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काले धन का रंग बदलने के जुगाड़

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Category: दिसंबर 2016

शाम के आठ बजे थे। सब कुछ आम दिनों की तरह ही था। कुछ लोग दफ्तरों से लौट कर चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। कुछ खाने की तैयारी में जुटे थे। बड़े शहरों में युवा लड़के-लड़कियाँ गोलगप्पे और मोमोज की दुकानों के सामने खड़े जायका ले रहे थे, स्वाद और साहचर्य का, किसी भी आम शाम की तरह। कुछ ही देर में अपने घरौंदों-दरख्तों पर लौटने की तैयारी में। तब तक अचानक टीवी चैनलों पर हुई इस घोषणा ने सब कुछ बदल कर रख दिया। क्या युवा, क्या बुजुर्ग, क्या मकान मालिक, क्या किरायेदार, अधिकांश लोग एटीएम के सामने कतारों में खड़े दिखे। 400 के गुणन में रुपये निकालने की होड़ मची थी।
लेकिन एक काम और हो रहा था। सर्राफा की दुकानों में अचानक भीड़ बढ़ गयी। सोने के दाम करीब 31,000 रुपये प्रति 10 ग्राम से बढ़ कर अगले दो-चार घंटे में 40-45 हजार रुपये तक पहुँच गये। तेजी से खरीदारी चल रही थी। दरअसल खेल चल रहा था रात के 12 बजने से पहले 500 और 1000 रुपये की नोट की शक्ल में ज्यादा से ज्यादा काले धन को पीले (सोने) में तब्दील कराने का। याद रखिये, प्रधानमंत्री ने 500 और 1000 के नोट रद्दी होने की बात कही थी, उससे खरीदे सामानों की नहीं। और, सोने से बढिय़ा निवेश क्या होता!
अमूमन रात 10-10:30 बजे तक बंद हो जाने वाली सर्राफा की दुकानें उस उस रात डेढ़-दो बजे तक खुली रहीं। सर्राफ नोटों की गड्डियाँ पकड़ते रहे और खरीदारों को सोना पकड़ाते रहे। रात 12 बजे के बाद भी बैक डेट में रसीदें कटती रहीं। यही हाल बड़े उपभोक्ता उत्पादों की दुकानों में था। जिनके पास थोड़ा कम काला धन था, उन्होंने जो चीजें खरीदनी मुल्तवी कर रखी थीं, या जो वस्तुएँ पुरानी पड़ गयी थीं, उन्हें खरीदने में 500 और 1000 के नोट खपाने शुरू कर दिये। फ्रिज, टीवी, लैपटॉप, वाहन इत्यादि की खरीद बढ़ गयी। लेकिन सरकार भी बेखबर नहीं था। सर्राफा की दुकानों पर छापे पडऩे लगे। विक्रेता और खरीदारों का हिसाब लिया जाने लगा।
अगले दिन यानी 9 नवंबर को रेल आरक्षण काउंटरों और हवाई टिकट बिक्री काउंटरों पर भीड़ बढ़ी। अचानक देश में यात्रा करने वालों की बाढ़ आ गयी। एक-एक आदमी लाखों के रिजर्वेशन टिकट खरीद रहा था।
दुकानों में भले 500-1000 रुपये के नोट चलने बंद हो गये हों, सरकारी सेवाओं में इन नोटों को अनुमति दी गयी थी। इसी का लाभ उठा कर काले धन के स्वामियों ने काला धन बचाने की रणनीति बनायी। वे एक-दो माह बाद की किसी तारीख में एसी फस्र्ट या सेकेंड दर्जे का आरक्षण कराने लगे। गणित यह थी कि कुछ दिनों बाद आरक्षण रद्द करा कर नये नोटों की शक्ल में पैसा वापस ले लेंगे यानी महज लिपिकीय खर्च की कटौती पर काला धन बचाने की योजना। 9 नवंबर की शाम होते-होते सरकार को भी यह खेल समझ में आ गया। सरकार ने इन पर रोक लगाने के लिए कुछ नये नियम बना दिये जैसे कि 15,000 रुपये से ज्यादा मूल्य का आरक्षण कराने पर आरक्षण कराने वाले की तमाम जानकारियाँ काउंटर पर जमा करानी पड़तीं। एक यह नियम बना कि तय सीमा से अधिक राशि का आरक्षण रद होने की स्थिति में रेलवे नकद नहीं लौटायेगा, बल्कि वह पैसा आरक्षण कराने वाले के खाते में जायेगा। अब अगर खाते में पैसा आया तो हिसाब भी देना पड़ेगा।
बड़े काला धन स्वामियों ने अलग तरकीब निकाली। वे अपनी कंपनी, फैक्टरी या प्रतिष्ठान के कर्मचारियों को दो-दो लाख, ढाई-ढाई लाख का नकद ऋण कम ब्याज या बिना ब्याज के देने लगे। कर्मचारियों को अगले कई महीनों का वेतन अग्रिम के तौर पर नकद दिया जाने लगा। जन-धन खातों में ढाई-ढाई लाख रुपये जमा कराने की भी खबरें जम कर आयीं। अमीरों ने अपनी अमीरी बनाये रखने के लिए फिर गरीबों को ढाल बनाया। सरकार ने यहाँ भी लगाम कसने के लिए नियमों-निर्देशों की तलवार चलायी।
काला धन बचाने का एक तरीका धार्मिक संस्थाओं को दान के जरिये भी अपनाया गया। चूँकि यह अत्यंत गोपनीय होता है और पूरी सेटिंग के बाद ही इस तरह का खेल होता है, इसलिए ऐसी खबरें बाहर तो नहीं आ पायीं, लेकिन सरकार को कुछ समय बाद इसकी पूरी जानकारी मिल ही जायेगी।
हालाँकि इसी से मिलता-जुलते एक खेल का पता चला। इसमें एक संस्थान ने पिछले 25 वर्षों में जितने लोगों ने कभी वहाँ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के तौर पर काम किया था, उनका पता लगवा कर, उन्हें बुला कर 20-20 हजार रुपये दिये। रुपये पाने वाले संस्थान के मालिक का गुण गाते हुए लौटे कि जब सरकार ने नोटों पर बंदी लगा दी, तब मालिक ही रहमदिल निकला और हमारी मुश्किलों को समझते हुए हमे पैसे दिये। कुल मिला कर अभी हम समझने की कोशिश कर रहे हैं कि सरकार और काला धन स्वामियों में डाल-डाल कौन है और पात-पात कौन।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2016)

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