधा भी बेहतर है। उस वक्त यह क्षेत्र नील की खेती के लिए जाना जाता था। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी की पहल के बाद इलाके के किसान गन्ने की खेती को भी अपनाने लगे।
इधर, क्षेत्र में गन्ने की खेती आरंभ होने के कुछ ही सालों के बाद साल 1820 में चंपारण क्षेत्र के बराह स्टेट में चीनी की पहली शोधक मिल स्थापित की गयी। तकरीबन 300 टन क्षमता वाले इस कारखाने में गन्ने रस से 8% तक चीनी का उत्पादन होता था। यहाँ उत्पादित चीनी इस क्षेत्र के लोगों को देखने के लिए भी नहीं मिलती थी और सारा माल बाहर भेज दिया जाता था। समय बीतने के साथ क्षेत्र में गन्ने की खेती का चलन बढ़ा और साल 1903 आते-आते गन्ने ने तिरहुत क्षेत्र से नील को हमेशा के लिए विदा कर दिया।
जहाँ तक बिहार में आधुनिक चीनी मिलों की स्थापना का सवाल है, सबसे पहले साल 1903 में तिरहुत क्षेत्र में आधुनिक चीनी मिल स्थापित हुई। साल 1914 तक चंपारण के लौरिया समेत दरभंगा जिले के लोहट और रैयाम चीनी मिलों से उत्पादन शुरू हो गया।
इसके बाद 1918 में न्यू सिवान और 1920 में समस्तीपुर चीनी मिल आरंभ हुए। इस तरह राज्य में चीनी उत्पादन की बड़ी इकाइयाँ स्थापित हो गयीं, लेकिन सरकार की उपेक्षा के कारण इनका तेजी से विकास नहीं हो पाया। प्रथम विश्व युद्ध के समय इनकी कुछ प्रगति अवश्य हुई, लेकिन विदेशी प्रतिस्पद्र्धा के आगे ये टिक न सकीं। साल 1929 तक भारत में यह कारोबार संकटग्रस्त हो गया और देश में चीनी मिलों की संख्या घट कर सिर्फ 32 रह गयी, जिनमें से पाँच तिरहुत क्षेत्र से थीं।
इसके बाद साम्राज्य कृषि गवेषणा परिषद ने गन्ना उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए चीनी उद्योग को संरक्षण देने की सिफारिश की। फलत: 1932 में पहली बार सात सालों के लिए इस उद्योग को संरक्षण दिया गया। तिरहुत क्षेत्र ने इस मौके का भरपूर फायदा उठाया और यहां जिस तेजी से इस उद्योग का विकास हुआ, वह संरक्षण की सार्थकता को सिद्ध करता है। चार साल के भीतर ही यहाँ चीनी मिलों की संख्या सात से बढ़ कर 17 हो गयी। इसके बाद साल 1937 में चीनी प्रशुल्क बोर्ड ने चीनी उद्योग को दो साल और संरक्षण देने की सिफारिश की।
लेकिन 1937 में विश्व के 21 प्रमुख चीनी उत्पादक देशों के बीच हुए एक अंतरराष्ट्रीय समझौते से संरक्षण का लाभ प्रभावित हुआ। इस समझौते में निर्यात का कोटा तय हुआ और बर्मा को छोड़ कर समुद्र के रास्ते अन्य किसी भी देश को चीनी का निर्यात करने के लिए भारत पर पाँच सालों के लिए रोक लगा दी गयी। इसके कारण 1942 तक बिहार सहित पूरे भारत में अति उत्पादकता की समस्या पैदा हो गयी।
चीनी उत्पादन की अधिकता से उत्पन्न परिस्थितियों का सामना करने के लिए चीनी उत्पादकों ने चीनी संघ की स्थापना की, ताकि चीनी के मूल्य की गिरावट को रोका जा सके। यह संघ अपने सदस्य कारखानों के द्वारा चीनी की बिक्री सुनिश्चित करने लगा।
ऐसी परिस्थितियों में साल 1966-67 तक बिहार के निजी चीनी मिल मालिकों ने चीनी कंपनियों पर पूरी तरह अपना कब्जा जमा लिया और ऐसी नीति अपनाने लगे ताकि चीनी पर से सरकार का नियंत्रण पूर्ण रूप से खत्म हो जाये। ऐसे में चीनी मिल मालिकों और सरकार के बीच टकराव बढऩे लगे। स्थितियों को भाँपते हुए केंद्र सरकार ने साल 1972 में चीनी उद्योग जाँच समिति की स्थापना की।
