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जीएसटी के आकलन की सही कसौटी

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Category: जुलाई 2017

राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :

संसद के मध्यरात्रि समारोह में ठीक 12 बजे घंटी बजने के साथ ही देश में एक जुलाई से जीएसटी लागू हो गया।

इस समारोह में वित्त मंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के भाषण हुए। सबने एक स्वर में कहा कि यह आजादी के बाद सबसे बड़ा कर और आर्थिक सुधार है। एक देश, एक कर, एक बाजार की बातें हुईं। प्रधानमंत्री ने कहा कि देश नये भारत की ओर बढ़ गया है। पर इन मायनों में नया कुछ भी नहीं था। ये बातें पहले सैकड़ों बार बतायी जा चुकी हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि टोल से मुक्ति मिल जायेगी। शायद प्रधानमंत्री यह बात भूल या अज्ञानवश कह गये हों। एक देश, एक कर, एक बाजार की अवधारणा पर पहले दिन से ही कुठाराघात हो गया। महाराष्ट्र सरकार ने राज्यों में वाहनों की बिक्री पर रजिस्ट्रेशन शुल्क पर चुंगी एवं अन्य स्थानीय करों की समाप्ति से होने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए 2% लेवी लगा दी है। तमिलनाडु में स्थानीय निकायों ने सिनेमा टिकटों पर 30% अलहदा टैक्स जड़ दिया है, जिससे कर बोझ 58% हो गया है। यह गंभीर मामला है, इससे निजात पाना जरूरी है। अन्यथा संक्रामक रोगों की भाँति यह अन्य राज्यों में भी फैल जायेगा।
वित्त मंत्री साफ कर चुके हैं कि जीएसटी का सारा कर बोझ जनता (उपभोक्ता) को ही उठाना है। पर गरीब, वंचित और निम्न-मध्य आय वर्ग पर जीएसटी की तीखी मार पड़ेगी। देश के हाट, साप्ताहिक बाजारों में यह वर्ग ज्यादा खरीदारी करता है। इन बाजारों में कपड़ा, प्लास्टिक का सामान, बरतन, विद्युत उपकरण आदि की आपूर्ति तक 100% इन असंगठित क्षेत्र की इकाइयों से होती है।
ऐसी अधिकांश इकाइयाँ डेढ़ करोड़ रुपये के कारोबार तक उत्पाद शुल्क से मुक्त थीं, पर अब यह सीमा घटा कर 20 लाख रुपये कर दी गयी है। मतलब साफ है कि अब ये इकाइयाँ जीएसटी के दायरे में आ गयी हैं। इससे उनकी उत्पादन लागत भी बढ़ेगी और व्यवसाय लागत भी। नतीजतन इन बाजारों को मिलने वाला सस्ता सामान अब महँगा हो जायेगा और उन्हें बड़े उद्योगों से कड़ी टक्कर मिलेगी।
यह असंगठित क्षेत्र ही बड़े उद्योगों और नीति निर्माताओं की आँख का कांटा बना हुआ था। हाल ही में वल्र्ड बैंक एंटरप्राइजेज का सर्वेक्षण सामने आया है। इस सर्वेक्षण में असंगठित क्षेत्र को संगठित क्षेत्र के विकास में एक कड़ी बाधा बताया गया है। विदेशी सस्ती पूँजी, खुदरा क्षेत्र की विशाल संगठित पूँजी असंगठित क्षेत्र को कोई कारगर चुनौती देने में नाकाम रहा है। अब यह क्षेत्र बड़े उद्योगों की अकूत पूँजीबल और उत्पादन पैमाने के सामने कमजोर होने के कारण बाजार से बाहर होने को अभिशप्त है।
जीएसटी में इन बड़े उद्योगों का कितना बड़ा फायदा होने वाला है, यह जीएसटी समझने जैसा मुश्किल काम नहीं है। प्लास्टिक और पैकेजिंग बाजार में असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी 40-45% है। विद्युत उपकरण जैसे पंखे पंप, मिक्सी, स्विचगियर आदि में 25-40%, डेयरी उद्योग में 80%, परिधान बाजार में 70%, भवन निर्माण की सामग्री जैसे सेरामिक टाइल, प्लाईवुड आदि में 50-70%, ज्वेलरी में 75%, डाइग्नोस्टिक क्षेत्र में 85% हिस्सेदारी असंगठित क्षेत्र की है। फर्नीचर में यह हिस्सेदारी 90% से ऊपर है। इस क्षेत्र पर ही कर चोरी, कच्चे बिल-पक्के बिल का इल्जाम है। प्रधानमंत्री मोदी इसका जिक्र कई बार कर चुके हैं। पर यह विशाल बाजार प्लेट में सजा कर बड़े उद्योगों को भेंट कर दिया गया है।
देश का 92% गैर कृषि रोजगार यह असंगठित क्षेत्र ही मुहैया कराता है। अब इस क्षेत्र पर अस्तित्व का आसन्न खतरा मँडरा रहा है। जाहिर है कि इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर लोग बेरोजगार होंगे। संगठित क्षेत्र और सरकारें रोजगार बाजार को हर साल आने वाले एक करोड़ युवाओं को जीविका देने में बुरी तरह नकारा रही है। पिछले पाँच सालों में संगठित क्षेत्र कितना रोजगार दे पाया है, इसका ब्योरा श्रम ब्यूरो की सालाना रिपोर्ट से सबके सामने है। असंगठित क्षेत्र में जीविका खोने वाले लाखों-करोड़ों लोगों का क्या वही हश्र होगा, जो देश में बुनकरों का हुआ? आने वाले समय में रोजगार की समस्या भारी असंतोष को जन्म दे सकती है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी यह बात बड़े ही तल्ख शब्दों में कह चुके हैं।
किसी भी देश में आर्थिक विषमता को दूर करना बड़ा लक्ष्य होता है। बाजारवादी ढाँचे की यह समस्या ज्यादा विकराल हो गयी है। इस समस्या ने विकसित देशों को हिला दिया है। जीएसटी के विश्व अनुभव के संकेत साफ हैं कि जिन-जिन देशों में यह व्यवस्था लागू हुई है, वहाँ-वहाँ आय विषमता तेजी से बढ़ी है, क्योंकि यह कर स्वयं में असंवेदनशीलता और असमानता का पोषक है। जीएसटी में सबसे ज्यादा मार उस वर्ग पर पड़ती है, जिसकी आय कम होती है और खर्च आमदनी से ज्यादा। किसी कर व्यवस्था के अच्छे या बुरे होने की एक ही कसौटी है कि कुल मिला कर जनजीवन पर कर का बोझ घटता है या बढ़ता है। और इसी पैमाने पर इतिहास में जीएसटी का आकलन होगा।
(निवेश मंथन, जुलाई 2017)

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