चीनी उद्योग की स्थिति और संबंधित समस्याओं की जाँच कर समिति ने सरकार को जो रिपोर्ट सौंपी उसमें उसने सरकार को चीनी कारखानों का अधिग्रहण करने का सुझाव दिया। फलस्वरूप साल 1977 से 1985 के बीच 15 से ज्यादा चीनी मिलों का अधिग्रहण बिहार सरकार ने किया।
उस दौरान जिन मिलों का अधिग्रहण किया गया उनमें समस्तीपुर सेन्ट्रल शुगर लिमिटेड (समस्तीपुर), तिरहुत कोऑपरेटिव शुगर कंपनी लिमिटेड (रैयाम), शीतल शुगर वक्र्स लिमिटेड (गोरौल), एस. के. जी. शुगर लिमिटेड (सिवान), गुरारू चीनी मिल (गुरारू), न्यू सिवान शुगर ऐंड गुर रिफाइनिंग कम्पनी (न्यू सिवान), दरभंगा शुगर कंपनी लिमिटेड (लोहट), साउथ बिहार शुगर मिल लिमिटेड (बिहटा), सुगौली शुगर वक्र्स लिमिटेड (सुगौली), एस. के. जी. शुगर लिमिटेड (हथुआ), एस. के. जी. शुगर लिमिटेड (लौरिया), मोतीपुर शुगर फैक्ट्री (मोतीपुर), दरभंगा शुगर कंपनी लिमिटेड (सकरी), पूर्णिया कोऑपरेटिव शुगर फैक्ट्री लिमिटेड (बनमनखी), वारिसलीगंज कोऑपरेटिव शुगर मिल लिमिटेड (वारिसलीगंज) शामिल थे।
बढ़ती गयी मिलों की दुर्दशा
इन मिलों को चलाने के लिए साल 1974 में बिहार स्टेट शुगर कॉर्पोरेशन लिमिटेड की स्थापना हुई और यह संस्था चीनी मिलों के घाटे को नियंत्रित कर इनके सुचारु प्रबंधन में लगी रही। लेकिन इनमें से ज्यादातर इकाइयाँ चीनी की कीमतों में गिरावट और लागत में बढ़ोतरी के दबाव को नहीं झेल सकीं। फलस्वरूप घाटा बढ़ते जाने की वजह से एक के बाद एक इकाइयाँ बंद होती चली गयीं।
नौबत यह आयी कि 1996-97 के पेराई सीजन के बाद सारी इकाइयों पर ताला लग गया। उस समय इन इकाइयों पर किसानों का 8.84 करोड़ रुपया और कर्मचारियों का 300 करोड़ रुपया बकाया था। ऐसे में जहाँ साल 1990 तक ईख की खेती तिरहुत क्षेत्र के कुछ जिलों तक सिमट कर रह गयी थी, वहीं साल 1997 आते-आते गेहूँ ने तिरहुत क्षेत्र से ईख को विदा कर दिया।
सरकार ने डाले हथियार
फरवरी 2006 में बिहार सरकार ने आखिरकार हथियार डाल दिये और यह स्वीकार कर लिया कि बंद चीनी मिलों को चलाने में वह असमर्थ है। मिलों को फिर से चालू करने के लिए सरकार ने गन्ना विकास आयुक्त की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति बनायी। समिति ने अंतत: इन इकाइयों के लिए निजी कंपनियों से निविदा आमंत्रित करने का फैसला किया ताकि वे इन बंद पड़ी चीनी मिलों को लीज पर ले सकें।
राज्य सरकार ने निविदा प्रक्रिया को सुचारु तौर पर चलाने के लिए वित्तीय परामर्शदाता के रूप में एसबीआई कैपिटल की नियुक्ति की। बंद चीनी मिलों को लीज पर देने की प्रक्रिया साल 2008 से आरंभ हुई। इस प्रक्रिया की शुरुआत से ही इसमें निवशकों की दिलचस्पी ना के बराबर रही और बंद पड़ी बिहार स्टेट शुगर कॉर्पोरेशन लिमिटेड की 15 मिलों में से अब तक सरकार केवल 7 को ही लीज पर देने में सफल हो सकी है।
सितंबर 2013 में सरकार ने बाकी 8 में से 4 को लीज पर देने की प्रक्रिया फिर से शुरू की है। बाकी 4 मिलों (सिवान, न्यू सिवान, गोरौल और गुरारू की चीनी मिलें) को बिहार इंडस्ट्रियल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी (बीआईएडीए) को सौंपा जा रहा है। बिहार के गन्ना सचिव सुधीर कुमार के अनुसार, पिछले पाँच सालों में इन मिलों को निजी निवेशकों को लीज देने की बहुत कोशिशें की गयीं लेकिन इनके लिए कोई प्रस्ताव नहीं मिला। ऐसे में अब इन्हें बीआईएडीए को सौंपने का फैसला किया गया है ताकि इन्हें किसी अन्य कार्य के लिए इस्तेमाल किया जा सके।
चीनी मिलों को लीज पर लेने के प्रति निवेशकों की अरुचि का एक अन्य कारण यह है कि वे केवल एथेनॉल के लिए चीनी मिल लेना चाहते थे, लेकिन राज्य सरकार के हाथ से यह अधिकार छिन गया। केंद्र ने गन्ने के रस से एथेनॉल बनाने की माँग को खारिज कर राज्य में बड़े निवेश को प्रभावित कर दिया। दिसंबर 2007 में गन्ना (नियंत्रण) आदेश 1996 में संशोधन कर दिया गया और इस संशोधन के बाद चीनी उत्पादन करने वाली मिलें ही एथेनॉल बना सकती हैं।
गौरतलब है कि दिसंबर 2007 से पहले गन्ने के रस से सीधे एथेनॉल बनाने की मंजूरी थी। जिन निवेशकों ने शुरुआत में चीनी मिलों को खरीदने की इच्छा प्रकट की थी, इस आदेश के बाद वे भी धीरे-धीरे अपने प्रस्ताव वापस लेते चले गये। ऐसे में बंद चीनी मिलों को चालू करा पाना आज भी एक बड़ी चुनौती है।
अब बात करते हैं उन सात मिलों की जिन्हें सरकार ने लीज पर दे दिया है। यह मानना गलत होगा कि सरकार की इस पहल से ये मिलें पुनर्जीवित हो गयीं। सकरी और रैयाम की चीनी मिलों को महज 27.36 करोड़ रुपये की बोली लगा कर लीज पर लेने वाली पटना-स्थित तिरहुत इंडस्ट्रीज पर आरोप लगते रहे हैं कि नयी मशीन लगाने के नाम पर यह रैयाम चीनी मिल के सभी पुराने साजोसामान बेच चुकी है।
साल 2009 में इसने 200 करोड़ रुपये के निवेश से अगले साल तक रैयाम मिल को चालू कर देने का दावा किया था लेकिन आरोप कि इस मिल की पुरानी सम्पति को बेचने के अलावा कंपनी अब तक कोई सकारात्मक पहल नहीं कर सकी है। साल 2009 में निविदा के प्रथम चरण में लीज पर दी जाने वाली सुगौली और लौरिया चीनी मिलों में ही अब तक काम शुरू हो पाया है।
फिर चाहिए संरक्षण
पिछले पेराई मौसम (2012-13) में 5.07 लाख टन चीनी के रिकॉर्ड उत्पादन के बावजूद बिहार की चीनी मिलों को करीब 250 करोड़ रुपये का घाटा सहना पड़ा था। बिहार में गन्ने से चीनी की रिकवरी की दर साल 2011-12 के 9.24% से घट कर साल 2012-13 में 8.63% रह गयी है। बिहार में चीनी का उत्पादन मूल्य तकरीबन 3600 रुपये प्रति क्विंटल है, जबकि चीनी का मूल्य घट कर 2950 रुपये प्रति क्विंटल रह गया है। छोआ की कीमत राज्य सरकार ने केवल 187 रुपये प्रति क्विंटल तय कर रखी है, जबकि उत्तर प्रदेश में इसकी कीमत 300 से 325 रुपये प्रति क्विंटल है। इसी प्रकार स्पिरिट की कीमत बिहार में महज 28 रुपये प्रति लीटर है जबकि उत्तर प्रदेश में 33 से 35 रुपये प्रति लीटर है। ऐसे में बिहार शुगर मिल एसोसिएशन ने सरकार से नकद सब्सिडी 17 रुपये की जगह 30 रुपये प्रति क्विंटल करने की मांग की है। शायद बिहार के चीनी उद्योग को एक बार फिर संरक्षण की जरूरत है।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2013)

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